कांवड़ यात्रा आस्था, तकनीक, राजनीतिक और ‘हिंदुत्व’ का संगम?कावड़ यात्रा सिर्फ “बोल बम” तक सीमित नहीं रहने वाली। इसमें तकनीक, ग्रीन-फ्रेंडली विजन, कानून-व्यवस्था, और हिंदुत्व की राजनीति — सब कुछ एक साथ देखने को मिलेगा।

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रुद्रपुर हरिद्वार, ऋषिकेश और गंगाघाटों पर गूंजता वह एक स्वर — “बोल बम!” — सिर्फ धार्मिक उद्घोष नहीं, बल्कि आज हिंदुस्तान की सांस्कृतिक, राजनीतिक और तकनीकी धारा की नब्ज बन चुका है। कांवड़ यात्रा, जो कभी एक आस्था-जनित साधारण धार्मिक यात्रा थी, अब एक ऐसा विराट सामाजिक-धार्मिक उत्सव है जिसमें करोड़ों श्रद्धालु, असंख्य व्यवस्थाएं और सियासत की गहरी दिलचस्पी शामिल है। और इस वर्ष 2025 में, यह यात्रा सिर्फ “बोल बम” तक सीमित नहीं रहने वाली। इसमें तकनीक, ग्रीन-फ्रेंडली विजन, कानून-व्यवस्था, और हिंदुत्व की राजनीति — सब कुछ एक साथ देखने को मिलेगा।

उत्तराखंड सरकार की तैयारी: टेक्नोलॉजी और व्यवस्था का संगम

संवाददाता,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हालिया समीक्षा बैठक में जो निर्देश दिए, उनसे साफ है कि उत्तराखंड इस बार कांवड़ यात्रा को केवल एक धार्मिक आयोजन की तरह नहीं देख रहा, बल्कि इसे राज्य की छवि, कानून-व्यवस्था और पर्यटन विकास का बड़ा अवसर मान रहा है।

  • कांवड़ सेवा एप: धामी सरकार का सबसे चर्चित कदम है “उत्तराखंड कांवड़ सेवा एप।” इस डिजिटल एप में कांवड़ियों की डिटेल, उनकी लोकेशन, मेडिकल इमरजेंसी, रूट मैप, ट्रैफिक अपडेट्स, हेल्पलाइन नंबर — सब कुछ एक ही प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध रहेगा। यानी यात्रा सिर्फ आस्था नहीं, टेक्नोलॉजी ड्रिवेन होगी।
  • क्लीन और ग्रीन यात्रा का संदेश: मुख्यमंत्री ने इस बार साफ संदेश दिया — “क्लीन और ग्रीन कांवड़ यात्रा”। यात्रा मार्गों पर हर घंटे सफाई अभियान, 1-2 किलोमीटर पर मोबाइल टॉयलेट्स, कूड़ा निस्तारण की विशेष गाड़ियां — यह सब इस बात का संकेत है कि सरकार अब कांवड़ को ‘सस्टेनेबल इवेंट’ की तरह भी देख रही है।
  • होटलों पर निगरानी: रास्ते के ढाबों, होटलों पर फूड लाइसेंस, रेट लिस्ट चस्पा होना अनिवार्य किया गया है। ओवर रेटिंग या घटिया खाना परोसने पर सख्त कार्रवाई के निर्देश हैं। इससे यात्रा में पारदर्शिता और यात्रियों की सुरक्षा दोनों का ध्यान रखा जा रहा है।
  • अवैध गतिविधियों पर सख्ती: शराब, मीट पर बने एसओपी का पालन सख्ती से कराया जाएगा। मुख्यमंत्री के इस निर्देश को सांस्कृतिक शुचिता की दृष्टि से भी देखा जा रहा है। यह हिंदुत्व के उस पक्ष को पुष्ट करता है जिसमें धार्मिक आयोजनों के दौरान संयम और सात्विकता को महत्त्व दिया जाता है।
  • स्वास्थ्य और सुरक्षा: हर 2-3 किलोमीटर पर हेल्थ सेंटर, एम्बुलेंस, मेडिकल स्टाफ तैनात रहेगा। सीसीटीवी, ड्रोन से निगरानी और जीआईएस बेस्ड ट्रैफिक प्लानिंग से यात्रा पहले से अधिक सुरक्षित बनाने की कोशिश है।

हिंदुत्व का समायोजन और सांस्कृतिक विमर्श

कांवड़ यात्रा अपने मूल में भक्ति और आस्था का पर्व है। पर इसमें अब हिंदुत्व की राजनीतिक चेतना भी घुल चुकी है। उत्तराखंड हो या उत्तर प्रदेश — दोनों ही सरकारें इसे “सनातन सांस्कृतिक पहचान” का उत्सव मानती हैं। खासकर बीजेपी के लिए यह यात्रा एक तरह से अपने हिंदुत्व एजेंडे को जनमानस में और गहरे उतारने का माध्यम भी है।

