कहानी का शीर्षक: “कफल्टा की राख से उठती चीख़”

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सूरज 9 मई 1980 की सुबह भी वैसे ही उगा था जैसे हर रोज़ उगता है। लेकिन पहाड़ी की तलहटी पर बसे शांत गांव कफल्टा को नहीं मालूम था कि यह सुबह उसकी पहचान, उसकी मासूमियत और उसकी आत्मा को हमेशा के लिए बदल देगी।

प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता]

श्याम प्रसाद की बारात पूरे उल्लास से कफल्टा के रास्ते पीपना की ओर जा रही थी। ढोल की थाप, नगाड़ों की गूंज, और बारातियों की खिलखिलाती हँसी ने गांव की वादियों में कुछ पल के लिए खुशी का रंग घोल दिया था। लेकिन कोई नहीं जानता था कि यह बारात इतिहास की सबसे दर्दनाक कहानियों में दर्ज होने वाली है।

बदरीनाथ मंदिर के सामने जैसे ही बारात पहुंची, गांव में छुट्टी पर आए खीमानंद, जो सेना में कार्यरत थे, ने दूल्हे से कहा, “भगवान बदरीनाथ के सम्मान में पालकी से नीचे उतर जाओ।” मंदिर थोड़ी दूरी पर था, और बारातियों ने विनम्रता से बात को टाल दिया। लेकिन यह टालना, खीमानंद को अपमान जैसा लगा। शायद उसके भीतर का अहंकार उसकी जाति के संस्कारों से बड़ा हो गया था।

आरोप है कि उसने गुस्से में आकर पालकी को उलट दिया। यह दृश्य उन युवाओं के लिए किसी सदियों पुराने अपमान की पुनरावृत्ति जैसा था। एक युवक ने खीमानंद पर चाकू से हमला कर दिया। कहते हैं, उसकी आंतें बाहर आ गईं, और वह वहीं गिर पड़ा।

चीख-पुकार मची, और गांव की महिलाओं की चीखें पास के गांव तक पहुंच गईं। उधर से लौटते सवर्णों की बारात ने पूरे कफल्टा को घेर लिया। बदले की आग में जलते दिलों ने इंसानियत की सारी सीमाएं पार कर दीं। असहाय दलित बारातियों ने गांव के इकलौते दलित नरी राम के घर में पनाह ली, कुंडी भीतर से बंद कर दी गई, लेकिन मौत तो जैसे बाहर खड़ी दस्तक दे रही थी।

छत तोड़ी गई, पीरुल की घास डाली गई, मिट्टी का तेल बहाया गया… और फिर आग। जलते हुए घर से निकलकर भागते मासूमों को खेतों में लाठियों और पत्थरों से कुचला गया। 14 जानें ली गईं उस रात – जिनमें से 10 एक ही परिवार से थीं।

कफल्टा जल रहा था… लेकिन राख से उठ रही थी वो चीख़ जो आने वाली सदियों तक पहाड़ की हवाओं में गूंजती रहेगी।

सालों बाद…

एक बच्चा, जो उस रात किसी चट्टान की ओट में बच गया था – विक्रम, अब एक बुज़ुर्ग हो चुका था। वो अपने पोते को उस रात की कहानी सुनाते हुए रो पड़ा। पोते ने पूछा – “दादा, अगर वो फौजी गलत था तो सबको क्यों मारा गया?”

विक्रम की आंखें आसमान की ओर उठ गईं – “क्योंकि हमारे सवाल पूछने की आज़ादी, हमारे घोड़े से उतरने पर तय की जाती थी। क्योंकि उस दिन हम सिर्फ बाराती नहीं, दलित थे। और हमारे जीवन की कीमत… एक पालकी से कम आँकी गई।”

आज भी जब कोई बारात कफल्टा से गुजरती है, मंदिर के सामने हर कोई उतरता है। वह परंपरा अब श्रद्धा नहीं, इतिहास की आग है। सिर्फ गांव की बेटियां उस मार्ग से पालकी में बैठकर जाती हैं — शायद इसलिए कि इतिहास ने उनसे सब कुछ पहले ही छीन लिया था।

कफल्टा की राख अब ठंडी है, पर उसकी चीख़ अब भी हवा में तैरती है।



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