
उत्तराखंड की पहाड़ियों में अब सिर्फ देवताओं के मेले नहीं लगते, पत्रकार यूनियनों के सम्मेलन भी खूब सजते हैं। हर जिले, हर नगर में कोई न कोई यूनियन “पत्रकार हित” के नाम पर मंच सजाकर सत्ता के दरबारियों को बुला रही है और वही पत्रकार जो अखबार में 2 कॉलम छप जाने से खुद को क्रांतिकारी समझते हैं, मंच पर विधायक के हाथों “सम्मानित” होकर अपने आपको पत्रकारिता का अगला परशुराम मानने लगते हैं।


यूनियनबाज़ी का गणित: कौन बचाएगा पुलिस की लाठी से?
अब पत्रकार यूनियन का चयन पत्रकारिता के आदर्शों के आधार पर नहीं होता। अब यह तय होता है कि –कौन सी यूनियन का नेता पुलिस अधीक्षक का ‘भाईजान’ है?कौन सी यूनियन की फोटो राज्यसभा सांसद की फ्रेम में टंगी है?और सबसे अहम – कौन सी यूनियन में डंडा पड़ने पर बचाव हेतु फोन” करवाया जा सकता है?
पत्रकारिता अब आत्मा की आवाज़ नहीं रही, यह बन गई है – “कौन से गुट में रहकर बचा जा सकता है।”
सम्मेलनों की आत्मा: मंच, माला और मिर्ची पकोड़ा
हर महीने किसी न किसी शहर में “पत्रकार सम्मेलन” होता है। वहां पत्रकारों के मुद्दों पर बात नहीं होती, वहां MLA साहब के विचारों पर तालियाँ बजती हैं, पुलिस कप्तान के फोटो पर लाइक आते हैं, और मंच पर सबसे पीछे खड़े उस पत्रकार को भी प्रमाणपत्र मिलता है जिसने अभी तक एक भी एक्सक्लूसिव रिपोर्ट नहीं की – लेकिन यूनियन में फोटोकॉपी पत्रकार बनकर चार मीटिंग अटेंड की हैं।
सम्मान समारोह इस तरह होते हैं मानो “पत्रकारिता सेवा नहीं, लोकसभा चुनाव जीत ली हो।”
यूनियन का खेल: ‘हमारे नेता जी’, ‘हमारा अध्यक्ष जी’
हर यूनियन का एक स्वयंभू “राजा” होता है – जिसे न कोई सवाल कर सकता है, न चुनौती दे सकता है। चाहे जिले में कोई युवा पत्रकार अच्छा काम कर रहा हो, अगर वह राजा की पसंद नहीं है, तो वह बस “छोटा मोटा रिपोर्टर” बना रहेगा।
जो नेता जी की फोटो ज़्यादा पोस्ट करे, वही प्रमोट होगा। बाकियों के लिए है – “आप अच्छे हो, लेकिन वक्त अभी आपका नहीं है।”
कुछ यूनियनें तो इतनी “भाईभतीजावादी” हैं कि अध्यक्ष जी की बहू भी यदि पकोड़े बेचती हो, तो अगले सम्मेलन में “सर्वश्रेष्ठ सूचना संप्रेषण” सम्मान मिल जाए – कोई हैरानी नहीं!
राजनीतिक फंडिंग और चुनावी मौज
सूत्र बताते हैं कि चुनाव आते ही कुछ चुनिंदा यूनियन के ‘शीर्षस्थ’ लोगों को सत्ता पक्ष से गुप्त आर्थिक सहयोग मिलता है। फिर वो पैसों से सम्मेलन, सम्मान, स्मारिका छापवाते हैं – ताकि सरकार की ‘जनसंपर्क नीति’ को पत्रकारिता का नाम देकर पेश किया जा सके
पत्रकारों को भ्रम में रखा जाता है –
हमारी यूनियन सबसे मजबूत है, हमारा नेटवर्क दिल्ली तक है…”
असल में ये नेटवर्क दिल्ली में नेताओं के ड्राइंग रूम और हल्द्वानी के पुलिस अधिकारियों की मेज तक ही सीमित होता है।
पत्रकारिता या चमचागिरी की औपचारिक शिक्षा?
अब यूनियनों का असली मकसद हो गया है –
पत्रकारों को सिखाओ कि कैसे नेता की तारीफ करके मंच मिल सकता है।”
उन पत्रकारों को “आदर्श पत्रकार” का तमगा मिलता है जो पत्रकारिता छोड़ चुके हैं, लेकिन अभी भी MLA कॉलोनी में हाज़िरी लगाते हैं।
सवाल पूछने वाले पत्रकार, RTI डालने वाले, किसी अधिकारी के खिलाफ रिपोर्ट करने वाले – उन्हें मंच पर जगह नहीं मिलती। उन्हें “नेगेटिव सोच वाला” कहा जाता है।
सम्मान का मापदंड: किसके साथ कितनी फोटो?
पत्रकार का मूल्यांकन अब इस बात से होता है कि उसकी Facebook प्रोफाइल पर कितने मंत्री के साथ फोटो है, कितने थानेदार उसे ‘भाई’ बोलते हैं, और उसने पिछले महीने कितनी प्रेस विज्ञप्तियाँ बिना एडिट किए छापी हैं।
पत्रकारिता अब गूगल ड्राइव से प्रेस रिलीज डाउनलोड करके वर्ड में चिपकाने का काम हो गया है।सच्चाई की कीमत: डंडा और FIR
जो पत्रकार वास्तव में जनता के मुद्दे उठाते हैं, शिक्षा-स्वास्थ्य की असलियत दिखाते हैं, पुलिस की कार्रवाई पर सवाल करते हैं – उनके खिलाफ FIR दर्ज होती है, और तब ये सारी यूनियनें चुप हो जाती हैं।
कोई नहीं पूछता –हमारे साथी पर झूठा केस क्यों किया गया?”
क्योंकि सत्ता की दलाली और फोटोकॉपी पत्रकारिता में “सच्चाई” शब्द बेमानी हो चुका है।उपसंहार: पत्रकारों, अब जागो!
पत्रकारों को अब तय करना होगा कि वे सम्मान समारोह की माला में बंधे रहेंगे या सच की आग में तपकर असली पत्रकार बनेंगे।यूनियन अगर सच का साथ न दे, तो ऐसी यूनियन से अलग होना ही बेहतर है।
मंच पर फूलमाला पहनना जरूरी नहीं,सच बोलने की हिम्मत पहनना ज्यादा जरूरी है।
