संपादकीय: लोकायुक्त गठन कर दो, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा!आईएफएमएस पोर्टल: डिजिटल पारदर्शिता या दिखावा? संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

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संपादकीय: लोकायुक्त गठन कर दो, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा

उत्तराखंड में नौकरशाही, राजनीतिक तंत्र और प्रशासनिक ढांचे में पारदर्शिता और जवाबदेही की बार-बार बातें होती हैं, परंतु व्यवहार में यह बातें हवा-हवाई बनकर रह जाती हैं। हाल ही में मुख्य सचिव आनंद बर्द्धन ने प्रदेश के समस्त अधिकारियों को आदेश जारी किया है कि वे अपनी वार्षिक गोपनीय प्रविष्टि (ACR) भरते समय संपत्ति का पूर्ण विवरण देना अनिवार्य रूप से सुनिश्चित करें। आदेश बहुत सही है, लेकिन यह भी उतना ही स्पष्ट है कि सिर्फ आदेशों से व्यवस्था नहीं सुधरती, जब तक उसकी निगरानी और कार्यवाही के अधिकार से युक्त संस्थागत ढांचा न हो। इसीलिए आज का सबसे बड़ा सवाल यही है — उत्तराखंड में अभी तक एक सशक्त लोकायुक्त क्यों नहीं बना?

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, अब धीरे-धीरे ‘घोटालों की भूमि’ बनता जा रहा है। हर साल सरकारी आदेशों की लंबी फेहरिस्त जारी होती है, जिनमें पारदर्शिता, जवाबदेही और ईमानदारी की बातें बड़े उत्साह से की जाती हैं। हाल ही में मुख्य सचिव आनंद बर्द्धन ने आदेश दिया है कि राज्य के समस्त अधिकारियों और कर्मचारियों को अपनी वार्षिक गोपनीय प्रविष्टि (ACR) भरते समय अपनी चल-अचल संपत्तियों का विवरण देना अनिवार्य होगा। इस आदेश को सख्ती से लागू करने की चेतावनी भी दी गई है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ कागजों में विवरण भर देने से भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी?

उत्तराखंड में वर्षों से यही होता आया है—नियम बनते हैं, आदेश जारी होते हैं, लेकिन उनका पालन नहीं होता। कारण है—निगरानी और दंड की प्रभावी व्यवस्था का अभाव। जब तक अधिकारियों और नेताओं के सिर पर एक निष्पक्ष, स्वतंत्र और दंती संस्थान की तलवार नहीं लटकती, तब तक भ्रष्टाचार की रीढ़ नहीं टूट सकती। यही कारण है कि आज पूरे प्रदेश में यह आवाज बुलंद हो रही है—“लोकायुक्त गठन कर दो, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा।”


1. ACR प्रणाली की असलियत और चालाकियां

ACR यानी वार्षिक गोपनीय प्रविष्टि एक ऐसा उपकरण है, जिसके माध्यम से किसी अधिकारी की सेवा का मूल्यांकन होता है। इसमें उनके कार्य प्रदर्शन, आचरण और ईमानदारी का लेखा-जोखा दर्ज किया जाता है। लेकिन उत्तराखंड में यह प्रणाली सिर्फ ‘औपचारिकता’ बनकर रह गई है। अधिकारी खुद ही इसे भरते हैं, और प्रायः वरिष्ठ अधिकारी बिना गंभीर समीक्षा के उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं।

जो बातें ‘गोपनीय’ होनी चाहिए, वे या तो अनदेखी हो जाती हैं या जानबूझकर ‘संतोषजनक’ या ‘अत्यंत संतोषजनक’ लिख दी जाती हैं। ऐसे में ACR भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने का एक औजार बन जाता है, न कि उन्हें जवाबदेह ठहराने का। कई बार ऐसे अधिकारी भी पदोन्नति पा जाते हैं, जिनके विरुद्ध जनहित में गंभीर शिकायतें होती हैं।


2. आईएफएमएस पोर्टल: डिजिटल पारदर्शिता या दिखावा?

राज्य सरकार ने संपत्ति विवरणों के लिए IFMS (Integrated Financial Management System) पोर्टल की व्यवस्था की है। उद्देश्य था पारदर्शिता और जवाबदेही। लेकिन यह पोर्टल भी सिर्फ एक ‘डिजिटल खानापूर्ति’ बन गया है।

ज्यादातर अधिकारी समय पर संपत्ति विवरण अपलोड ही नहीं करते। कुछ विवरण अधूरे होते हैं, तो कुछ में जानबूझकर जानकारी छिपाई जाती है—जैसे संपत्ति किस नाम पर है, कब खरीदी गई, कितनी कीमत पर खरीदी गई आदि। न ही किसी स्तर पर इसकी क्रॉस-वेरिफिकेशन की व्यवस्था है।

यह डिजिटल पारदर्शिता तब तक व्यर्थ है, जब तक इसमें दर्ज विवरणों की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच न की जाए। और इसके लिए ज़रूरी है—एक मज़बूत लोकायुक्त संस्था, जो सिर्फ सिफारिश नहीं, दंड का अधिकार भी रखती हो।


3. राज्य सेवाओं की ढिलाई और प्रशासनिक दोगलापन

मुख्य सचिव के ताजा निर्देश से पहले भी राज्य सरकार ने कई बार ACR और संपत्ति विवरण की अनिवार्यता दोहराई है। लेकिन हर बार ये आदेश कुछ ही समय में ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। कारण स्पष्ट है—अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच एक मौन समझौता। एक-दूसरे की गड़बड़ियों पर चुप्पी साध लेना ही इस ‘नौकरशाही भ्रष्ट संस्कृति’ की रीढ़ बन चुका है।

जब शासन के उच्च स्तर से ही यह संदेश जाए कि “कागज में हो गया तो काफी है,” तब नीचे के स्तर पर कौन पारदर्शिता और जवाबदेही की परवाह करेगा? यही कारण है कि अधिकांश PCS और राज्य सेवा अधिकारी संपत्ति का विवरण देना टालते हैं, और IFMS पोर्टल पर ‘अद्यतन जानकारी’ महज़ दिखावा बन जाती है।


4. लोकायुक्त की आवश्यकता: सिर्फ संस्था नहीं, संकल्प

उत्तराखंड में लोकायुक्त कानून 2011 में पारित हुआ था, लेकिन आज 2025 में भी प्रदेश में एक प्रभावशाली लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो सकी है। हर सरकार ने इसे राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन कभी ईमानदारी से लागू नहीं किया।

लोकायुक्त का मतलब सिर्फ एक कार्यालय या नामित पदाधिकारी नहीं होता—यह एक नैतिक शक्ति का प्रतीक होता है, जो जनता और व्यवस्था के बीच विश्वास का पुल बनता है।

अगर सरकारें वाकई भ्रष्टाचार को मिटाना चाहती हैं, तो उन्हें स्वतंत्र और प्रभावशाली लोकायुक्त संस्था गठित करनी ही होगी, जिसे जांच और अभियोजन की स्वायत्तता प्राप्त हो। जब तक यह नहीं होगा, तब तक ACR, IFMS और अन्य व्यवस्थाएं सिर्फ ‘सजावटी तंत्र’ बने रहेंगे।


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