
उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। 1 सितम्बर 1994 के खटीमा गोलीकांड और उसके ठीक अगले दिन 2 सितम्बर को हुए मसूरी गोलीकांड ने इस पर्वतीय राज्य की आत्मा को झकझोर दिया था। इन घटनाओं ने न केवल उत्तराखंड की अस्मिता को सशक्त आवाज दी बल्कि केंद्र और तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को यह एहसास भी कराया कि पहाड़ की जनता अब अन्याय और उपेक्षा को सहन नहीं करेगी।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी:मसूरी गोलीकांड की 31वीं बरसी पर मसूरी स्थित शहीद स्मारक पर पुष्पचक्र अर्पित कर शहीद राज्य आन्दोलनकारियों को श्रद्धांजलि दी। इस दौरान पृथक राज्य आंदोलन में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अमर शहीदों के परिजनों को सम्मानित किया।


पृथक उत्तराखंड राज्य के निर्माण में आंदोलनकारियों का त्याग और बलिदान अविस्मरणीय है। उनके साहस और संघर्ष ने हमारी पहचान को नई ऊंचाईयां प्रदान की। यह शौर्यगाथा देवभूमि के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। राज्य आंदोलनकारी हमारी प्रेरणा हैं और उनके दिखाए गए मार्ग पर चलना हमारा संकल्प।
हमारी सरकार राज्य आंदोलनकारियों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा करते हुए उत्तराखंड के समग्र विकास के लिए प्रतिबद्धता से कार्य कर रही है। कार्यक्रम में माननीय कैबिनेट मंत्री श्री Ganesh Joshi जी, माननीय नगर पालिका अध्यक्ष श्रीमती मीरा सकलानी जी, माननीय दायित्वधारी श्री सुभाष बड़थ्वाल जी, पूर्व विधायक माननीय श्री जोत सिंह गुनसोला जी समेत अन्य गणमान्य जन उपस्थित रहे।





✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
31 वर्ष बाद भी मसूरी गोलीकांड का जिक्र होते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शांतिपूर्ण आंदोलन पर बरसी गोलियों की गूंज आज भी गवाही देती है कि उत्तराखंड राज्य यूं ही नहीं बना, बल्कि इसे पाने के लिए अनेकों बेटों और बेटियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
2 सितम्बर 1994: जब मसूरी ने देखी खून से भीगी सड़कें?खटीमा गोलीकांड की प्रतिध्वनि अभी थमी भी नहीं थी कि मसूरी में पुलिस और पीएसी ने आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाकर छह सपूतों की जान ले ली। राय सिंह बंगारी, मदन मोहन ममगाईं, हंसा धनाई, बेलमती चौहान, बलबीर नेगी और धनपत सिंह बलिदान उस दिन हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गए।
बलबीर नेगी की शहादत की कहानी सुनाते हुए उनके भाई बिजेंद्र नेगी कहते हैं कि “भाई को एक गोली सीने में और दो पेट में लगी थी। यह दृश्य इतना भयावह था कि आज भी भूल नहीं पाते।”
उस रात मसूरी झूलाघर क्षेत्र में आंदोलनकारियों का कार्यालय पुलिस छावनी में बदल दिया गया। हुक्म सिंह पंवार सहित 46 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। इसके बाद जो हुआ, वह राज्य आंदोलन का सबसे बर्बर दृश्य था। निहत्थे लोगों पर गोलियों की बौछार और लाशों से पटी सड़कें—यह सब उत्तराखंड के इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया।
बलिदान और संघर्ष से बना उत्तराखंड?जयप्रकाश उत्तराखंडी जैसे वरिष्ठ आंदोलनकारी कहते हैं कि मसूरी गोलीकांड केवल एक घटना नहीं थी, बल्कि यह पहाड़ की पीड़ा का विस्फोट था। खटीमा और मसूरी की घटनाओं ने राज्य आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया। पूरा उत्तराखंड सड़कों पर उतर आया। गांव-गांव, गली-गली में “अपना राज्य चाहिए” की गूंज उठी।
लंबे संघर्ष और शहादतों के बाद 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड अलग राज्य बना। यह दिन शहीदों की कुर्बानी का परिणाम था। मगर सवाल यह है कि क्या 25 वर्षों बाद भी वह राज्य वैसा बना, जैसा आंदोलनकारियों ने सपना देखा था?
