Hindustan Global Times,अटरिया देवी मंदिर….. रुद्रपुर, काशीपुर मां बाल सुंदरी इतिहास हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी,जर्नलिस्ट from उत्तराखंड ग्रुप अवतार सिंह बिष्ट

Spread the love

अटरिया देवी मंदिर एक प्राचीन मंदिर है, जिसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है।  कहा जाता है कि प्राचीन में मंदिर निर्माण के बाद किसी आक्रमणकारी ने मंदिर को तोड़ दिया था और मूर्तियां पास के कुएं में डाल दी थी।  सन् 1588 ईसवी में तराई का यह क्षेत्र रुद्रपुर को बसाने वाले राजा रुद्रचंद के कब्जे में आ गया।  प्रचलित जनश्रुति के अनुसार एक बार जब राजा रुद्रचन्द यहां के वनों में आखेट करने के लिये निकले तो एक स्थान पर उनके रथ का पहिया जमीन में धंस गया।  सैनिकों को रथ का पहिया निकालने का आदेश दे कर राजा विश्राम के लिए एक वट वृक्ष की छाया में लेट गये और राजा को नींद आ गयी। 

अटरिया देवी मंदिर….. रुद्रपुर, काशीपुर मां बाल सुंदरी इतिहास हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी,जर्नलिस्ट from उत्तराखंड ग्रुप अवतार सिंह बिष्ट

जब राजा निंद्रा में थे तो उन्होने एक स्वप्न देखा जिसमें माता भगवती ने उन्हें बताया कि जहां पर उनके रथ का पहिया धंसा है वहां पर उसके नीचे एक कुआं है और उसमें माँ की प्रतिमा दबी हुई है।  नींद से जागने पर राजा ने अपने सैनिकों को उस स्थान पर उत्खनन करवाने का आदेश दिया।  उस स्थान को खोदने के बाद दिखायी दिया कि वहां पर एक पुराने कुएं के अवशेष थे।  उसे और गहरा खोदने पर उसमें उन्हें देवी भगवती की वह प्रतिमा भी मिल गयी जिसके विषय में देवी ने स्वप्न में राजा को बतलाया था। 

https://googleads.g.doubleclick.net/pagead/ads?gdpr=0&client=ca-pub-6842804816252715&output=html&h=250&adk=290237789&adf=1851635409&pi=t.aa~a.2430835332~i.11~rp.4&w=299&fwrn=7&fwrnh=100&lmt=1692267437&num_ads=1&rafmt=1&armr=3&sem=mc&pwprc=9192855242&ad_type=text_image&format=299×250&url=https%3A%2F%2Fwww.kumauni.in%2F2022%2F04%2Ffamous-ataria-devi-temple-rudrapur.html%3Fm%3D1&host=ca-host-pub-1556223355139109&fwr=0&pra=3&rh=250&rw=299&rpe=1&resp_fmts=3&sfro=1&wgl=1&fa=27&uach=WyJBbmRyb2lkIiwiMTEuMC4wIiwiIiwiU00tQTEwNUYiLCIxMTUuMC41NzkwLjE2NiIsW10sMSxudWxsLCIiLFtbIk5vdC9BKUJyYW5kIiwiOTkuMC4wLjAiXSxbIkdvb2dsZSBDaHJvbWUiLCIxMTUuMC41NzkwLjE2NiJdLFsiQ2hyb21pdW0iLCIxMTUuMC41NzkwLjE2NiJdXSwwXQ..&dt=1692271590047&bpp=7&bdt=3368&idt=-M&shv=r20230815&mjsv=m202308100101&ptt=9&saldr=aa&abxe=1&cookie=ID%3D6f924239be4ef268-2235f34cdce20058%3AT%3D1692271590%3ART%3D1692271590%3AS%3DALNI_MaCp7A6rNOjY6yGncG3wDQCYqfvXg&gpic=UID%3D00000c2df6c0d925%3AT%3D1692271590%3ART%3D1692271590%3AS%3DALNI_MYormGFa3fGLSCZyjqwzvtyv-Ev-A&prev_fmts=0x0%2C299x200&nras=3&correlator=553371958518&frm=20&pv=1&ga_vid=176074228.1692271588&ga_sid=1692271589&ga_hid=998339399&ga_fc=1&u_tz=330&u_his=1&u_h=716&u_w=339&u_ah=716&u_aw=339&u_cd=24&u_sd=2.125&dmc=2&adx=20&ady=2749&biw=339&bih=582&scr_x=0&scr_y=793&eid=44759875%2C44759926%2C44759837%2C31077017%2C31077148%2C44799571%2C21065724%2C31067146%2C31067147%2C31067148%2C31068556&oid=2&pvsid=3129592034994741&tmod=736158142&uas=0&nvt=1&ref=https%3A%2F%2Fwww.google.com%2F&fc=1408&brdim=0%2C0%2C0%2C0%2C339%2C0%2C339%2C582%2C339%2C582&vis=1&rsz=%7C%7Cs%7C&abl=NS&cms=1&fu=128&bc=31&td=1&nt=1&ifi=3&uci=a!3&btvi=1&fsb=1&xpc=kBFiL0Zktm&p=https%3A//www.kumauni.in&dtd=598

