
उत्तराखंड के शांत कहे जाने वाले कुमाऊं मंडल में अपराध का ग्राफ इस वर्ष तेजी से बढ़ा है। आंकड़े डराने वाले हैं। वर्ष 2024 में जहां 2176 अपराध दर्ज हुए थे, वहीं 2025 में महज़ पांच माह में ही 2362 अपराध पंजीकृत हो चुके हैं। यानी पिछले साल की तुलना में लगभग 9 प्रतिशत की बढ़ोतरी। डकैती, लूट, बलवा, दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों में उछाल ने पुलिस और समाज दोनों को चिंता में डाल दिया है।


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
विडम्बना देखिए कि पुलिस ने भले ही 1876 मामलों का अनावरण कर दिया हो, लेकिन केवल 573 मामलों में ही चार्जशीट दायर की जा सकी। बाकी मामलों में या तो जांच अधर में है या फाइलों में दबी पड़ी है। इससे भी ज्यादा गंभीर सवाल ये है कि 3997 चिन्हित अभियुक्तों में से अभी तक केवल 924 ही गिरफ्तार हो पाए हैं। यानी लगभग 1840 आरोपी अब भी कानून की गिरफ्त से बाहर घूम रहे हैं। यह स्थिति न केवल कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती है, बल्कि आम नागरिक के भीतर असुरक्षा की भावना भी भर देती है।
क्यों बढ़ रहे हैं अपराध?
- बाहरी तत्वों का जमावड़ा:
उत्तराखंड की सीमाएँ उत्तर प्रदेश, हरियाणा, नेपाल और हिमाचल जैसे राज्यों से लगती हैं। स्मार्ट सिटी और औद्योगिक इलाकों में काम की तलाश में आ रहे बाहरी लोग अपराध के नए नेटवर्क भी स्थापित कर रहे हैं। इसमें गैंगवार, नशे का कारोबार, चोरी, महिलाओं की तस्करी और किडनैपिंग जैसे संगठित अपराध बढ़ रहे हैं।
- बुलडोजर की राजनीति का सीमित असर:
हालाँकि राज्य सरकार बुलडोजर कार्रवाई को बड़ी उपलब्धि की तरह पेश कर रही है, लेकिन यह डर का स्थायी समाधान नहीं। अपराधी अब नए तौर-तरीकों से काम कर रहे हैं — जैसे फर्जी आईडी, अस्थायी ठिकाने और सोशल मीडिया के माध्यम से अपराध की साजिश।
- पुलिसिंग के पुराने तरीके:
कुमाऊं जैसे इलाके में पुलिस अभी भी परंपरागत तरीके से काम कर रही है। तकनीकी और साइबर अपराध बढ़ रहे हैं, परंतु स्थानीय पुलिस के पास न तो पर्याप्त आधुनिक उपकरण हैं और न ही प्रशिक्षित स्टाफ। नतीजतन, विवेचनाएँ लंबी खिंचती हैं और अपराधी जमानत पर बाहर आकर फिर वही जुर्म करते हैं।
- जनसंख्या वृद्धि और सामाजिक तनाव:
औद्योगिक क्षेत्रों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। बेरोजगारी, नशे की लत, और सामाजिक असमानता अपराध को हवा दे रहे हैं।
क्या हो सकते हैं उपाय?
- तकनीकी और साइबर सेल को मज़बूत करें:
हर जिले में एक एडवांस्ड टेक्निकल टीम गठित की जाए, जो ऑनलाइन फ्रॉड, गैंग नेटवर्क और मोबाइल डेटा की ट्रेसिंग में दक्ष हो।
- अपराधियों का डिजिटल डेटा-बेस:
हर अपराधी का डिजिटल प्रोफाइल तैयार किया जाए। फिंगरप्रिंट, आधार, सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल लोकेशन को एक ही प्लेटफॉर्म पर इंटीग्रेट किया जाए।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट:
जघन्य अपराधों के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट हों ताकि मामलों का निपटारा जल्दी हो और सख्त सजा से अपराधियों में डर बने।
- बाहरी तत्वों की स्क्रीनिंग:
उद्योगों, होटल, रेहड़ी-पटरी, मजदूरी में बाहरी श्रमिकों का सत्यापन अनिवार्य किया जाए। इसमें स्थानीय पुलिस की निगरानी बढ़ाई जाए।
- जन सहयोग और व्हिसल-ब्लोअर सिस्टम:
जनता को विश्वास में लिया जाए। किसी भी आपराधिक गतिविधि की सूचना देने पर पहचान गोपनीय रखी जाए और प्रोत्साहन राशि दी जाए।
- पुलिस की जवाबदेही बढ़ाई जाए:
अधिकारियों के परफॉर्मेंस की समीक्षा इस आधार पर की जाए कि उन्होंने किन-किन मामलों में चार्जशीट फाइल की, कितने अपराधियों को सजा दिलाई, और लंबित मामलों को कितने समय में निपटाया।
कुमाऊं में अपराध का बढ़ता ग्राफ केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि समाज में बढ़ती बेचैनी और प्रशासनिक तंत्र पर गहराते अविश्वास का संकेत है। पुलिस को ‘बुलडोजर’ जैसे प्रतीकात्मक कदमों से आगे बढ़कर ठोस और वैज्ञानिक पुलिसिंग की तरफ कदम बढ़ाने होंगे। अपराध का मुकाबला कानून की तेज़ धार और तकनीक के सहारे ही संभव है। वरना कुमाऊं की शांत वादियाँ भी अपराध की आवाज़ों से गूंजने लगेंगी, और यह न सिर्फ कानून-व्यवस्था की विफलता होगी, बल्कि उत्तराखंड की छवि को भी गहरी चोट पहुँचाएगी।

