
उत्तराखंड की त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव प्रक्रिया एक बार फिर न्यायिक समीक्षा और संवैधानिक सवालों के बीच उलझकर सुर्खियों में है। शुक्रवार को उत्तराखंड उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने प्रदेश में प्रस्तावित पंचायत चुनावों पर लगी अस्थायी रोक को हटा लिया है। साथ ही राज्य निर्वाचन आयोग को पूर्व घोषित चुनाव कार्यक्रम को तीन दिन आगे बढ़ाकर नया कार्यक्रम जारी करने का निर्देश दिया है। अदालत ने याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए गंभीर सवालों पर सरकार और आयोग से तीन सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है।
घटनाक्रम की पूरी कड़ी?यह पूरा विवाद तब शुरू हुआ, जब राज्य निर्वाचन आयोग ने शनिवार, 21 जून को हरिद्वार को छोड़कर उत्तराखंड के शेष 12 जिलों में दो चरणों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की घोषणा की थी। आयोग की अधिसूचना के अनुसार—
- नामांकन प्रक्रिया: 25 जून से 28 जून तक प्रस्तावित थी।
- पहला चरण का मतदान: 10 जुलाई को होना था।
- दूसरा चरण का मतदान: 15 जुलाई को निर्धारित था।
- मतगणना की तिथि: 19 जुलाई तय की गई थी।
चुनाव की घोषणा होते ही कई याचिकाकर्ताओं ने उच्च न्यायालय की शरण ली। याचिकाओं में यह आरोप लगाया गया कि पंचायत चुनावों के आरक्षण रोस्टर में कई सीटें वर्षों से एक ही वर्ग के लिए आरक्षित रखी जा रही हैं, जिससे अन्य वर्गों के संवैधानिक अधिकार प्रभावित हो रहे हैं। याचिकाकर्ताओं ने इसे संविधान के अनुच्छेद 243 और सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर दिए आदेशों का उल्लंघन करार दिया।
एक याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि देहरादून के डोईवाला ब्लॉक में ग्राम प्रधानों की 63 फीसदी सीटें आरक्षित कर दी गई हैं, जिससे समान अवसर का अधिकार बाधित होता है। इसके अलावा सुनवाई में यह भी सवाल उठाए गए कि जब ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव एक ही तरह से होता है, तो ब्लॉक प्रमुख सीटों का आरक्षण निर्धारित किया गया, लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष की सीटों का आरक्षण क्यों नहीं तय किया गया?
यही नहीं, याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क रखा कि पंचायत चुनाव लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने का अवसर होते हैं, ऐसे में आरक्षण व्यवस्था में पारदर्शिता और समय-समय पर पुनरावलोकन बेहद जरूरी है।


कोर्ट की कार्यवाही और आदेश
याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. नरेंदर और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने सोमवार को अस्थायी रोक लगाते हुए राज्य निर्वाचन आयोग को नामांकन समेत समस्त चुनावी प्रक्रिया स्थगित करने का निर्देश दिया था। इसके अनुपालन में मंगलवार शाम को राज्य निर्वाचन आयोग ने अधिसूचना जारी कर चुनाव प्रक्रिया पर रोक लगाने की घोषणा की।
मगर शुक्रवार को सुनवाई जारी रखते हुए हाईकोर्ट ने इस रोक को हटा लिया। अदालत ने माना कि चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह से रोकना फिलहाल उचित नहीं है। हालांकि, अदालत ने आयोग से कहा है कि पूर्व घोषित चुनाव कार्यक्रम को तीन दिन आगे बढ़ाते हुए नया कार्यक्रम जारी किया जाए, ताकि याचिकाओं पर उठे सवालों के मद्देनजर किसी वर्ग के अधिकार प्रभावित न हों और आयोग को पर्याप्त समय भी मिल सके।
साथ ही, अदालत ने राज्य सरकार और निर्वाचन आयोग को याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों पर तीन सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है।
संपादकीय दृष्टिकोण?यह मामला उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पर्वतीय राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की जटिलताओं को उजागर करता है। पंचायत चुनाव केवल एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की कसौटी भी हैं। वर्षों से एक ही वर्ग को प्रतिनिधित्व दिए जाने की शिकायतें लोकतंत्र के उस मूल सिद्धांत को चुनौती देती हैं, जिसमें सबको समान अवसर का अधिकार निहित है।
यह स्वागत योग्य है कि हाईकोर्ट ने फिलहाल चुनावों पर पूरी तरह रोक लगाने के बजाय उन्हें आगे बढ़ाने और नए कार्यक्रम जारी करने का निर्देश दिया है। इससे एक ओर संविधानसम्मत प्रक्रिया बनी रहती है, वहीं दूसरी ओर याचिकाकर्ताओं की चिंताओं पर विचार करने का अवसर भी खुला रहता है।
चुनाव आयोग की जिम्मेदारी अब दोगुनी हो गई है। उसे पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी, ताकि भविष्य में ऐसी शिकायतों की पुनरावृत्ति न हो। लोकतंत्र की असली जीत तभी होगी, जब हर वर्ग को प्रतिनिधित्व का वास्तविक हक मिले और आरक्षण केवल कागजों पर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की भावना में दिखे।
उत्तराखंड की जनता अब उत्सुकता से नए चुनाव कार्यक्रम की प्रतीक्षा कर रही है। देखना होगा कि आयोग इस संवेदनशील मसले को कितनी पारदर्शिता और तत्परता से सुलझाता है।

