नेपाल में आक्रोश की जड़ : बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और विदेशी फौजों में भर्ती की विवशता

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काठमांडू से लेकर नेपालगंज तक सड़कों पर उमड़ा आक्रोश सिर्फ सोशल मीडिया बैन या संसद परिसर में छात्रों पर गोली चलने तक सीमित नहीं है। इसके पीछे एक गहरी, दशकों से सुलगती पीड़ा है – बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

आज तस्वीरें साफ़ दिखाती हैं — नेपाल का युवा किसी और की वर्दी पहनकर लड़ रहा है। कोई रूसी फौज की ओर से यूक्रेन में, कोई यूक्रेनी आर्मी की तरफ से। महीने के पाँच हजार डॉलर का लालच, मारे जाने या घायल होने पर बोनस, यही उनका भविष्य बन चुका है।

गोरखा रेजिमेंट जैसी सम्मानजनक परंपरा का हिस्सा बनने से अलग, यह भाड़े का सौदा है। परंतु पेट की आग और बेरोजगारी की मार ने इसे मजबूरी बना दिया है। यही मजबूरी बीस साल पहले उन्हें अपने ही देश के माओवादियों के लिए हथियार उठाने पर ले गई थी।

लेकिन माओवादियों से उम्मीद किए गए “अच्छे दिन” कभी नहीं आए। राजनीति सत्ता-साझेदारी का खेल बनकर रह गई। प्रचण्ड, ओली और देउबा बारी-बारी से कुर्सी पर बैठे, चीनी निवेश और प्रोजेक्ट की लूट हुई, नेताओं के बच्चे विदेशों में मौज मस्ती करते रहे और गरीब परिवारों के हिस्से ताबूत आते रहे।

इसी बीच जब सोशल मीडिया पर इस असमानता की तस्वीरें और आलोचना फैलने लगीं, तो सरकार ने नए क़ानून लाकर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर बैन लगा दिया। टिकटॉक ही एकमात्र अपवाद रहा।

यहीं से आक्रोश फूटा। मुट्ठीभर छात्रों का जुलूस संसद की ओर बढ़ा। वे बच्चे थे — 15, 18, 20 साल के। पुलिस लाठीचार्ज हुआ, कुछ संसद भवन के भीतर छिपे, और उन पर सीधी गोलियां चला दी गईं। 22 मौतों में एक 12 साल का मासूम भी शामिल था।

यह दृश्य लाइव प्रसारण में जैसे ही आम जनता तक पहुंचा, काठमांडू दहक उठा। देखते ही देखते नेपाल जल उठा — दंगे, आगजनी, हिंसा। हालात इतने बिगड़े कि सरकार को इस्तीफा देना पड़ा।

लेकिन सवाल जस का तस है :

  • क्या नेपाल के नेताओं को सिर्फ सत्ता बाँटने और विदेशी ठेकेदारों के साथ खेल खेलने से ही फुर्सत है?
  • क्या युवाओं को हमेशा विदेशों की फौजों में भाड़े पर लड़ना ही नसीब होगा?
  • क्या सोशल मीडिया पर आवाज़ उठाना देशद्रोह है?

नेपाल में आज का गुस्सा सिर्फ सोशल मीडिया बैन का प्रतिफल नहीं, बल्कि उस लंबे धोखे और बेरोजगारी का नतीजा है, जिसने युवाओं को अपने भविष्य की कीमत पर विदेशी झंडे के नीचे मरने को मजबूर किया।

तस्वीरें भले ही आज नेपाल के बेटों की हों, पर सवाल पूरी दक्षिण एशिया की राजनीति पर उठ खड़ा हुआ है — जब जनता की आवाज़ दबाई जाती है, तब सड़कों पर सिर्फ गुस्सा और खून बहता है।


नेपाल के बच्चों पर गोलियां — एक राष्ट्रीय शर्म?नेपाल की सड़कों पर हाल के दिनों में जो खून बहा है, वह सिर्फ राजनीति की नाकामी नहीं, बल्कि इंसानियत पर गहरी चोट है। संसद की ओर बढ़ते हुए जिन बच्चों पर गोलियां चलाई गईं, वे न तो अपराधी थे और न ही देशद्रोही। वे तो सिर्फ अपनी आवाज़ उठाना चाहते थे — बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अभिव्यक्ति पर लगे पहरे के खिलाफ।

15, 18, 20 साल की उम्र में जीवन उम्मीदों से भरा होता है। लेकिन काठमांडू की सड़कों पर वही उम्र गोलियों की बौछार में ढेर हो गई। भीड़ में शामिल एक 12 साल का मासूम बच्चा भी पुलिस की गोली का शिकार बना। यह दृश्य हर संवेदनशील दिल को हिला देने वाला है। संसद भवन के गलियारों में शरण लेने वाले बच्चों पर सीधा निशाना साधना, लोकतंत्र पर सबसे बड़ा कलंक है।

इन बच्चों ने हाथों में बंदूक नहीं, बल्कि तख्तियां उठाई थीं। उनके नारे गोलियों का जवाब नहीं, बल्कि सुनवाई की मांग कर रहे थे। पर सत्ता के अहंकार ने उन्हें बर्बर हिंसा से कुचलने का रास्ता चुना।

आज नेपाल के हर घर में मातम पसरा है। जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के लिए स्कूल भेजा था, वे अब उनके शवों को गले लगाकर रो रहे हैं। यह दर्द सिर्फ नेपाल का नहीं, पूरी मानवता का है।

हम इन मासूम आत्माओं को श्रद्धांजलि देते हैं और उनके परिजनों के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करते हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि नेपाल में हालात जल्द सामान्य हों, शांति और संवाद की राह खुले। हिंसा से किसी का भला नहीं होता, पर संवेदनशील राजनीति और जवाबदेह नेतृत्व से घाव जरूर भरे जा सकते हैं।

नेपाल को अब गोलियों नहीं, संवेदनाओं और समाधान की ज़रूरत है।


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