उत्तराखंड में बिजली चोरी अब महज़ तकनीकी समस्या नहीं रही, यह एक संगठित और सुनियोजित ‘महासिंडिकेट’ बन चुकी है—जिसका सिरा न केवल कुछ शहरी और ग्रामीण उपभोक्ताओं से जुड़ा है, बल्कि इसकी जड़ें बिजली विभाग के भीतर तक फैली हुई हैं। हाल ही में उत्तराखंड विद्युत नियामक आयोग (यूईआरसी) द्वारा जारी टैरिफ ऑर्डर के आंकड़े एक चौंकाने वाली सच्चाई सामने लाते हैं: केवल आठ शहरों—गदरपुर, जसपुर, जोशीमठ, खटीमा, लक्सर, लंढौरा, मंगलौर, और सितारगंज—में ही 27 प्रतिशत से लेकर 69 प्रतिशत तक का एटीएंडसी (एग्रीगेट टेक्निकल एंड कमर्शियल) लॉस दर्ज किया गया है।


यह आंकड़ा महज़ एक तकनीकी गड़बड़ी नहीं है। यह साफ दर्शाता है कि इन क्षेत्रों में बिजली चोरी, मीटर टेम्परिंग, बकाया वसूली में ढिलाई और विभागीय लापरवाही एक मिलीभगत के रूप में काम कर रही है। लंढौरा जैसे शहर में 69.40 प्रतिशत की लाइन लॉस—यह आंकड़ा खुद बयां करता है कि खेल कितना बड़ा है और कितनी गहराई तक फैला है।
बिजली चोरी: चंद लोगों का लाभ, पूरे राज्य की सज़ा
जब कुछ चुनिंदा क्षेत्र बिजली चोरी या बिल नहीं चुकाने की आदत में लिप्त रहते हैं, तो इसका सीधा असर राज्य के बाकी ईमानदार उपभोक्ताओं पर पड़ता है। उत्तराखंड में 46 विद्युत डिवीजन हैं, जिनमें 19 पहाड़ी और 27 मैदानी क्षेत्र में हैं। लेकिन इन आठ शहरों की करतूत का खामियाज़ा पूरे राज्य—यानि 114 अन्य शहरों और लाखों उपभोक्ताओं—को भुगतना पड़ रहा है। इसका नतीजा महंगी बिजली दरों के रूप में सामने आता है।
शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता
ऊर्जा निगम को सालाना 1000 करोड़ का नुकसान
उत्तराखंड पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (UPCL) को हर साल करीब 1000 करोड़ रुपये का नुकसान केवल ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन लॉस से हो रहा है। यह नुकसान, जो दरअसल बिजली चोरी और वसूली में लापरवाही का परिणाम है, राज्य के विकास बजट को सीधे प्रभावित करता है। जब इतना भारी घाटा उठाना पड़े, तो न केवल बिजली की दरें बढ़ती हैं, बल्कि सरकार की सामाजिक योजनाओं पर भी असर पड़ता है।
सरकारी तंत्र की नाकामी या मिलीभगत?
प्रश्न यह है कि क्या सरकार इस पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती? जवाब सीधा है—कर सकती है, पर करना नहीं चाहती। बिजली चोरी केवल उपभोक्ताओं की करतूत नहीं है, बल्कि इसमें विभागीय अधिकारी, कर्मचारी और फील्ड स्तर पर कार्यरत लाइनमैन तक शामिल हैं। मीटर की हेराफेरी, रीडिंग में गड़बड़ी, अवैध कनेक्शन और चुपचाप नजरअंदाज करना—यह सब भ्रष्टाचार की जड़ें उजागर करता है।
ऊर्जा निगम के कई कर्मचारी ‘कट पद्धति’ पर काम करते हैं—जहां उपभोक्ता से बिजली चोरी के एवज़ में रिश्वत ली जाती है और चोरी को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यही कारण है कि जिन क्षेत्रों में लाइन लॉस सबसे अधिक हैं, वहीं बिजली चोरी की घटनाएं सबसे ज्यादा पाई जाती हैं।
एनर्जी ऑडिट और कार्रवाई केवल कागज़ी घोषणा न रहे
हालांकि, नियामक आयोग ने निर्देश दिया है कि एनर्जी ऑडिट हो, कार्यों की नियमित मॉनिटरिंग हो और ओएंडएम तथा कैपिटल हेड में खर्चों पर नजर रखी जाए—लेकिन वास्तविकता में यह सब घोषणाएं केवल टैरिफ ऑर्डर तक सीमित रहती हैं। ज़मीनी स्तर पर अब तक किसी बड़े अधिकारी की जवाबदेही तय नहीं हुई, न ही किसी डिवीजन को बिजली चोरी पर रोक न लगाने के लिए दंडित किया गया।
आखिर कब होगा जवाबदेही तय?
जब उत्तराखंड सरकार 1000 करोड़ के घाटे पर भी चुप है और विभागीय भ्रष्टाचार पर आंखें मूंदे बैठी है, तो आम जनता को यह जानने का हक है कि उनके बिल क्यों बढ़ रहे हैं? क्यों वे समय पर बिल जमा करने के बाद भी लोड शेडिंग, ओवरचार्जिंग और महंगी बिजली जैसी समस्याएं झेलते हैं?
समाधान क्या है?
- सख्त कानून और ऑन द स्पॉट कार्रवाई: बिजली चोरी के मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट और ऑन द स्पॉट फाइन सिस्टम लागू हो।
- डिजिटल मीटरिंग और ऑटोमेटिक रिपोर्टिंग: पुराने मीटर हटाकर स्मार्ट मीटर लगाए जाएं जिनकी रिपोर्टिंग रीयल टाइम हो।
- कर्मचारियों की जवाबदेही तय हो: जिस डिवीजन में लाइन लॉस अधिक है, वहां के जेई, एसडीओ, और एक्सईएन की जिम्मेदारी तय हो और वेतन में कटौती जैसी सज़ा हो।
- जनता की भागीदारी: मोहल्ला स्तर पर विजिलेंस कमेटियां बनाई जाएं जो बिजली चोरी पर नजर रखें।
- बिजली चोरी को ‘आर्थिक अपराध’ घोषित किया जाए: जिससे आरोपी पर IPC की गंभीर धाराएं लगाई जा सकें।
बिजली चोरी उत्तराखंड के राजस्व को दीमक की तरह चाट रही है और विभागीय मिलीभगत इसे खाद-पानी दे रही है। अब वक्त आ गया है कि सरकार इस भ्रष्ट तंत्र पर खुलकर कार्रवाई करे और ईमानदार उपभोक्ताओं को राहत दे। अन्यथा जनता के मन में यह सवाल और गहराएगा—“हम क्यों भरें उस चोरी का बिल जो किसी और की मिलीभगत से हो रही है?”