अधूरे सपनों का प्रदेश
उत्तराखंड आंदोलनकारी कहते हैं कि “अलग राज्य बना, लेकिन जिन मुद्दों पर संघर्ष हुआ, उनका समाधान आज तक नहीं हुआ। पलायन जारी है, पहाड़ में शिक्षा और स्वास्थ्य बदहाल हैं, जल-जंगल-जमीन पर संकट गहराता जा रहा है।”
यह कड़वा सच है कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी राजधानी के सवाल पर राजनीति होती रही। गैरसैंण, जिसे आंदोलनकारियों ने अपनी राजधानी माना था, आज भी केवल आश्वासनों का शिकार है। देहरादून को स्थायी राजधानी बनाए जाने के बाद भी पर्वतीय अंचल के लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं।
मसूरी गोलीकांड और वर्तमान सरकार?इस वर्ष मसूरी गोलीकांड की 31वीं बरसी पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी। मालरोड स्थित शहीद स्थल पर उन्होंने पुष्पांजलि अर्पित कर आंदोलनकारियों की स्मृतियों को नमन किया।
मुख्यमंत्री की उपस्थिति निस्संदेह एक सकारात्मक संदेश देती है, लेकिन केवल श्रद्धांजलि पर्याप्त नहीं है। सवाल यह है कि क्या सरकार शहीदों के परिवारों के सपनों को साकार करने की दिशा में ठोस कदम उठा रही है?
आज जब उत्तराखंड आपदा, बेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है, तब आंदोलनकारियों की शहादत का सम्मान तभी सार्थक होगा जब उनके सपनों का प्रदेश खड़ा किया जाए।
शहादत की चेतावनी: क्यों याद रखना जरूरी है??मसूरी गोलीकांड हमें यह सिखाता है कि किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेना अंततः शासन की असफलता का प्रतीक है। 1994 की यह घटना बताती है कि जनता के धैर्य की भी एक सीमा होती है।
आज जब हम 31वीं बरसी मना रहे हैं, तो यह केवल स्मरण नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर भी है। हमें यह देखना होगा कि क्या हमने शहीदों की कुर्बानी को सही मायने में सम्मान दिया है?
वर्तमान चुनौतियां और समाधान?पलायन की समस्या: गांव खाली हो रहे हैं। राज्य को ऐसी नीति बनानी होगी जो रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं गांवों तक पहुंचाए।
- राजधानी का प्रश्न: गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने पर ठोस निर्णय जरूरी है। यही आंदोलनकारियों की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
- शिक्षा और स्वास्थ्य: पहाड़ी इलाकों में स्कूल और अस्पताल कागजों तक सीमित हैं। इन्हें वास्तविक रूप से मजबूत करना होगा।
- आपदा प्रबंधन: पहाड़ी राज्य के लिए आपदा एक स्थायी समस्या है। मजबूत आपदा प्रबंधन और स्थानीय युवाओं की भागीदारी जरूरी है।
- जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा: प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन रोकना ही राज्य की आत्मा को बचा सकता है।
श्रद्धांजलि से आगे बढ़ने की जरूरत?शहीदों के नाम पर स्मारक बनाना, पुष्पांजलि अर्पित करना और सालाना कार्यक्रम आयोजित करना एक औपचारिकता से अधिक नहीं है। सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी जब सरकार और समाज मिलकर ऐसा उत्तराखंड गढ़ें, जहां पलायन न हो, युवाओं को रोजगार यहीं मिले, गांवों में स्कूल-हॉस्पिटल हों, और जल-जंगल-जमीन पर पहाड़ के लोगों का अधिकार हो।
मसूरी गोलीकांड केवल इतिहास का हिस्सा नहीं है, यह हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए चेतावनी है। यह हमें याद दिलाता है कि उत्तराखंड राज्य शहादतों की नींव पर खड़ा है। इसलिए यदि हम शहीदों के सपनों का प्रदेश नहीं बना पाए, तो यह हमारे लिए सबसे बड़ा अपराध होगा।
मुख्यमंत्री धामी का श्रद्धांजलि अर्पण स्वागतयोग्य है, लेकिन अब समय केवल याद करने का नहीं, बल्कि ठोस कार्य करने का है। 31वीं बरसी हमें यह संकल्प लेने का अवसर देती है कि हम उत्तराखंड को वास्तव में शहीदों का सपना प्रदेश बनाएंगे—एक ऐसा प्रदेश जहां न्याय, समानता और विकास हर गांव, हर पहाड़ और हर नागरिक तक पहुंचे।

