नकल-विरोधी आंदोलन या नक्सली सोच?उत्तराखंड की राजनीति, बेरोजगार संघ और ‘नकल जिहाद’ की बहस पर सवाल

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जेहादी महिला

उत्तराखंड में बेरोजगारी लंबे समय से एक गंभीर मुद्दा रहा है। सरकारी नौकरियों की भर्तियों में धांधली, पेपर लीक और सिस्टम की नाकामियां युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करती रही हैं। इसी पीड़ा ने बेरोजगार संघ जैसे संगठनों को जन्म दिया। लेकिन हाल ही में जिस तरह से इस मंच पर कुछ व्यक्तियों ने अमर्यादित बयान दिए हैं, उसने पूरे आंदोलन की गरिमा पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है।

✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

‘नेपाल’ और ‘भगवा’ पर आपत्तिजनक बयान

देहरादून में हुए कार्यक्रम में एक अल्पसंख्यक महिला ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि “उत्तराखंड को नेपाल बना देंगे।” वहीं दूसरी ओर, खुद को बेरोजगार संघ का कार्यकर्ता बताने वाली एक अन्य महिला ने हिंदू धर्म और भगवा रंग पर असभ्य व अमर्यादित शब्दों का प्रयोग किया। सवाल यह है कि रोजगार की मांग करने वाला मंच आखिर कैसे उत्तराखंड-विरोधी मानसिकता और हिंदू विरोधी बयानों का अखाड़ा बन गया?

किसी भी आंदोलन का आधार जनता का विश्वास होता है। बेरोजगार संघ जिस मुद्दे के लिए खड़ा हुआ था, वह जनसरोकार का विषय था। लेकिन जब आंदोलनकारी ही नक्सली और विभाजनकारी सोच से बयानबाजी करने लगें, तो आम जनता का भरोसा टूटना स्वाभाविक है।

पेपर लीक और सरकार की जिम्मेदारी

यह सच है कि उत्तराखंड में पेपर लीक का काला कारोबार वर्षों से युवाओं को मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से नुकसान पहुंचाता आया है। हाल के वर्षों में इस पर कई जांचें भी हुईं और नकल-विरोधी कानून लाने की पहल सरकार ने की। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पेपर लीक के खिलाफ सख्त कदम उठाकर एक सकारात्मक संदेश दिया कि व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।

लेकिन इसके बीच कुछ आंदोलनकारी ऐसे बयानों के जरिए खुद को जनता के बीच ही नहीं, बल्कि समाज के व्यापक विमर्श से भी अलग-थलग कर रहे हैं।

भाजपा अध्यक्ष का बयान: ‘नकल जिहाद’

इसी बीच भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने पेपर लीक प्रकरण को ‘नकल जिहाद’ का नाम देकर बहस को नया मोड़ दे दिया है। उनके इस बयान को विपक्ष सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश बता रहा है, वहीं भाजपा इसे पेपर माफियाओं के खिलाफ कठोर संदेश के रूप में पेश कर रही है। यह शब्दावली भले ही सियासी हो, पर इससे यह साफ है कि अब पेपर लीक महज़ प्रशासनिक विफलता का मुद्दा नहीं रह गया, बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण का औजार भी बन चुका है।

कुमाऊं और गढ़वाल का फर्क

दिलचस्प बात यह है कि जहां देहरादून और गढ़वाल क्षेत्र में बेरोजगार संघ सक्रिय दिख रहा है, वहीं कुमाऊं मंडल में इस तरह की गतिविधियां नगण्य हैं। कुमाऊं में लोग अभी भी सरकार और व्यवस्था पर भरोसा बनाए हुए हैं। पेपर लीक का मामला यहाँ उतनी जोर-शोर से आंदोलन का रूप नहीं ले पाया। यह अंतर बताता है कि क्षेत्रीय मानसिकता और सामाजिक विश्वास का स्तर किस तरह आंदोलन की दिशा तय करता है।

आंदोलन का पतन

हर आंदोलन अपने नैतिक बल पर खड़ा होता है। जब आंदोलनकारी भाषा की मर्यादा तोड़ने लगते हैं, धार्मिक प्रतीकों का अपमान करने लगते हैं और राज्य की संप्रभुता पर प्रश्न उठाते हैं, तो आंदोलन धीरे-धीरे जनता के समर्थन से कट जाता है। बेरोजगार संघ के हालिया बयानों ने यही खतरा पैदा किया है।

किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन का उद्देश्य सरकार पर दबाव बनाकर नीति सुधार कराना होता है, न कि समाज को बांटने वाली सोच फैलाना। रोजगार की लड़ाई में नक्सली विचारधारा या विभाजनकारी बयान न केवल आंदोलन को कमजोर करते हैं, बल्कि सरकार को भी कठोर कार्रवाई का बहाना दे देते हैं।

सकारात्मक पहल और उम्मीद

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने नकल-विरोधी कानून बनाकर युवाओं को संदेश दिया है कि सरकार उनकी समस्याओं को समझती है। इस पहल को सभी दलों और संगठनों का समर्थन मिलना चाहिए। यह सही है कि कानून अकेले पर्याप्त नहीं होता, उसकी सख्त और निष्पक्ष क्रियान्वयन ही युवाओं को न्याय दिला सकता है।

लेकिन इस बीच आंदोलनकारी संगठनों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे रोजगार जैसे पवित्र मुद्दे को धार्मिक कटाक्ष, विभाजनकारी बयान और व्यक्तिगत स्वार्थ से दूर रखें।

उत्तराखंड की युवा पीढ़ी रोजगार, शिक्षा और सुरक्षित भविष्य की उम्मीद रखती है। अगर बेरोजगार संघ और उसके मंचों पर ऐसे बयान जारी रहे, तो यह आंदोलन अपने असली उद्देश्य से भटक जाएगा। सरकार की जिम्मेदारी है कि पेपर लीक और भ्रष्टाचार पर कठोर कार्रवाई करे, और समाज की जिम्मेदारी है कि ऐसे आंदोलनों को सही दिशा दे।

‘नकल जिहाद’ जैसी शब्दावली राजनीति का हिस्सा हो सकती है, लेकिन रोजगार की लड़ाई को जाति-धर्म की जंग बनाने वाले तत्वों को समय रहते अलग करना ही होगा। वरना, यह आंदोलन युवाओं की पीड़ा से ज्यादा नेताओं के सियासी खेल का हिस्सा बन जाएगा।


यह संपादकीय जनता, सरकार और आंदोलनों—तीनों को एक स्पष्ट संदेश देता है कि रोजगार की लड़ाई मर्यादा, शालीनता और जनहित के आधार पर ही सफल हो सकती है।



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