राजा ने मूर्ति को बाहर निकलवा कर उसी स्थान पर देवी के मंदिर का निर्माण करवाया तथा उसमें देवी की मूर्ति की स्थापना करवा दी।  संयोग से जब मंदिर में देवी प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा करायी गयी उस समय चैत्र के नवरात्र चल रहे थे।  तभी से प्रत्येक वर्ष चैत्र नवरात्रों में देवी अटारी की पूजा अर्चना व पूर्णमासी को मेला लगता हैं जो अटरिया देवी मेला के नाम से जाना जाता है।

अटरिया मंदिर ,,इस मंदिर ने चंद वंश व मुगलों का दौर देखा है तो रुहेले और नवाबों के दर्जन से ज्यादा आक्रमणों का गवाह बना। फिर बियाबान तराई की आबादी-बर्बादी के बीच ‘तराई एंड भाबर गवर्नमेंट एस्टेट’ की ब्रितानी हुकूमत का साक्षी भी रहा। तमाम उतार-चढ़ाव आये। समय के थपेड़ों ने सब कुछ बदल डाला मगर 15वीं सदी की यह धार्मिक थाती आस्था, ऐतिहासिकता और पौराणिकता की गाथा सुनाने को आज भी मजबूत किले की मानिंद खड़ी है।

यहां बात हो रही है तराई के प्राचीनतम धार्मिक स्थलों में शुमार मां अटरिया देवी मंदिर की। यह चंद वंश का गौरव है और कुमाऊं नरेश श्री कुर्माचलाधिपति रुद्र चंद की अनमोल धरोहर। रुद्र चंद संस्कृत के विद्वान थे और देवी के उपासक भी। उन्होंने अपने शासनकाल में चार ग्रंथ ‘उषारागोदया, ययाति चारितम्, श्यैनिक शास्त्रम्, त्रैवर्णिक धर्म निर्णय’ आदि की रचना की। इतिहासकारों के मुताबिक रुद्र चंद के दौर में काशी व कश्मीर के पंडितों को कुमाऊं के पंडित तब शास्त्रार्थ आदि में पूरी टक्कर देते थे।

विद्वानों के सम्मान के साथ ही कुमाऊं नरेश में धार्मिक आस्था भी कूट-कूट कर भरी थी। सोरगढ़ का किला जीतने के बाद उन्होंने बालेश्वर व केदारेश्वर (चंपावत) में शिव मंदिर, अल्मोड़ा में मल्ला महल, भाबर में देवी व भैरव देव जबकि रुद्रपुर, काशीपुर व पिपलिया में देवी के मंदिर स्थापित करवाये।