  • मांस और शराब पर नियंत्रण: यात्रा मार्गों पर मांस-भक्षण और शराब बिक्री पर सख्ती को केवल प्रशासनिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक शुद्धता के नजरिए से भी देखा जा रहा है। यह हिंदुत्व के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के एजेंडे से भी मेल खाता है।
  • फूलों की वर्षा और धार्मिक सौंदर्य: हरिद्वार, ऋषिकेश, रुड़की जैसे स्थलों पर प्रशासन द्वारा फूलों की वर्षा की संभावनाएं हैं। योगी सरकार की तर्ज पर पुष्पवर्षा, साउंड एंड लाइट शो, स्वागत द्वार, और गंगा तटों पर सुंदर सजावट की योजना उत्तराखंड भी लागू कर सकता है। इससे यात्रा और अधिक भव्य, और हिंदुत्व की सांस्कृतिक चमकदार तस्वीर पेश करने वाली बन जाती है।
  • सोशल मीडिया पर निगरानी: सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। इसे धार्मिक एकता बनाए रखने और हिंदुत्व के खिलाफ कथित ‘नेरेटिव वॉर’ को रोकने की रणनीति के रूप में भी देखा जा रहा है।

उत्तर प्रदेश का “मॉडल” और उसका असर

योगी आदित्यनाथ की यूपी सरकार ने पिछले वर्षों में कांवड़ यात्रा को जिस राजकीय स्तर के इवेंट में बदल दिया, वह मॉडल अब उत्तराखंड भी अपनाने की ओर है। यूपी सरकार ने कांवड़ यात्रा को “राज्य प्रायोजित उत्सव” बना दिया — स्वागत द्वार, साउंड सिस्टम, फूलों की वर्षा, हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा, रंग-बिरंगी लाइटिंग, बड़े-बड़े एलईडी स्क्रीन। यह सब यात्रा को महज धार्मिक कर्मकांड से निकालकर हिंदुत्व के सांस्कृतिक शो ऑफ में बदलता है।

अब उत्तराखंड भी वही कर रहा है:

  • फूलों की वर्षा की संभावना।
  • टेक्नोलॉजिकल इंटीग्रेशन (एप, ड्रोन, जीआईएस)।
  • कांवड़ियों के लिए टेंट सिटी, रैन बसेरे, विशेष शौचालय।
  • हर कदम पर प्रशासनिक और पुलिस तैनाती।

यह “उत्तर प्रदेश मॉडल” ही है, जिसे धामी सरकार उत्तराखंड की परिस्थितियों के हिसाब से रूपांतरित कर रही है।

कांवड़ यात्रा और राजनीतिक विमर्श

एक सवाल लगातार पूछा जा रहा है — क्या कांवड़ यात्रा से हिंदुत्व मजबूत होगा? उत्तर सीधा है — हाँ। हर साल बढ़ती भीड़, टीवी पर इसकी कवरेज, सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो, नेताओं के बयानों में हिंदुत्व की महत्ता… यह सब यात्रा को धार्मिक कर्मकांड से आगे ले जाकर राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन में बदल देता है। उत्तराखंड और यूपी की बीजेपी सरकारें यह भली-भांति समझती हैं कि आस्था का सीधा संबंध राजनीतिक पूंजी से भी है।

यात्रा को क्लीन-ग्रीन का टैग देकर सरकारें इमेज बिल्डिंग भी कर रही हैं — वे दिखाना चाहती हैं कि हिंदुत्व केवल कठोरता या कट्टरता नहीं, बल्कि विकास, टेक्नोलॉजी और पर्यावरणीय जागरूकता से भी जुड़ा हुआ है।

ऊपर द्रव्यों पर कार्रवाई और भ्रष्टाचार पर नजर

कांवड़ यात्रा के दौरान बड़ी मात्रा में चढ़ावे (ऊपर द्रव्य), दान और मंदिरों में नकदी का लेनदेन होता है। इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर उत्तराखंड सरकार निगरानी बढ़ा रही है:

  • होटल-ढाबों में ओवररेटिंग पर कार्रवाई।
  • फूड लाइसेंस और रेटलिस्ट चस्पा।
  • धार्मिक स्थलों पर दानपात्रों का ऑडिट।
  • सोशल मीडिया पर दान की अपील करने वाले फर्जी अकाउंट्स पर कड़ी नजर।

यह सब न सिर्फ आर्थिक पारदर्शिता के लिए, बल्कि यात्रा की पवित्रता बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

कांवड़ यात्रा 2025 सिर्फ धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि राजनीतिक, सांस्कृतिक और तकनीकी इवेंट बन चुकी है। उत्तराखंड सरकार इसे यूपी के मॉडल पर भव्यता के साथ सजाने जा रही है, वहीं हिंदुत्व का संदेश भी इससे और गहरा होगा। प्रशासनिक सख्ती, टेक्नोलॉजिकल इंटीग्रेशन, क्लीन-ग्रीन विजन, सांस्कृतिक गौरव, और राजनीतिक प्रतीकवाद — सब इस यात्रा में एक साथ घुल-मिलकर एक नई कांवड़ यात्रा का रूप गढ़ रहे हैं।

सवाल यह है कि क्या यह यात्रा आस्था की निर्मलता को बनाए रख पाएगी या पूरी तरह सत्ता और राजनीति का प्रतीक बन जाएगी? यह आने वाला समय ही बताएगा। पर एक बात तय है — इस बार कांवड़ यात्रा केवल गंगाजल लाने की परंपरा नहीं, बल्कि 21वीं सदी के भारत का सांस्कृतिक शोकेस बनने जा रही है।



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