उत्तराखंड में सावन और हरेला पर्व: प्रकृति, परंपरा और आस्था का उत्सव

Spread the love

सावन की दस्तक और देवभूमि की धड़कन,उत्तराखंड, जिसे ‘देवभूमि’ कहा जाता है, हिमालय की गोद में बसा एक ऐसा प्रदेश है जहाँ हर मौसम, हर पर्व, हर परंपरा प्रकृति और आध्यात्मिकता से गहराई से जुड़ी होती है। वर्ष के बारह महीनों में सावन का महीना उत्तराखंड के लिए विशेष महत्व रखता है। यह न केवल पावन धार्मिक आस्था का समय होता है, बल्कि लोक-संस्कृति, कृषि, और सामाजिक जीवन का भी एक अहम हिस्सा होता है।

सावन का महीना आते ही पहाड़ हरियाली की चादर ओढ़ लेते हैं। झरने, नदियां, ताल-तलैया, खेत-खलिहान, हर चीज़ में जैसे जीवन का संचार हो जाता है। आकाश में उमड़ते घनघोर बादल, धरती पर बिखरती हरियाली और मंदिरों में गूंजती घंटियों की ध्वनि एक अलौकिक वातावरण तैयार कर देती है। इसी माह में आता है हरेला पर्व — प्रकृति, पर्यावरण और कृषि की एक जीवंत पूजा।


पौराणिक पृष्ठभूमि: सावन और शिव

सावन का महीना विशेष रूप से भगवान शिव को समर्पित होता है। पुराणों और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, यही वह समय था जब समुद्र मंथन हुआ और विष का प्याला भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया। इस कारण उनका गला नीलवर्णी हो गया और वे ‘नीलकंठ’ कहलाए। तभी से सावन के महीने में शिवजी की पूजा का विशेष महत्व है।

उत्तराखंड कुमाऊं में शिव के अनेक प्राचीन मंदिर हैं जैसे —

नैनी देवी मंदिर (नैनीताल)

चिता देवी मंदिर (अल्मोड़ा)

झूला देवी मंदिर (रानीखेत)

कटारमल सूर्य मंदिर (अल्मोड़ा)

ग्वेल देवता मंदिर (चंपावत, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ में कई स्थानों पर)

पाताल भुवनेश्वर गुफा मंदिर (पिथौरागढ़)

बागेश्वर बागनाथ मंदिर (बागेश्वर)

मुक्तेश्वर महादेव मंदिर (नैनीताल)

कालू सैय्यद मंदिर (अल्मोड़ा)

नारायण आश्रम (पिथौरागढ़)

जागेश्वर धाम (अल्मोड़ा)

ध्वज मंदिर (पिथौरागढ़)

मनकामेश्वर मंदिर (रानीखेत)

शीतला देवी मंदिर (हल्द्वानी)

कत्यूर घाटी के मंदिर (बागेश्वर-अल्मोड़ा क्षेत्र)

  • जागेश्वर धाम
  • बैजनाथ मंदिर

इन सभी स्थानों पर सावन में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। लोग जलाभिषेक, बेलपत्र, धतूरा, और भांग अर्पित करते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में ‘सावन सोमवारी व्रत’ भी विशेष श्रद्धा से रखा जाता है। महिलाएं, विशेषकर युवतियाँ, इस महीने को मनोकामनाओं की पूर्ति और पति की लंबी उम्र के लिए बहुत पावन मानती हैं।


हरेला पर्व का उद्भव और इतिहास

हरेला का उल्लेख प्राचीन लोककथाओं, रीति-रिवाजों और स्थानीय परंपराओं में गहराई से मिलता है। ‘हरेला’ शब्द का अर्थ ही है — हरियाली। यह पर्व न केवल धार्मिक या सांस्कृतिक महत्व रखता है, बल्कि कृषि जीवन से भी जुड़ा हुआ है। हरेला दरअसल वर्षा ऋतु की शुरुआत और आगामी कृषि कार्यों के लिए मंगलकामना का पर्व है।

हरेला का ऐतिहासिक संदर्भ:

  • कुमाऊं के चंद वंश के समय से लोकप्रिय — चंद राजाओं के काल में हरेला राजदरबार में भी धूमधाम से मनाया जाता था। राजा के लिए विशेष ‘हरेला’ उगाया जाता था और उसे शुभ संकेत के रूप में देखा जाता था।
  • लोककथाएँ — माना जाता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के प्रतीक के रूप में हरेला का उत्सव मनाया जाता है। यह पुनर्जन्म और नवजीवन का प्रतीक है।
  • ऋतु परिवर्तन का उत्सव — कृषि-प्रधान समाज में यह पर्व वर्षा के आगमन और नई फसल की तैयारी के लिए मनाया जाता था।

