
रुद्रपुर उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा प्रदेश में चल रही त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव प्रक्रिया पर लगाई गई रोक न केवल एक कानूनी हस्तक्षेप है, बल्कि यह राज्य में लोकतंत्र और संवैधानिक मर्यादाओं की पुनः स्थापना की दिशा में एक निर्णायक कदम के रूप में देखा जाना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक महरा की खंडपीठ ने जिस गंभीरता और संवेदनशीलता से वीरेन्द्र सिंह बुटोला एवं गणेश दत्त कांडपाल द्वारा उठाए गए आरक्षण की वैधता संबंधी मुद्दे को सुना, वह न्यायपालिका की सक्रियता और जनहित के प्रति प्रतिबद्धता का सशक्त उदाहरण है।


आरक्षण नियमावली पर सवाल क्यों?
सरकार की ओर से त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के लिए बनाई गई आरक्षण नियमावली को गजट नोटिफिकेशन नहीं किया गया, और यही इस पूरे मामले की जड़ है। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को लागू करने के लिए गजट नोटिफिकेशन एक कानूनी आवश्यकता है — न कि मात्र औपचारिकता। जब तक कोई नियम सार्वजनिक और विधिवत रूप से प्रकाशित नहीं होता, तब तक उसे लागू करना संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाता है।
यह सवाल यहीं तक सीमित नहीं है। अगर आरक्षण प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण या अवैध ढंग से लागू होती है, तो इससे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, विशेषकर महिलाओं, अनुसूचित जातियों/जनजातियों और पिछड़े वर्गों को बड़ा नुकसान होता है।
सरकार की लचर प्रतिक्रिया
20 जून को जब अदालत ने सरकार से स्थिति स्पष्ट करने को कहा, तब भी सरकार का जवाब असंतोषजनक रहा। दो दिन बाद ही जब अधिसूचना जारी की गई और चुनाव की घोषणा कर दी गई, तो इससे स्पष्ट हो गया कि सरकार या तो न्यायालय की मंशा को हल्के में ले रही है या किसी जल्दबाजी में, लोकतंत्र को प्रक्रियाओं के बिना ही आगे बढ़ाना चाह रही है।
महाधिवक्ता एस.एन. बाबुलकर का यह कहना कि “पूरी मशीनरी चुनावी प्रक्रिया में व्यस्त है” — एक तकनीकी और प्रशासनिक दृष्टिकोण हो सकता है, लेकिन न्यायपालिका की नजर में यह कोई वैध तर्क नहीं बन सकता, जब मूलभूत संवैधानिक प्रश्न दांव पर हों।
कोर्ट की रोक कितनी सार्थक?
इस निर्णय का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि इससे एक नज़ीर कायम होगी — कि लोकतंत्र में चुनावों की वैधता केवल मतदान से नहीं, बल्कि निष्पक्ष प्रक्रिया से तय होती है।
अगर यह निर्णय न आता, तो संभावित रूप से गलत आरक्षण के आधार पर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की वैधता पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगा रहता। इससे गांव स्तर पर भी राजनीतिक असंतोष, न्यायिक याचिकाएं और सामाजिक तनाव उत्पन्न हो सकते थे।
आगे क्या?अब सरकार पर दोहरी जिम्मेदारी है:या तो वह आरक्षण नियमावली को तत्काल गजट नोटिफाई करे और पारदर्शिता के साथ उसे लागू करने की प्रक्रिया न्यायालय को दिखाए,
- या फिर पुनः एक सशक्त और समावेशी नियमावली बनाकर चुनाव की अधिसूचना को नए सिरे से जारी करे।
राजनीतिक रूप से यह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार के लिए एक परीक्षा की घड़ी है। यदि सरकार इस निर्णय को “अवरोध” की तरह देखती है और न्यायपालिका को चुनौती देती है, तो वह एक संवैधानिक टकराव को जन्म दे सकती है। लेकिन अगर वह इस निर्णय को “सुधार का अवसर” मानकर आगे बढ़ती है, तो उत्तराखंड के लोकतांत्रिक ढांचे को सुदृढ़ करने में यह घटना ऐतिहासिक बन सकती है
लोकतंत्र की जड़ें गहरी हों तभी फल मीठे होंगे
उत्तराखंड में पंचायत चुनाव केवल एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि जमीनी लोकतंत्र की आत्मा हैं। गांव-गांव में विकास की बुनियाद यही चुने हुए प्रतिनिधि रखते हैं। इसलिए उनका चयन जितना पारदर्शी और वैध होगा, उत्तराखंड का भविष्य उतना ही सुरक्षित होगा।
उच्च न्यायालय के इस हस्तक्षेप ने यह सिद्ध कर दिया है कि लोकतंत्र की नींव चुनाव नहीं, बल्कि संविधान की भावना है।
अब यह प्रदेश सरकार पर है कि वह इस अवसर को लोकतंत्र की परीक्षा समझे — न कि किसी प्रशासनिक बाधा के रूप में।
✍️ — अवतार सिंह बिष्ट
(वरिष्ठ संवाददाता, शैल ग्लोबल टाइम्स / हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स)
रुद्रपुर, उत्तराखंड
