संपादकीय:ऊर्जा प्रदेश या “बिजली जुमला प्रदेश”? उत्तराखंड में मिड टर्म करार की घोषणा पर एक गंभीर हास्य

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जब उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई थी, तब इसे “ऊर्जा प्रदेश” कहा गया — नदियों की गोद में बसे इस पर्वतीय राज्य से उम्मीद थी कि यहां से रोशनी पूरे उत्तर भारत को जाएगी। मगर हकीकत यह है कि आज अपने घरों को रोशन रखने के लिए भी उत्तराखंड को बाहर से बिजली खरीदनी पड़ रही है। अब उत्तराखंड पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (UPCL) “मिड टर्म बिजली खरीद करार” की नई योजना लेकर आया है, जिसे बताया जा रहा है कि यह बिजली को सस्ती कर देगा। लेकिन जनता पूछ रही है — “क्या यह योजना सच में राहत है या फिर एक और ‘ऊर्जा जुमला’?”

लेखक:
🖋️ अवतार सिंह बिष्ट
संपादकीय विभाग, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स /
रुद्रपुर, उधम सिंह नगर, उत्तराखंड, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

बिजली का गणित और सरकार की राजनीति

राज्य को औसतन 2000 मेगावाट बिजली की जरूरत होती है। त्योहारी या गर्मी के मौसम में यह मांग 2500 मेगावाट तक पहुंच जाती है। जल विद्युत परियोजनाएं केवल 60–65 प्रतिशत जरूरत ही पूरी कर पाती हैं — यानी “ऊर्जा प्रदेश” खुद अपने घर को ही रोशन नहीं कर पा रहा। शेष बिजली यूपीसीएल को पड़ोसी राज्यों और बिजली एक्सचेंज से ऊंचे दामों पर खरीदनी पड़ती है।

अब दावा किया जा रहा है कि मिड टर्म करार से 500 मेगावाट बिजली सस्ती दरों पर खरीदी जाएगी। सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन सवाल यह है कि जब हमारे पास दर्जनों अधूरी जल विद्युत परियोजनाएं वर्षों से पड़ी धूल खा रही हैं, तो बाहरी बिजली पर निर्भरता कम कैसे होगी? क्या यह कदम आत्मनिर्भरता की दिशा में है या “आयातित बिजली पर निर्भरता” का नया अध्याय?


“मिड टर्म करार” — राहत या दिखावा?

मिड टर्म करार का मतलब है कि 3 से 5 वर्षों के लिए तय दर पर बिजली खरीदी जाएगी। इससे बाजार के उतार-चढ़ाव का असर नहीं पड़ेगा — यह तकनीकी रूप से सही है। लेकिन असली सवाल यह है कि जब बिजली खरीद का पूरा खेल कमिशन और कॉरपोरेट कनेक्शन से चलता है, तो क्या यह करार पारदर्शी होगा?

निगम की वित्तीय हालत पहले ही कमजोर है। ऊर्जा विभाग को एडवांस भुगतान कर बिजली खरीदनी पड़ती है, और उसका बोझ आखिरकार उपभोक्ताओं की जेब से ही निकलता है। यानी “राहत” का नाम लेकर “बिल” फिर जनता के ही दरवाजे पर दस्तक देगा।


दूसरों से सीख, खुद से नहीं

तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब और तेलंगाना ने मिड टर्म करार किए — लेकिन उन्होंने यह कदम तब उठाया जब उनकी उत्पादन क्षमता पहले से मजबूत थी। उत्तराखंड में तो बिजली की आधी परियोजनाएं राजनीतिक वादों के बीच अटकी हैं, कई प्लांटों की फाइलें केंद्र और राज्य के बीच फुटबॉल बन चुकी हैं।

यह वैसा ही है जैसे कोई किसान अपने खेत में बीज न बोए और फिर दूसरों से अनाज खरीदने की योजना बना कर “खुशहाल किसान योजना” घोषित कर दे।


ऊर्जा प्रदेश की रोशनी कब लौटेगी?

उत्तराखंड की नदियों से निकलने वाली बिजली पहले हरियाणा, दिल्ली और यूपी तक जाती थी। आज हालत यह है कि वही राज्य हमारी बिजली की कीमत तय कर रहे हैं। “ऊर्जा प्रदेश” का खिताब अब सिर्फ भाषणों और विज्ञापनों में बचा है।
यूपीसीएल और सरकार दोनों को चाहिए कि वे जल विद्युत परियोजनाओं को प्राथमिकता दें, स्थानीय उत्पादन बढ़ाएं, और निजी कंपनियों पर निर्भरता घटाएं।


अगर यह मिड टर्म करार ईमानदारी से लागू होता है, तो यह एक सुधारात्मक कदम होगा। लेकिन अगर यह केवल घोषणाओं की रोशनी में छिपा राजनीतिक तमाशा निकला, तो जनता एक बार फिर कहेगी —
“ऊर्जा प्रदेश नहीं, जुमला प्रदेश है ये!”



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