
उत्तराखंड सरकार की बहुप्रचारित “गोल्डन कार्ड” स्वास्थ्य योजना अब कर्मचारियों और पेंशनर्स के लिए सोने के नहीं, बल्कि कागज़ी वादों के टुकड़े में तब्दील होती दिख रही है। राज्य निगम कर्मचारी अधिकारी महासंघ के प्रतिनिधिमंडल ने शनिवार को मुख्य सचिव आनंदबर्द्धन से भेंट कर वेतन विसंगतियों, नियमितीकरण, और खासतौर पर गोल्डन कार्ड योजना की दुर्दशा को लेकर तीखा आक्रोश जताया।


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
निजी अस्पतालों ने तोड़ा भरोसा, इलाज से हाथ खींचा
गोल्डन कार्ड के नाम पर वेतन से हर माह कटौती तो की जा रही है, लेकिन जब कर्मचारी निजी अस्पताल पहुंचते हैं तो वहां स्वागत की जगह तिरस्कार मिलता है। कारण? राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण पर करोड़ों का भुगतान लंबित है, और निजी अस्पतालों ने अब गोल्डन कार्ड से इलाज बंद कर दिया है। “कटौती हमारी जेब से, इलाज सरकार के वादों के भरोसे” – यही है कर्मचारियों का दर्द।
राज्य कर्मचारी ही नहीं, निगम, निकाय, उपक्रमों के कार्मिक भी नाराज़
महासंघ ने स्पष्ट किया कि गोल्डन कार्ड योजना की अंशदान कटौती केवल सचिवालय में बैठने वालों से नहीं हो रही, बल्कि जल संस्थान से लेकर निकाय तक हर स्तर पर हो रही है – लेकिन सुविधाएं नहीं के बराबर हैं। नतीजा: कर्मचारी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं।
“स्वास्थ्य बीमा” या “कागज़ी कसरत”?वर्तमान में हालत यह है कि सरकारी कर्मचारी सरकारी अस्पतालों में लाइन लगाएं, या निजी अस्पतालों से गाली सुनें। स्वास्थ्य योजना के नाम पर सरकार ने सुनहरा सपना दिखाया था, लेकिन ज़मीनी सच्चाई चुभने वाली है।
जल संस्थान के कर्मचारी भी सालों से इंतज़ार में,प्रतिनिधिमंडल ने अपर सचिव पेयजल अपूर्वा पांडे से भी मुलाकात की। वहां 1996 से लंबित वेतनमान, ग्रेड-पे और विभागीय ढांचे की स्वीकृति जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई। महासंघ के संरक्षक दिनेश गोसाईं ने साफ कहा, “सरकारें बदलती गईं, लेकिन हमारी फाइलें टेबल से नहीं हिलीं।”
पेंशनर्स भी हुए मुखर, सरकार को दिखाई नाराज़गी,इसी दिन, उत्तराखंड के सेवानिवृत्त पेंशनर्स संगठन ने भी बैठक कर गोल्डन कार्ड की दुर्गति पर नाराज़गी जताई। उनका कहना है कि वर्षों सेवा देने के बाद अब इलाज के लिए भी सरकार के रहम पर जीना पड़ रहा है।
कटाक्ष: ‘स्वस्थ उत्तराखंड’ का सपना, लेकिन अस्पताल में घुसने की भी अनुमति नहीं!
“डबल इंजन सरकार” ने भले ही उत्तराखंड को ‘स्वस्थ और समृद्ध’ बनाने का नारा दिया हो, लेकिन वर्तमान हालात में कर्मचारियों और पेंशनरों को न दवा मिल रही है, न दावा पूरा हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार की प्राथमिकता सिर्फ विज्ञापन और आत्म-प्रशंसा है – ज़मीन पर नहीं, सिर्फ स्क्रीन पर विकास हो रहा है।
मुख्य सचिव का भरोसा – ‘जल्द होगी वार्ता’मुख्य सचिव ने समस्याएं सुनीं और ‘शीघ्र वार्ता’ का भरोसा दिलाया। लेकिन कर्मचारियों को अब भरोसा नहीं, कार्रवाई चाहिए। वर्षों से लटकी फाइलें और अधूरी योजनाएं यही बताती हैं कि उत्तराखंड में कर्मचारी कल्याण सिर्फ घोषणाओं तक सीमित है।यह मसला सिर्फ कर्मचारियों का नहीं, पूरे राज्य के प्रशासनिक ढांचे की कार्यशैली पर सवाल उठाता है। जब वे लोग, जो व्यवस्था को संभालते हैं, खुद असुरक्षित और उपेक्षित महसूस करें, तो उस व्यवस्था की सेहत खुद बीमार है।