हरेला पर्व की तिथियाँ और आयोजन (2025 के सन्दर्भ में)

सावन मास की प्रथम तिथि (सावन संक्रांति) को हरेला पर्व मनाया जाता है। 2025 में यह पर्व 16 जुलाई को पड़ रहा है। परंपरागत रूप से हरेला 9-10 दिन पहले बोया जाता है। यानी इस बार 7 जुलाई 2025 को हरेला बोया जाएगा।

इन नौ-दस दिनों में हरेले की पौधियाँ (जो प्रायः 4-6 इंच तक बढ़ जाती हैं) रोज़ सुबह पानी और देखभाल से सींची जाती हैं। दसवें दिन यानी हरेला पर्व पर इन्हें काटकर पूजा अर्चना होती है।


हरेला बोने की विधि

हरेला बोना एक रोचक और पवित्र प्रक्रिया है। परंपरागत विधि इस प्रकार है:

  1. पात्र का चयन — तिमिला या मालू के पत्तों के दोने, बांस की टोकरी, या मिट्टी के छोटे बर्तन का उपयोग किया जाता है। अब प्लास्टिक की टोकरियाँ भी प्रचलन में हैं।
  • मिट्टी भरना — पात्र में उपजाऊ मिट्टी भरी जाती है।
  • अनाज बोना — पाँच या सात प्रकार के अनाज डाले जाते हैं — जैसे जौ, गेहूं, मक्का, धान, उड़द, गहत, चना।
  • सिंचाई — प्रतिदिन थोड़ी-थोड़ी सिंचाई होती है। अधिक पानी देना मना होता है।
  • गुड़ाई — पाँचवे दिन अनार के पेड़ की लकड़ी से हरेले की गुड़ाई की जाती है।
  • पूजन — दसवें दिन हरेले को काटकर भगवान शिव, पार्वती, ईष्ट देव, ग्राम देवता और पूर्वजों को अर्पित किया जाता है।

हरेला पर्व की धार्मिक और सांस्कृतिक विधियाँ

हरेला पर्व केवल अनाज उगाने तक सीमित नहीं है। इस दिन का आयोजन पूरे परिवार और गांव समुदाय के लिए एक सामूहिक पर्व होता है।

धार्मिक अनुष्ठान:

  • शिव-पार्वती की पूजा — मंदिरों और घरों में शिव-पार्वती की पूजा विशेष रूप से की जाती है।
  • हरेले का अर्पण — उगाए गए हरेले को भगवान को अर्पित किया जाता है।
  • पिंडदान — कहीं-कहीं पितरों के लिए भी हरेला चढ़ाया जाता है।

सांस्कृतिक परंपराएँ:

  • आशीर्वाद की परंपरा — बड़े-बुजुर्ग बच्चों और युवाओं के सिर, कान के पीछे, और कंधों पर हरेला रखते हुए आशीर्वाद देते हैं:
    “जी रया जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया।

    दुब जस फैल जाया, बेरी जस फली जाया।

    हिमाल में ह्युं छन तक, गंगा ज्यूं में पाणी छन तक,

    यो दिन और यो मास भेंटने रया।

    अकास जस उच्च है जे, धरती जस चकोव है जे।

    स्याव जसि बुद्धि है जो, स्यू जस तराण है जो।

    जी राये जागी रया। यो दिन यो बार भेंटने रया।”

    यह आशीर्वाद लंबी उम्र, सुख-समृद्धि, तेज बुद्धि और स्वस्थ जीवन की कामना करता है।

  • भोजन प्रसाद — हरेला पर्व पर खास पकवान बनाए जाते हैं:
    • पूरी
    • खीर
    • पूए
    • बड़े
    • मिठाईयाँ
  • हरेले के तिनके भेजना — जो लोग घर से दूर रहते हैं, उन्हें चिट्ठियों में हरेले के तिनके भेजे जाते हैं। यह प्रेम और पारिवारिक जुड़ाव का प्रतीक होता है।

कृषि और पर्यावरणीय दृष्टि हरेला पर्व

हरेला केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण जागरूकता का भी पर्व है।

  • फसल की भविष्यवाणी — मान्यता है कि हरेला जितना घना और हरा होगा, उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होगी।
  • वृक्षारोपण — आजकल हरेला पर्व को ‘वृक्षारोपण दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है। हजारों पौधे इस दिन लगाए जाते हैं।
  • बच्चों को शिक्षा — छोटे बच्चों को पौधारोपण के महत्व की शिक्षा दी जाती है। यह पर्व बच्चों में प्रकृति प्रेम और जिम्मेदारी का बीजारोपण करता है।

