देशभर में दिवाली का उल्लास बीत चुका होता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में उस समय भी दीपों का त्योहार मनाने की तैयारियां जोरों पर रहती हैं. यहां दिवाली एक महीने बाद “बूढ़ी दिवाली” के रूप में मनाई जाती है.

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सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र, शिमला के कुछ गांवों और कुल्लू जिले के निरमंड में यह पर्व विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है. हिंदू पंचांग के अनुसार, इस वर्ष बूढ़ी दिवाली का पर्व 20 नवंबर से शुरू होकर चर दिनों तक चलेगा. ऐसे में आइए जानते हैं कि आखिर दिवाली के एक महीने के बाद बूढ़ी दिवाली क्यों मनाई जाती है, इससे जुड़ी खास परंपरा क्या है और इसका पौराणिक महत्व और कथा क्या है.

क्यों मनाई जाती है एक महीने बाद दिवाली?

हिमाचल के ऊंचे पर्वतीय इलाकों में सर्दियों के दौरान अत्यधिक बर्फबारी होती है, जिससे यहां का जीवन बाकी दुनिया से लगभग कट जाता है. माना जाता है कि प्राचीन काल में जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे थे, तब इस समाचार को इन दुर्गम इलाकों तक पहुंचने में लगभग एक महीना लग गया था. जब पहाड़ी लोगों ने यह शुभ सूचना सुनी, तो उन्होंने देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशालें जलाकर खुशी मनाई, नाच-गाना किया और गांवों को प्रकाश से आलोकित किया. तभी से यहां दिवाली एक महीने बाद मनाने की परंपरा शुरू हुई. सिरमौर के गिरिपार इलाके में इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है.

लोक संस्कृति में रचा-बसा है उत्सव

बूढ़ी दिवाली केवल दीपों का नहीं, बल्कि लोक कला और संस्कृति का पर्व भी है. इस अवसर पर स्थानीय लोग नाटी, रासा, विरह गीत भयूरी, परोकड़िया गीत, स्वांग और हुड़क नृत्य प्रस्तुत करते हैं. कुछ गांवों में आधी रात को बुड़ियात नृत्य किया जाता है, जिसमें लोग आग जलाकर परंपरागत नृत्य करते हैं. इस दौरान एक-दूसरे को मूड़ा, शाकुली, चिड़वा और अखरोट जैसे पारंपरिक व्यंजन बांटकर शुभकामनाएं दी जाती हैं. कई स्थानों पर यह पर्व एक सप्ताह तक चलता है.

बूढ़ी दिवाली मनाने की अनोखी परंपरा

इस पर्व में दीपक जलाने के साथ-साथ मशालें हाथों में लेकर उत्सव मनाने की परंपरा है. ग्रामीण अपने पारंपरिक गीत गाते हैं, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं और लोकनृत्य करते हैं. घरों में खास पकवान बनते हैं और मेहमानों का सत्कार किया जाता है. तीन से पांच दिन तक चलने वाले इस पर्व में हिमाचल की प्राचीन संस्कृति, परिधान और लोकधुनों की अनोखी झलक देखने को मिलती है.

बूढ़ी दिवाली की पौराणिक कथा

कहा जाता है कि बूढ़ी दिवाली का संबंध सतयुग से है. श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित कथा के अनुसार, वृत्तासुर नामक राक्षस के अत्याचारों से त्रस्त देवताओं ने ब्रह्मा जी से मदद मांगी. ब्रह्मा जी ने बताया कि वृत्तासुर का वध सिर्फ महर्षि दधीची की अस्थियों से बने अस्त्र से ही संभव है. महर्षि दधीची ने अपने योगबल से प्राण त्यागकर देवताओं को अपनी अस्थियां समर्पित कीं. उन्हीं अस्थियों से बना दिव्य अस्त्र हिमाचल की पहाड़ियों में वृत्तासुर का वध करने के लिए प्रयोग हुआ. देवताओं ने इस विजय पर मार्गशीर्ष अमावस्या के दिन मशालें जलाकर उत्सव मनाया और तभी से यह दिन बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाया जाने लगा.


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