इन्हीं मुखौटों से आठूं पर्व के बाद हिलजात्रा का मंचन किया जाता है। हिलजात्रा और इसके प्रमुख पात्र लखिया भूत को फ्रांस के शोधकर्ता चार्ल्स फ्रेजर ने अपनी किताब ”आम आस्था इंडियन डिवोशन” में जगह दी है।
हिलजात्रा को कई बार रंगमंच पर प्रस्तुत किया गया है। हिलजात्रा का 1983 में सबसे पहले विख्यात रंगकर्मी स्व. मोहन उप्रेती ने दूरदर्शन पर प्रसारण कराया। वर्ष 1995-96 में नवोदय पर्वतीय कला केंद्र के संयोजक हेमराज बिष्ट ने अर्जुन सिंह महर के सहयोग से रामनगर में आयोजित यूपी सांस्कृतिक प्रतियोगिता में पहली बार मुखौटा नृत्य का मंचन किया। तब 22 सांस्कृतिक दलों में हिलजात्रा को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। गणतंत्र दिवस की परेड में भी उत्तराखंड की झांकी में लखिया भूत को शामिल किया जा चुका है। नवोदय पर्वतीय कला केंद्र देश के विभिन्न जगहों पर 32 बार इसका मंचन कर चुका है। वर्तमान में भाव-राग ताल नाट्य अकादमी के निदेशक कैलाश कुमार हिलजात्रा और इसके मुखौटों को बढ़ावा देने का कार्य कर रहे हैं।
प्राकृतिक रंगों की जगह पेंट ने ली : यशवंत
लोक उत्सव हिलजात्रा में समय के साथ काफी बदलाव आया है। हिलजात्रा के प्रमुख पात्र भगवान शिव के प्रमुख गण लखिया भूत के आते ही मैदान पर सन्नाटा पसर जाता है। कुमौड़ की हिलजात्रा में लंबे समय तक लखिया के पात्र की भूमिका निभाने वाले यशवंत महर बताते हैं कि पूर्व में पात्रों का मेकअप घरेलू सामग्री और प्राकृतिक रंगों से किया जाता था। अब प्राकृतिक रंगों की जगह पेंट ने ले ली है। मेले का स्वरूप काफी बढ़ गया है। हजारों की संख्या में दर्शकों के उमड़ने से मैदान में जगह कम पड़ जाती है।
कुमौड़ में हिलजात्रा कल
कुमौड़ गांव के मैदान में बुधवार को हिलजात्रा का मंचन किया जाएगा। सुबह गांव के सभी मंदिरों में ढोल-नगाड़ों के साथ पूजा-अर्चना की जाएगी। दोपहर तीन बजे बाद गांव स्थित कोट से हिलजात्रा के पात्र एक-एक कर मैदान पर आते रहेंगे। इनमें गल्या बैल, हिरन, पुतारियां, दही वाले समेत 25 से अधिक पात्र रहते हैं। सबसे अंत में लखिया आता है। लखिया मैदान के चक्कर लगाने के बाद सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देकर वापस लौट जाता है।