संपादकीय: सोशल मीडिया की नचनिया संस्कृति – उत्तराखंड की अस्मिता पर चोट

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आज उत्तराखंड की पवित्र भूमि, जिसे देवभूमि कहा जाता है, सोशल मीडिया की सस्ती लोकप्रियता की आग में झुलस रही है। हाल ही में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर तनु रावत का अर्धनग्न वस्त्रों में डांस वीडियो जब वायरल हुआ, तो न केवल आमजन में बल्कि धार्मिक संगठनों में भी रोष फैल गया।
राष्ट्रीय हिंदू शक्ति संगठन के प्रदेश अध्यक्ष राघव भटनागर ने इस पर कड़ा विरोध जताते हुए कहा कि “भगवान राम के नाम पर स्थापित श्री जयराम आश्रम में इस प्रकार की अश्लील हरकतें अत्यंत निंदनीय हैं।”

संगठन के सदस्यों ने ऋषिकेश स्थित जयराम योग आश्रम के प्रबंधक को भी आपत्तिजनक वीडियो दिखाया और माँग की कि किसी भी व्यक्ति को इस प्रकार की गतिविधियों की अनुमति न दी जाए। मौके पर तनु रावत, उनकी मां और सहेली ने विरोध जताते हुए इसे “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का मुद्दा बताया। हालांकि, स्थानीय सामाजिक नेताओं – लायंस क्लब रॉयल के अध्यक्ष पंकज चंदानी और नगर व्यापार मंडल के अध्यक्ष ललित मोहन मिश्र ने बीच-बचाव कर विवाद को शांत किया।

लेकिन असली सवाल यह है कि आखिर देवभूमि की संस्कृति को सोशल मीडिया की ‘नचनिया संस्कृति’ में बदलने की कोशिश क्यों की जा रही है?
आज उत्तराखंड की कुछ महिला यूट्यूबर और ब्लॉगर अपनी टीआरपी और फॉलोअर्स बढ़ाने के लिए अशोभनीय हरकतों का सहारा ले रही हैं। मंदिरों, घाटों, विवाह समारोहों, यहाँ तक कि धार्मिक आयोजनों तक में ये अपने कैमरे के सामने ठुमके लगाने से गुरेज़ नहीं करतीं। इन पर आने वाले कमेंट्स और व्यूज़ देने वाले अधिकांश लोग उत्तराखंड के नहीं, बल्कि मैदानी प्रदेशों – यूपी, बिहार, हरियाणा और कुछ अल्पसंख्यक वर्गों से हैं, जिनके लिए यह केवल मनोरंजन है, संस्कृति नहीं।

यह दृश्य केवल तनु रावत या किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक सामूहिक सांस्कृतिक पतन का प्रतीक बन गया है।
उत्तराखंड की बेटियाँ, जिन्होंने कभी लोकगीतों और लोकनृत्यों के माध्यम से सभ्यता का दीप जलाया था, आज वही मंच अश्लील नृत्य और फूहड़ता से कलंकित हो रहे हैं।
ऐसे में हम उत्तराखंड के मूल निवासी, चाहे रुद्रपुर-किच्छा देहरादून हरिद्वार हल्द्वानी पर्वतीय क्षेत्र के सादुरइलाकों में रहने वाले लोग तराई में हों या विदेशों में, एक ही स्वर में कहना चाहते हैं –

हमारी बेटियाँ नचनिया नहीं, संस्कृति की वाहक हैं।”

हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स इस संपादकीय के माध्यम से स्पष्ट संदेश देता है कि देवभूमि की मर्यादा और संस्कृति की रक्षा हर उत्तराखंडी का दायित्व है। जो लोग इस तरह के वीडियो देखकर तालियाँ बजा रहे हैं, वे दरअसल अपनी ही जड़ों को काट रहे हैं।
आवश्यक है कि सरकार, समाज और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म – सभी मिलकर ऐसे कंटेंट पर लगाम लगाएँ, ताकि उत्तराखंड की संस्कृति को सस्ती टीआरपी की भेंट न चढ़ाया जा सके।


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