जहां तक रुद्रपुर में मां अटरिया मंदिर की स्थापना का सवाल है, किंवदंति है कि तराई में आधिपत्य कायम होने के बाद एक बार राजा रुद्र चंद आखेट करते-करते यहां पहुंचे। थकान मिटाने के लिए वह कुछ देर पेड़ की छांव में सो गये तो उन्हे स्वपन् में देवी ने दर्शन दिये। दंत कथा के अनुसार देवी ने राजा को आदेश दिया कि कुछ दूर खुदाई करने पर पौराणिक मूर्तियां मिलेंगी। इनकी प्राण प्रतिष्ठा के बाद लगभग चार सौ कोस में फैला चंद वंश का राज्य सुरक्षित रहेगा।

रुद्र चंद ने यही किया और जिस स्थान पर देवी की मूर्तियां मिलीं वहां भव्य मंदिर स्थापित किया गया। कालांतर में यही मंदिर मां अटरिया देवी मंदिर के नाम से जाना गया। 1565 से 1597 तक के शासनकाल में तराई पर कब्जे के लिए मुगल ही नहीं बल्कि रुहेलों व नवाब आक्रांताओं ने कई बार आक्रमण भी किये पर कहते है कि देवी की शक्ति से उनके पैर जम नहीं सके। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार संस्कृत के विद्वान और पराक्रमी रुद्र चंद का जिक्र मुगल सम्राट अकबर के दरबार में भी चलता था। बहरहाल, अटरिया मंदिर में मुगल काल से ही नवरात्र में मेले की परंपरा का श्रीगणेश हो गया था। दंतकथा है कि राजा की पर्वतीय सेना व श्रद्धालु, तराई की पुरानी जातियां थारू-बुक्सा के साथ ही रुहेलखंड (उप्र के कई जिलों) से श्रद्धालु यहां मिलजुल कर मेले में हिस्सा लेते थे और देवी मां की आराधना कर पुण्य कमाते थे। कुल मिलाकर तराई का मां अटरिया मंदिर व यहां लगने वाला मेला ऐतिहासिकता के साथ ही पौराणिक गाथाओं को भी समेटे है
उधम सिंह नगर जिला, रुद्रपुर मुख्यालय
उधम सिंह नगर जिला नैनीताल का एक हिस्सा था, इससे पहले तराई बेल्ट को वर्तमान उधम सिंह नगर के रूप में 30/09/1995 को जिला बना दिया गया था।

अतीत में यह जमीन जो 1948 तक कठिन जलवायु के कारण वन भूमि से भरा था,उपेक्षित था। दलदली भूमि, चरम गर्मी, कई महीनो की वर्षा, जंगली जानवरों, रोगों और परिवहन के किसी साधन के अभाव में यहाँ एक स्थाई बसेड़ा बनाने से मानव जाति को रोका।

इतिहासकारों के मुताबिक, सैकड़ों साल पहले गांव रूद्रपुर को भगवान रूद्र के एक भक्त या रुद्र नाम के हिंदू आदिवासी प्रमुख ने स्थापित किया था, जो कि रुद्रपुर शहर का आकार लेने के लिए विकास के चरणों के माध्यम से पारित हुआ है। रुद्रपुर का महत्व बढ़ गया है क्योंकि यह जिला उधम सिंह नगर का मुख्यालय है। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान 1588 में इस भूमि को राजा रुद्र चंद्र को सौंप दिया गया था। राजा ने दिन में आज के हमलों से मुक्त रहने के लिए एक स्थायी मिलिटरी कैंप की स्थापना की। कुल मिलाकर उपेक्षित गांव रूद्रपुर नए रंगों और मानव गतिविधियों से भरा हुआ था। ऐसा कहा गया है कि रुद्रपुर का नाम राजा रुद्र चंद्रा के नाम पर रखा गया था। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान, नैनीताल को एक जिला बना दिया गया और 1864-65 में पूरे तराई और भावर को “तराई और भावर सरकारी अधिनियम” के तहत रखा गया, जिसे ब्रिटिश मुकुट द्वारा सीधे नियंत्रित किया गया था।

