
हमारे समाज में अक्सर यह कहा जाता है कि इंसान सामाजिक प्राणी है। और यह सच भी है। रिश्ते, दोस्ती, परिवार, समाज – इन सबके बिना जीवन अधूरा लगता है। लेकिन इसी सामाजिकता के चलते हम कई बार अपनी खुशियों को ताक पर रखकर दूसरों की उम्मीदों और इच्छाओं के पीछे दौड़ने लगते हैं।
हर कोई चाहता है कि लोग उसे अच्छा समझें, उसे सराहें, उसे स्वीकार करें। हम दूसरों की नजरों में अपनी ‘इमेज’ को बनाए रखने के लिए ऐसे काम करने लगते हैं, जो हमारी असलियत और हमारी खुशियों से मेल नहीं खाते। धीरे-धीरे यही आदत हमारी आज़ादी, हमारी आत्मा और हमारी असली पहचान को कैद कर लेती है।
जरा सोचिए, जंगल का शेर, जो स्वभाव से निडर और स्वतंत्र होता है, उसे भी अगर सर्कस में ले जाकर नचाया जा सकता है, तो इंसान को दूसरों की अपेक्षाओं की जंजीर में बांधना कितना आसान है। शेर की ताकत, उसका दहाड़ना, उसकी शान – सब सर्कस के तंबू में खो जाते हैं। उसके सिर पर प्रशिक्षक का कोड़ा और तालियों की आवाजें हावी हो जाती हैं। ठीक वैसे ही, जब हम अपनी जिंदगी सिर्फ दूसरों की खुशी के लिए जीने लगते हैं, तो हमारी असली खुशी, हमारी असली पहचान कहीं खो जाती है।
यह सही है कि रिश्तों में समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन समझौता और आत्मसमर्पण में फर्क होता है। अपनी खुशी, अपने सपने, अपने जुनून को मारकर अगर हम सिर्फ समाज की अपेक्षाओं पर खरे उतरने की कोशिश करेंगे, तो धीरे-धीरे भीतर ही भीतर खोखले होते जाएंगे।
सच तो यह है कि जिंदगी बहुत छोटी है और अनमोल भी। हर किसी को अपनी शर्तों पर जीने का हक है। अपनी खुशी के लिए वक्त निकालना, अपनी पसंद के काम करना, अपने सपने पूरे करना – यह कोई स्वार्थ नहीं, बल्कि जीवन का अधिकार है। जो लोग सच में आपसे प्यार करते हैं, वे आपको वैसे ही स्वीकार करेंगे जैसे आप हैं।
इसलिए जिंदगी का आनंद अपने तरीके से ही लेना चाहिए। क्योंकि दूसरों की खुशी के चक्कर में तो शेर को भी सर्कस में नाचना पड़ता है… और शेर का असली स्थान पिंजरे में नहीं, जंगल की आज़ाद फिजाओं में होता है।
जियो ऐसे, जैसे तुम चाहते हो। क्योंकि आखिर में, तुम्हारी खुशी सिर्फ तुम्हारी अपनी जिम्मेदारी है।



