
उत्तराखंड में आज जब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी यह दावा करते हैं कि उनकी सरकार पांचवें साल में 7000 से अधिक रोजगार देगी, तो यह सुनकर किसी भी जागरूक उत्तराखंडी के मन में एक ही सवाल उठता है — किसको मिलेगा यह रोजगार? और क्या सचमुच मिलेगा भी, या फिर यह भी एक जुमला है?


संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट
सरकारी प्रवक्ताओं के कागजों पर चाहे 23 हजार सरकारी नियुक्तियों की फेहरिस्त सजी हो, पर धरातल पर सच्चाई यह है कि प्रदेश के नौजवान बेरोजगारी और ठगी के ऐसे अंधकारमय दलदल में धंसे हुए हैं, जहां से निकलने की कोई सीढ़ी नजर नहीं आती। उत्तराखंड के विभागों में संविदा कर्मियों की बाढ़ आई हुई है। लेकिन इन संविदा कर्मियों में उत्तराखंड के युवाओं का हिस्सा मुश्किल से 10% है। बाकी नौकरियां राजस्थान, बिहार, यूपी और अन्य राज्यों के लोगों से भर दी गई हैं। यह कोई आरोप मात्र नहीं, बल्कि उत्तराखंड के हर जिले, हर कार्यालय में प्रत्यक्ष दिखने वाली हकीकत है।
अफसरशाही का ‘होम स्टेट सिंड्रोम’
प्रदेश के कई आला अफसर, जो अलग-अलग राज्यों से बिलॉन्ग करते हैं, अपने-अपने प्रदेशों के रिश्तेदारों, परिचितों और लोगों को संविदा पर भर्ती करवा रहे हैं। नतीजा यह है कि उत्तराखंड का युवा अपनी ही धरती पर पराया बनकर रह गया है। यह कैसी विडंबना है कि जो राज्य राज्य आंदोलन की आग में जलकर बना, वहां का आंदोलनकारी युवा आज दर-दर की ठोकरें खा रहा है, जबकि बाहर के लोग सरकारी तनख्वाहों पर ऐश कर रहे हैं।
घोटालों की फैक्ट्री बना उत्तराखंड?
सवाल केवल रोजगार का नहीं है। उत्तराखंड की जागरूक जनता कहती है कि जितनी भी बड़ी-बड़ी सरकारी योजनाएं चलीं — चाहे खनन हो, सड़क निर्माण हो, स्मार्ट सिटी का काम हो, या फिर पर्यटन के नाम पर बजट का बंटवारा — हर जगह घोटालों की बदबू आ रही है। हजारों करोड़ के घोटालों की चर्चा सरकार के गलियारों में दबी जुबान में होती है, लेकिन आम आदमी के सामने आते ही फाइलें या तो दबा दी जाती हैं या शिकायत करने वालों को सलाखों के पीछे भेजने की धमकी दी जाती है।
क्या यह संयोग है कि जिन लोगों ने सूचना के अधिकार (RTI) के तहत सरकार का हिसाब-किताब पूछना चाहा, उनकी आवाज को दबा दिया गया? क्या यह संयोग है कि घोटालों के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर मुकदमे ठोक दिए गए? उत्तराखंड के हर जागरूक नागरिक ने हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स जैसे अखबारों में समय-समय पर यह पढ़ा है कि किस तरह सत्ता, अफसरशाही और माफिया का त्रिकोणीय गठजोड़ बन चुका है।
आंदोलनकारी हाशिए पर क्यों?
सबसे बड़ा धोखा उन राज्य आंदोलनकारियों के साथ हुआ, जिनकी कुर्बानी पर यह प्रदेश बना। आज वही आंदोलनकारी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। सरकारें आती-जाती रहीं, मगर किसी ने भी इन आंदोलनकारियों की समस्याओं, उनके बच्चों के रोजगार, उनकी पेंशन, और उनके सम्मान की चिंता नहीं की।
क्या यही “उत्तराखंड स्वाभिमान” है?
चुनावी जुमलों का खेल
अब फिर पंचायत चुनाव आ रहे हैं। रोजगार के आंकड़े फिर से उछाले जा रहे हैं। “विदेश में रोजगार,” “जापान में नौकरी,” “भारत दर्शन,” “मेधावी छात्रवृत्ति” जैसे शब्द सरकारी प्रेस नोट की शोभा बढ़ा रहे हैं। लेकिन क्या कोई बताएगा कि इन स्कीमों से उत्तराखंड के कितने युवाओं को वाकई नौकरी मिली?
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उत्तराखंड की जनता अब चुप नहीं रहेगी
उत्तराखंड की जनता अब बोलने लगी है। चुप रहना अब गुनाह होगा। अगर सरकार ने सचमुच विकास किया है, तो आंकड़े छुपाने की क्या जरूरत? RTI पर पाबंदियां क्यों? पत्रकारों को धमकियां क्यों? सच यह है कि सत्ता, अफसरशाही और माफिया के गठजोड़ ने उत्तराखंड को एक घोटालों की प्रयोगशाला बना दिया है।
यह लेख कोई आरोप नहीं, बल्कि एक चुनौती है — धामी सरकार को भी और दिल्ली की हुकूमत को भी। क्योंकि जब पहाड़ के लोग सड़क पर उतरते हैं, तो राजधानी दिल्ली तक की दीवारें हिलती हैं।
अब वक्त आ गया है कि उत्तराखंड की जनता सड़कों पर उतरे, सवाल पूछे, और सत्ता को उसकी जिम्मेदारी याद दिलाए। नहीं तो “रोजगार” जैसे पवित्र शब्द को सत्ता की चुनावी दुकानदारी ही निगल जाएगी।