विकास का इतिहास 1948 से शुरू हुआ, जब विभाजन की समस्या से शरणार्थी समस्या सामने आई थी। उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों के अप्रवासी को “उपनिवेश योजना” के तहत 164.2 वर्ग किमी भूमि क्षेत्र में पुन: स्थापित किया गया था। व्यक्तिगत निवासियों को क्राउन ग्रांट एक्ट के अनुसार भूमि आवंटित नहीं की गई थी। दिसंबर 1948 में अप्रवासियों का पहला बैच आया।

कश्मीर, पंजाब, केरल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, गढ़वाल, कुमाऊं,बंगाल,हरियाणा,राजस्थान, नेपाल और दक्षिण भारत के लोग इस जिले में समूहों में रहते हैं। यह देश कई धर्मों और व्यवसायों के लोगों के साथ विविधता में एकता का उदाहरण है और ऐसा ही तराई है, जिसका रुद्रपुर में दिल है इस तराई को मिनी हिंदुस्तान नामित किया गया।अटरिया मंदिर रुद्रपुर

एक लोककथा के अनुसार, जब राजा रुद्र गुजर रहा था, तो उसका रथ दलदली भूमि में फंस गया था, इसलिए उसने उस जगह पर एक मंदिर बनाने का फैसला किया। वर्तमान अटरिया मंदिर बस स्टैंड से 2 कि.मी. की दूरी पर है और रुद्रपुर-हल्द्वानी मोटर मार्ग से आधा किलोमीटर दूर है। हर साल नवरात्रों के अवसर पर एक बड़ा मेला आयोजित किया जाता है और हजारों भक्त देवी अटरिया के आशीर्वाद की तलाश में आते हैं। मेला 10 दिनों के लिए आयोजित किया जाता है।
माँ बाला सुन्दरी देवी
खोखरा देवी के प्राचीन मंदिर का इतिहास चैती मेला से जुड़ा है।
यह मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
चैती मेला शुरू होने से पहले मां खोखरा देवी मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है।
नगर से दो-तीन किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में खोखरा देवी का प्राचीन व ऐतिहासिक मंदिर है।
चैती मेले के दौरान श्रद्धालु पहले खोखरा देवी मंदिर पर प्रसाद चढ़ाते हैं।
उसके बाद मां बाल सुंदरी देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना कर प्रसाद चढ़ता है।
काफी पुराना होने के कारण इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जा चुका है।
मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं के स्नान व पीने के लिए पानी का उचित प्रबंध किया गया है।
मंदिर के पुजारी सुशील कुमार गोस्वामी ने बताया कि करीब दो सौ वर्ष से उनके परिवार के लोग मंदिर की सेवा कर रहे हैं।
पहले उनके परदादा बाबू गिरी, दादा श्याम गिरि, ताऊ राजकुमार गिरि व पिता रामरूप गोस्वामी मंदिर में माता की सेवा व पूजा करते थे। अब वह मंदिर की सेवा कर रहे हैं।
मन्नतें मांग बांधते हैं चुनरी
मंदिर की यह विशेषता है कि वहां शादी के बाद पति-पत्नी जोड़े से प्रसाद चढ़ाते हैं।
इसे जोड़ी की जात लगाना कहते हैं।
काफी श्रद्धालु मंदिर गेट पर चुनरी बांध कर मन्नतें मांगते हैं ।जय माँ बाल सुंदरी देवी!
काशीपुर : गांव खड़कपुर देवीपुरा स्थित
माँ खोखरा देवी का मंदिर है।
बताते हैं कि माँ बाल सुदंरी का ही एक स्वरुप
माँ खोखरा देवी है।
चैत्र नवरात्र की अष्टमी की सुबह जब माँ बाल सुंदरी देवी का डोला कानूनगोयान स्थित नगर मंदिर से चैती मंदिर जाता है तो उसी समय मां खोखरा देवी भी खड़कपुर देवीपुरा मंदिर में खुद श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए चली जाती। जब मां बाल सुंदरी देवी का डोला चतुदर्शी की मध्य रात वापस नगर मंदिर आता तो मां खोखरा देवी भी चली आती। शेष दिन साथ रहती।
मंदिर का निर्माण सामान्य तरीके से किया है।
मंदिर के पुजारी सुशील कुमार बताते हैं कि उनकी पीढ़ी वर्ष 1880 से मंदिर की देखरेख कर रही,
मगर मंदिर की सही जानकारी नहीं।

