अजय मौर्या की निर्विरोध ताजपोशी: सत्ता समीकरण और भविष्य की चुनौती

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उधम सिंह नगर जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर सोमवार, 11 अगस्त 2025 को भाजपा के संयुक्त सचिव अजय मौर्या की निर्विरोध ताजपोशी सिर्फ़ एक प्रशासनिक औपचारिकता नहीं, बल्कि उत्तराखंड की पंचायत राजनीति के बदलते समीकरणों का स्पष्ट संकेत है। खटीमा क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य के रूप में जीत चुके मौर्या मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के करीबी माने जाते हैं, और यही नज़दीकी उनकी निर्विरोध जीत का सबसे मज़बूत आधार रही।

उधम सिंह नगर जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर अजय मौर्या की निर्विरोध ताजपोशी में रुद्रपुर के विधायक शिव अरोड़ा की भूमिका किसी “किंग मेकर” से कम नहीं रही। पर्दे के पीछे हुए राजनीतिक संवाद, गुटबाज़ी को शांत करने की कवायद और संभावित विरोधियों को साधने में अरोड़ा ने अहम दांव खेले। उनकी सक्रियता ने न केवल मौर्या के लिए रास्ता आसान किया, बल्कि भाजपा के भीतर उनकी पकड़ और रणनीतिक क्षमता भी साबित कर दी। यह जीत आने वाले समय में अरोड़ा को जिले की राजनीति में और मज़बूत स्तंभ के रूप में स्थापित कर सकती है।

नामांकन प्रक्रिया में पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष रेनू गंगवार ने भले ही पर्चा खरीदा, लेकिन दाखिल नहीं किया—यह कदम अपने आप में राजनीतिक संदेश देता है। सूत्रों के अनुसार, गंगवार परिवार को उत्तराखंड सरकार में कोई अहम जिम्मेदारी दिए जाने की संभावना है। शायद 2027 के चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए भाजपा नेतृत्व ने यह समझदारी दिखाई कि जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर मुकाबले की बजाय सहयोग का माहौल बनाया जाए, जिससे भविष्य में गंगवार परिवार का समीकरण बिगड़ने का खतरा न रहे।

लेकिन सवाल यह भी है कि क्या अजय मौर्या सिर्फ़ मुख्यमंत्री के “रामन कम” (विश्वसनीय साथी) के रूप में अध्यक्ष पद की गरिमा निभा पाएंगे, या फिर सत्ता की गलियों में पूर्व की तरह होने वाली तोड़फोड़ और खींचतान को रोक सकेंगे? जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी सिर्फ़ सम्मान की बात नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रबंधन, संसाधनों के समुचित वितरण और अलग-अलग गुटों को साथ लेकर चलने की कसौटी है।

इतिहास गवाह है कि उधम सिंह नगर में जिला पंचायत की राजनीति अक्सर आपसी टकराव, आरोप-प्रत्यारोप और गुटबाज़ी की भेंट चढ़ती रही है। ऐसे में मौर्या के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी—स्थिरता बनाए रखना, गुटों को संतुलित रखना, और विकास योजनाओं को राजनीतिक हथकंडों से ऊपर उठाकर लागू करना।

निर्विरोध जीत निस्संदेह एक उपलब्धि है, लेकिन यह सफ़र का अंत नहीं, बल्कि असली परीक्षा की शुरुआत है। आने वाले महीनों में यह साफ़ हो जाएगा कि अजय मौर्या भाजपा के भीतर सत्ता संतुलन के नए केंद्र बनेंगे, या फिर पुराने समीकरणों की लहरों में बहकर सिर्फ़ एक ‘औपचारिक अध्यक्ष’ बनकर रह जाएंगे।



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