सावन और उत्तराखंड: अन्य पर्व और परंपराएँ

हरेला के अलावा सावन में उत्तराखंड में कई महत्वपूर्ण पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं:

  • नन्दा अष्टमी — नन्दा देवी की पूजा, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में।
  • कांवड़ यात्रा — हरिद्वार, ऋषिकेश से जल लाकर शिव मंदिरों में अर्पण करना।
  • बग्वाल — चंपावत क्षेत्र में रक्षा पर्व के रूप में मनाई जाती है।
  • रक्षाबंधन — सावन पूर्णिमा को भाई-बहन के रिश्ते का पर्व।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य और चुनौतियाँ

वर्तमान समय में हरेला पर्व की परंपरा आधुनिक जीवनशैली के चलते कुछ स्थानों पर कमजोर होती जा रही है:

  • शहरीकरण का असर — लोग छोटे घरों में रहते हैं जहाँ हरेला बोना कठिन हो जाता है।
  • संयुक्त परिवार का विघटन — परंपराएँ व्यक्तिगत होती जा रही हैं।
  • प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव — तेजी से कटते जंगल और पर्यावरणीय असंतुलन पर्व की आत्मा पर आघात करते हैं।

फिर भी सामाजिक संस्थाएँ, स्कूल, और स्वयंसेवी संगठन हरेला पर्व को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रहे हैं। वृक्षारोपण अभियान, सांस्कृतिक कार्यक्रम और सोशल मीडिया पर प्रचार-प्रसार इसके उदाहरण हैं।

हरेला पर्व: एक वैश्विक दृष्टिकोण

वृक्षारोपण और प्रकृति संरक्षण की अवधारणा आज वैश्विक महत्व की हो चुकी है। यूएन का ‘ग्रीन एजेंडा’, क्लाइमेट चेंज की चर्चाएँ, सब प्रकृति के प्रति वही संदेश देते हैं जो सदियों से हरेला पर्व देता आ रहा है। यह पर्व एक तरह से उत्तराखंड का ‘इको-फेस्टिवल’ बन चुका है।

उपसंहार: देवभूमि की हरी धरा का पर्व

हरेला पर्व केवल पर्व नहीं है। यह प्रकृति के साथ सहअस्तित्व का संदेश है। यह देवभूमि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर है। यहाँ की हरियाली, नदियाँ, पर्वत, सब गवाही देते हैं कि इस पर्व ने सदियों से लोगों को प्रकृति से जोड़े रखा है।

सावन के महीने में जब शिवालयों में घन्टियाँ बजती हैं, भक्तजन शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं, कांवड़िए पग-पग बढ़ाते हैं और पहाड़ हरेला पर्व की हरी चादर ओढ़ लेते हैं — तब देवभूमि का हर कण बोल उठता है:

“जी रया जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया!”


हरेला पर्व उत्तराखंड की मिट्टी, आस्था, और संस्कृति का उत्सव है। इसे बचाना, आगे बढ़ाना हम सबकी जिम्मेदारी है। यह पर्व हमें याद दिलाता है — हरियाली ही जीवन है, और प्रकृति से प्रेम ही असली धर्म है।

हरेला पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय चेतना का अनूठा प्रतीक है। सावन मास की शुरुआत पर मनाया जाने वाला यह पर्व हरियाली और प्रकृति के प्रति सम्मान का संदेश देता है। उत्तराखंड के लोग प्रकृति के प्रति गहरे स्नेह के लिए विश्वविख्यात हैं। यहाँ के पर्व, रीति-रिवाज और लोकजीवन पर्यावरण संरक्षण से जुड़े हुए हैं। हरेला पर्व के अवसर पर हर परिवार, गाँव और समुदाय द्वारा वृक्षारोपण किया जाता है। नैनीताल अल्मोड़ा गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में लोग देवदार, बुरांश, बांज, रीठा और अन्य स्थानीय पौधे लगाते हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि हरियाली और प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश है। बच्चों को भी इस पर्व के माध्यम से पेड़ लगाने और उनकी देखभाल करने की शिक्षा दी जाती है। हरेला पर्व उत्तराखंड की उस सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखता है, जिसमें प्रकृति को देवतुल्य माना जाता है। यह पर्व संदेश देता है कि हरियाली ही जीवन है और पर्यावरण की रक्षा ही हमारा भविष्य। उत्तराखंडवासियों का यह प्रयास आज वैश्विक पर्यावरण संरक्षण अभियान में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।




Spread the love