पिछले सप्ताह ही राजभाषा विभाग की स्वर्ण जयंती मनाई गई है. भारत का 78वां स्वतंत्रता दिवस भी दूर नहीं है, लेकिन इस लंबी अवधि में भी कुछ राज्यों के राजनेता हिंदी विरोधी मानसिकता से मुक्ति नहीं पा सके हैं.

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दक्षिण भारत में तो हिंदी विरोध की राजनीति पुरानी है, पर अब वह महाराष्ट्र में आजमाई जा रही है. इसलिए लगता नहीं कि त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक मराठी और अंग्रेजी के साथ ही हिंदी पढ़ाए जाने का फैसला महायुति सरकार द्वारा वापस लेकर पुनर्विचार के लिए नरेंद्र जाधव कमेटी बना दिए जाने के बाद भी वहां हिंदी विरोधी राजनीति थम पाएगी.

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट

जिन अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी बोलने-समझनेवाले ही नहीं हिंदी लिखनेवाले भी बड़ी संख्या में मिल जाते हैं, उनमें महाराष्ट्र अग्रणी है. मूलत: मराठीभाषी हिंदी साहित्यकारों और पत्रकारों की संख्या भी कम नहीं है. अक्सर हिंदी सिनेमा की हिंदी भाषा के प्रसार में बड़ी भूमिका की बात कही जाती है. हिंदी सिनेमा का केंद्र भी महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई ही है.

मराठी मूल के लोगों ने फिल्म निर्माण से लेकर अभिनय तक हिंदी सिनेमा में बड़ा नाम भी कमाया है. दादासाहब फाल्के तो भारतीय फिल्म उद्योग के पितामह माने जाते हैं. प्रतिष्ठित फिल्म सम्मान ‘दादा फाल्के अवार्ड’ उन्हीं की स्मृति में दिया जाता है. वी. शांताराम के बिना हिंदी सिनेमा की कहानी पूरी नहीं हो सकती.

बेशक मुंबई देश की वाणिज्यिक राजधानी भी है. बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों या कहें गैरमराठी भाषियों ने मुंबई समेत महाराष्ट्र के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, पर उसी महाराष्ट्र में अब त्रिभाषा फॉर्मूले के अंतर्गत स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने के फैसले को हिंदी थोपना बता कर बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है.

राजनीति प्रेरित ऐसे अतार्किक विरोध के आगे झुकते हुए महायुति सरकार ने अपने आदेश में संशोधन भी कर दिया कि विद्यार्थी मराठी और अंग्रेजी के साथ तीसरी भाषा के रूप में हिंदी के बजाय कोई अन्य भारतीय भाषा भी चुन सकते हैं, पर उसके बावजूद हिंदी विरोध थमा नहीं. नतीजतन विधानसभा के मानसून सत्र की शुरुआत से ठीक पहले महायुति सरकार ने हिंदी संबंधी अपने दोनों आदेश वापस ले लिए,

जिसे हिंदी पढ़ाने का विरोध कर रहे नेता अब अपनी जीत बता रहे हैं. अतीत का अनुभव बताता है कि भावनात्मक मुद्दे हमारी चुनावी राजनीति में वास्तविक मुद्दों पर भारी पड़ते रहे हैं. जाहिर है, महाराष्ट्र में इस हिंदी विरोध के मूल में भी राजनीति ही है. पिछले विधानसभा चुनाव में अपने जनाधार का बड़ा हिस्सा गंवा देनेवाले राजनीतिक दलों और नेताओं को लगता है कि मराठी अस्मिता के जांचे-परखे पुराने दांव से शायद भविष्य में उनकी चुनावी नैया पार लग जाएगी, लेकिन उन्हें सोचना चाहिए कि संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए वे जो कीमत चुकाने पर आमादा हैं,

वह राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सामाजिक सौहार्द पर भारी पड़ सकती है. भाषाएं संवाद का माध्यम होती हैं, उन्हें विवाद का हथियार बनाने के परिणाम कभी भी सकारात्मक नहीं हो सकते. बेशक वैश्विक गांव की परिकल्पना के इस दौर में किसी विदेशी भाषा का विरोध भी समझदारी नहीं, पर एक ही विशाल भाषा परिवार की सदस्य भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के मुकाबले खड़ा करने की साजिश तो देश के प्रति अक्षम्य अपराध है.


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