जब से मां बाल सुंदरी देवी का मंदिर बना है, तभी से मां खोखरा देवी मंदिर का निर्माण माना जाता। मां बाल सुंदरी देवी मंदिर के पुजारी वंश गोपाल अग्निहोत्री ने बताया कि मां खोखरा देवी मां बाल सुंदरी देवी का ही स्वरुप है।

ये है मंदिर की खासियत
काशीपुर: मां खोखरा देवी के पुजारी सुशील कुमार ने बताया कि मान्यता है कि जोड़े पहले मां खोखरा देवी को प्रसाद चढ़ाते हैं।
इसके बाद मां बाल सुंदरी देवी को प्रसाद चढ़ाते हैं।

तभी मन्नत पूरी मानी जाती।

ऐसे पहुंचे मां खोखरा देवी
काशीपुर : बाजपुर-काशीपुर हाईवे गांव श्यामपुर से नहर के किनारे से मार्ग मां खोखरा देवी मंदिर तक जाता है।

यह हाईवे से करीब दो किलोमीटर मंदिर है। मंदिर जाने के लिए घोड़ा-बुग्गी व टेंपो चलते हैं। इन साधनों के जरिये श्रद्धालु मां देवी का दर्शन होते।

पूर्वजों का कहना है कि मां खोखरा देवी कुल देवी है। इसलिए पहले यहां प्रसाद चढ़ता है,

फिर मां बाल सुंदरी देवी को प्रसाद चढ़ाया जाता। ऐसा करने से मनोकामना पूरी होती।

मान्यता है कि चैती मंदिर से पहले मां खोखरा देवी केा प्रसाद चढ़ता है।
इसलिए नवरात्र में दोनों मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती।

चैतीमेला – काशीपुर

चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है ।
इस स्थान का इतिहास पुराना है ।
काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।
यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है ।
फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं ।
वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है ।
इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी ।
बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया ।
बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।
कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे ।
उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की
स्थापना की ।
कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी
नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं ।
थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है
थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं ।
देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं ।
अन्त में चतुर्दशी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है ।
मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।
प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है।
डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है ।
अटारिया मंदिर में मान्यता है की इच्छाधारी नाग नागिन का जोड़ा पूर्णमासी की रात को मंदिर में आता है और माँ के मंदिर में पूजा अर्चना करते है इसके चलते मंदिर के चलते मंदिर के कपाट रात 10 बजे तक बंद कर दिए जाते है इसी दिन श्रद्धालु माँ से अपनी मुराद पूरी करने का आशीर्वाद मांगते है मान्यता है की भक्तो की मुराद अवश्य पूर्ण होती है,
उत्तराखंड के जनपद ऊधम सिंह नगर के मुख्यालय रुद्रपुर में करीब 1000 साल पुराना माँ अटरिया देवी का मंदिर स्थित है . भक्तो की ईम आस्था के केंद्र इस मंदिर का निर्माण रुद्रपुर के राजा रुद्रचंद सेन ने कराया था . इतिहास के अनुसार एक बार राजा रूद्र सेन शिकार खेलने जंगल में गये तब उनका रथ एक जगह फस गया , बाद में राजा ने वहा अपने लश्कर सहित विश्राम किया . इस दौरान उन्हें रात में सपने में देवी माँ ने दर्शन दिए और बताया की वही एक कुँए में उनकी प्रतिमा दबी है जिसे निकालने पर ही राजा और उनका रथ आगे बढ़ सकेगा . अगले दिन खुदाई कराने पर राजा रुद्रसेन ने माँ की प्रतिमा वहा पायी और इसके बाद माता अटरिया देवी मंदिर की उसी स्थान पर स्थापना की गयी . तब से आज तक यह मंदिर भक्तो की श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है . रुद्रपुर में रहने वाले पुराने वाशिंदे भी यहाँ की मान्यता के आगे नतमस्तक हैं और कहता हैं की यहाँ आने वाला कोई भी भक्त मनचाही मुराद पाता है .

