उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य में अंधाधुंध निर्माण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने अब प्रकृति को विद्रोह के लिए मजबूर कर दिया है। हाल की धराली त्रासदी इसका ताजा सबूत है, जहां अनियंत्रित विकास और जलवायु असंतुलन की संयुक्त मार ने तबाही मचाई।
राज्य स्थापना (2000) के बाद से जिस ‘आदर्श पर्वतीय राज्य’ का सपना आंदोलनकारियों ने देखा था, वह आज विकास के नाम पर अवैज्ञानिक निर्माण, जंगलों की कटाई और खनन माफियाओं के कब्जे में सिमटकर रह गया है। हर सरकार ने पहाड़ की नाजुक भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करते हुए सड़कों, होटलों, बहुमंजिला इमारतों और खनन परियोजनाओं को खुली छूट दी। नतीजा—पहाड़ों की मिट्टी की पकड़ कमजोर, जलधारण क्षमता घट गई और भूस्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ीं।


नैनीताल स्थित एरीज के वैज्ञानिकों की चेतावनी स्पष्ट है—यह अव्यवस्थित विकास हिमालयी क्षेत्रों में ‘लोकल क्लाउड फॉर्मेशन’ और ‘क्लाउड बर्स्ट’ (बादल फटना) की घटनाओं को कई गुना बढ़ा देगा। विशेषज्ञों का कहना है कि निर्माण से निकलने वाली ऊष्मा स्थानीय तापमान को बढ़ाकर बारिश के पैटर्न को बदल देती है। यही कारण है कि जहां पहले महीनों तक रुक-रुककर बारिश होती थी, वहीं अब कुछ घंटों में ही विनाशकारी मूसलाधार बारिश हो रही है।
इस विनाशकारी चक्र का एक और दर्दनाक पहलू है—पलायन।
जब भूस्खलन, बादल फटना और सड़कों के टूटने से गांव-गांव असुरक्षित हो जाए, खेती चौपट हो, तो युवाओं के पास शहरों या मैदानों की ओर पलायन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। गांव खाली हो रहे हैं, ‘घोस्ट विलेज’ (भूतिया गांव) बढ़ रहे हैं, और जिन इलाकों के लिए राज्य बना, वहां की आबादी खत्म हो रही है।
आज सवाल यह है कि उत्तराखंड सरकारें—चाहे भाजपा हों या कांग्रेस—पिछले 25 साल में आखिर किसके लिए विकास कर रही हैं? क्या यह विकास पहाड़ के लोगों के लिए है, या ठेकेदारों, माफियाओं और राजनीतिक लाभ के लिए?
अगर अब भी योजनाबद्ध और टिकाऊ निर्माण, जंगलों का संरक्षण और पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो आने वाले समय में न केवल उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता, बल्कि इसकी अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगी।
1. त्रासदी की संख्या और निर्माण की घातक चेन
- धराली (उत्तरकाशी): हालिया क्लाउड बर्स्ट और फ्लैश फ़्लड ने कम से कम ४ लोगों की जान ले ली और लगभग १०० लोग लापता हैं। सेना, NDRF और SDRF ने करीब ६० लोगों को बचाया; वहीं, ११ सैनिकों की भी स्थिति अनिश्चित है । इस प्रकार की घटनाओं ने पिछले दशक में उत्तराखंड में लगभग ७०५ मौतें दर्ज कराई, जिनमें से ३८९ सिर्फ फ्लैश फ़्लड से हुईं ।
- विकलांग राज्य संरचना और विकास की विफलता: 2013 के केदारनाथ बाढ़ में सरकार की धीमी प्रतिक्रिया पर CAG रिपोर्ट ने तीखी आलोचना की—अवार्ड नहीं बनाए, विस्थापन के प्रबंधन में असफल, नदी-तट पर बिना अनुशासन के निर्माण और विस्फोटक उपयोग जैसी खतरनाक प्रथाओं पर रोक न लगाई गई थी ।
2. भूभौतिक और जलवायु संबंधी जोखिम
- भौगोलिक अस्थिरता: हिमालय की भौगोलिक संरचना, तेज़ ढलान, और ज़़बरदस्त धुनाई जैसी वजहों से राज्य में लगभग 75 % ज़मीन तेज लैंडस्लाइड जोखिम वाले जोन में आती है ।
- जलवायु परिवर्तन प्रभाव: एक अध्ययन बताता है कि 1982–2020 के डेटा में अचानक बारिश, सतही जल बहाव, क्लाउडबर्स्ट और फ्लैश फ़्लड जैसी अत्यधिक घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हुई है—खास तौर पर २०१० के बाद। यह बदलाव ENSO, NAO और IOD जैसे वैश्विक पैटर्नों के साथ स्थानीय भौगोलिक कारकों के सम्मिलन का नतीजा है ।
3. पलायन और गांवों का उजाड़?भू-संरचना की अस्थिरता और बार-बार हो रही त्रासद स्थिति से ग्रामीण इलाकों में पलायन बढ़ा है। खेती और निर्भरता खत्म हो रही है, गांव ‘भूतिया गांव’ बनते जा रहे हैं, जिससे जनसंख्या और सामाजिक ताने-बाने का अस्तित्व ही संकट में है।
उत्तराखंड का स्थायी मार्ग—क्या सरकारें अब जवाबदेह होंगी?उत्तराखंड राज्यों (चाहे कांग्रेस हो या भाजपा) ने 2000 से अब तक प्राकृतिक संसाधनों और जनता की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखने में विफलता दिखाई है। अंधाधुंध विकास, जंगलों की कटाई, नदी किनारे निर्मित भवन, विस्फोटक आधारित सड़क निर्माण जैसी प्रथाएं पहाड़ों को आपदा के लिए तैयार कर रही हैं।
जरूरी कदम:
- सख्त भूदृश्य और निर्माण नियंत्रण नीतियाँ बनाएँ।
- जंगल और भू-जल का संरक्षण, साथ ही स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा सुनिश्चित करें।
- हर जिले में जलवायु अनुकूलन योजनाएं, बेहतर आंकलन, चेतावनी तंत्र, और इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाएँ।
यदि यह मोड़ अभी भी नहीं अपनाया गया, तो आने वाला समय—न केवल उत्तराखंड की सुंदरता, बल्कि वहां की जिंदगियाँ—गंभीर अस्तित्वगत संकट में फँस जाएँगी।