  • यहाँ हर साल चैत्र नवरात्र के मौके पर माँ का डोला लाया जाता है , और नौ दिन पूजन अर्चन के बाद . यहाँ माता की प्रतिमा का भक्तो के दर्शन के लिए मंदिर कपाट खोल दिया जाता है . इसके बाद यह मेला दर्शन उन्नीस दिन चलता है , इस दौरान पड़ने वाली पूर्ण माशी के साथ भी किवदंतिया जुडी हुई है .अमूमन मेले के दौरान जहा प्रति रात मंदिर के कपाट मध्य रात्री में बारह बजे बंद किये जाते हैं तो पूर्ण माशी की रात को इसी दरवाज़े पर रात दस बजे ही ताला डाल दिया जाता है . पीढ़ियों से यहाँ महंत ना कार्य कर रहे शर्मा परिवार के पुजारी बताते हैं की इस रात यहाँ देवी माता की पूजा करने के लिए एक इच्छाधारी नाग नागिन का जोड़ा अत है . पीढ़ियों से चली आ रही मान्यता के अनुसार मंदिर में आने वाले इस नाग जोड़े को नितांत एकांत देने और देवी माँ की भक्ति करने देने के लिए भक्तों को उस रात हटाते हुए मंदिर को कड़े पहरे में रखा जाता है . इसके अलावा मंदिर और प्रतिमा परिसर को फूलो से सजाया जाता है , यह नाग नागिन सुबह तडके ही मंदिर के कपाट खुलने से पहले चले जाते हैं . वही स्थानीय श्रद्धालुओं का कहना है कि इस जोड़े के दर्शन अति दुर्लभ हैं और इनके दर्शन करने वाला व्यक्ति जीवन में कभी समस्या का सामना नहीं करता .

पूर्णमाशी की रात्री जहा हजारों की संख्या में यहाँ भक्तो का तांता लगा होता है तो उसी बीच रात के साए में जैसे जैसे पूणिमा का चाँद आसमान में ऊपर की और उठता है तो सभी निगाहें मंदिर के प्रवेश द्वार की और लग जाती हैं . भगवन भोलेनाथ का स्वरुप माने जाने वाले इस इच्छाधारी नाग नागिन के दर्शन के लिए मंदिर की चारों और स्थापित द्वारों पर पुलिस के जवान भी मुस्तैद हो जाते हैं , यहाँ तक कि अनाउंस मेंट के जरिये भक्तो से मदिर प्रान्गड़ छोड़ने की अपिल की जाती है . यहाँ तक कि पुलिस और मंदिर कमेटी के लोग संयुक्त अभियान चलाकर यह सुनिश्चित करते हैं कि मंदिर के अन्दर कोई श्रद्धालु रह तो नहीं गया . साथ ही नये आने वाले भक्तो को सावधानीपूर्वक किसी भी दशा में नाग नागिन के दर्शन होने पर भयमुक्त रहने की बात भी कही जाती है

इस दौरान एक पात्र में और वो भी किसी गुप्त स्थान पर नाग नागिन के जोड़े के लिए मंदिर की महंत द्वारा दूध भरा बर्तन भी रखा जाता है .. उनका दावा है कि अगले दिन वह बर्तन खली मिलता है और बाद में उसी में भक्तो को चरण अमृत दिया जाता है जर्नलिस्ट from उत्तराखंड ,अवतार सिंह बिष्ट, रूद्रपुर उत्तराखंड


Spread the love