
उत्तराखंड की पवित्र भूमि पर अब सत्ताधारी नेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों और भू-माफियाओं का अपवित्र गठजोड़ खुलेआम सक्रिय है। धर्म, विकास और गरीबों की सहानुभूति के नाम पर सरकारी जमीनें, नजूल भूमि और कृषि भूखंडों को अवैध रूप से प्लॉटिंग के लिए बेच दिया गया। सत्ता की छत्रछाया में बैठे कुछ नेता प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिलकर पूरे जनपद को “रियल एस्टेट बाजार” में बदल चुके हैं।

यह गठजोड़ न केवल राज्य की आर्थिक रीढ़ तोड़ रहा है, बल्कि सामाजिक असंतुलन और सांप्रदायिक विभाजन की जड़ भी बन रहा है। भूमि खरीद-फरोख्त में सांप्रदायिक रंग भरकर माहौल बिगाड़ने की साजिशें चल रही हैं, ताकि असली भ्रष्टाचार की चर्चा दब जाए।
अब समय आ गया है कि इस गठजोड़ को जनता बेनकाब करे। उत्तराखंड की जनता जानती है कि यह केवल जमीन की लूट नहीं — यह राज्य की आत्मा पर डाका है। मुख्यमंत्री धामी को चाहिए कि ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों और सत्ता के दलालों पर सख्त कार्रवाई कर उत्तराखंड की अस्मिता की रक्षा करें।
रुद्रपुर ,उत्तराखंड की रचना केवल एक भौगोलिक पुनर्संरचना नहीं थी, यह एक भावनात्मक और सांस्कृतिक आंदोलन का परिणाम था। पर्वतीय अस्मिता, पर्यावरणीय संतुलन, न्यायसंगत विकास और पारदर्शी प्रशासन की परिकल्पना के साथ जब 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था, तब आम जनता ने यह सपना देखा था कि यह राज्य उन गलतियों को नहीं दोहराएगा जो मैदानों के राज्यों ने की हैं। लेकिन आज की स्थिति देखकर यह कहना कठिन नहीं कि राज्य के मूल उद्देश्यों पर राजनीति, लालच और भ्रष्टाचार ने गहरी चोट की है।
✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
ऊधमसिंहनगर, जो राज्य की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, अब अवैध कालोनियों, भूमाफिया, और रियल एस्टेट के भ्रष्ट खेल का केंद्र बन चुका है। तीन माह से चल रही रजिस्ट्री बंदी ने भले ही अस्थायी रूप से इस अनियंत्रित भू-माफियागिरी पर ब्रेक लगाया हो, पर इससे प्रशासनिक असंतुलन, सरकारी राजस्व हानि और गरीब-मध्यम वर्ग की असहनीय पीड़ा सामने आ गई है।
1. प्रशासनिक रोक या अनियोजित सिस्टम का परिणाम?
ऊधमसिंहनगर प्रशासन द्वारा पिछले तीन महीनों से जिले की सैकड़ों कालोनियों की रजिस्ट्री पर रोक लगा दी गई है। इन कालोनियों में अधिकांश वे हैं, जो जिला विकास प्राधिकरण बनने से पहले अस्तित्व में आ चुकी थीं या ग्रामीण क्षेत्रों में आती हैं जहां प्राधिकरण का दायरा लागू नहीं होता। फिर भी, इन कालोनियों को “नियमविरुद्ध” बताकर रोक लगा दी गई है।
रुद्रपुर उप-निबंधक कार्यालय के दस्तावेज लेखकों के अनुसार, रजिस्ट्री पर यह रोक लगने से जमीन की खरीद-फरोख्त में 60 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। पहले जहां रुद्रपुर क्षेत्र में प्रतिदिन 300–500 रजिस्ट्रियां होती थीं, अब यह आंकड़ा 150 के आसपास सिमट गया है। इसका सीधा असर सरकार के राजस्व पर भी पड़ा है।
लेकिन सवाल यह नहीं कि सरकार को राजस्व का नुकसान हुआ — असली सवाल यह है कि यह स्थिति बनी ही क्यों?
क्या प्रशासन ने वर्षों से अवैध प्लॉटिंग पर आंखें मूंद नहीं रखीं? क्या हरियाणा, बरेली या दिल्ली के पैटर्न पर कालोनियों को वैध ठहराने की लालसा में रुद्रपुर जैसे छोटे शहरों को अवैध प्लॉटिंग का मैदान बना दिया गया?
2. गरीब और मध्यम वर्ग के सपनों का टूटना
ऊधमसिंहनगर में गरीब और मध्यम वर्ग के लिए अपने घर का सपना अब मृगतृष्णा बन चुका है।
रेरा से स्वीकृत कॉलोनियों में जमीन का भाव ₹30,000 से ₹50,000 प्रति वर्ग गज तक पहुंच चुका है — जो आम आदमी की पहुंच से बाहर है।
इसके विपरीत, ग्रामीण या प्राधिकरण से बाहर की कालोनियों में दर ₹8,000–₹10,000 प्रति वर्ग गज थी, जहां मध्यम वर्ग अपने जीवन की बचत से एक छोटा घर बना सकता था।
लेकिन रजिस्ट्री बंदी के बाद अब यह वर्ग दोहरी मार झेल रहा है
यह केवल आर्थिक संकट नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता को भी गहराई से बढ़ा रहा है।
3. अवैध कालोनियों का साम्राज्य: जमीन माफिया की नई लूट नीति
ऊधमसिंहनगर में रियल एस्टेट के नाम पर जो खेल चल रहा है, वह किसी संगठित माफिया नेटवर्क से कम नहीं।
सूत्रों के अनुसार, 5 एकड़ की स्वीकृति लेकर 30 से 40 एकड़ तक कॉलोनियां काट दी जाती हैं।
प्रत्येक एकड़ पर ₹1 लाख तक “कमीशन” अधिकारियों और दलालों के बीच बांटा जाता है।
इन प्लॉटिंग्स में न तो सड़क, न सीवर, न बिजली की उचित व्यवस्था होती है, फिर भी इन्हें “गोल्डन इन्वेस्टमेंट” बताकर बेचा जाता है।
रुद्रपुर, किच्छा, गदरपुर और बाजपुर में हजारों बीघा कृषि भूमि को गैरकानूनी तरीके से रिहायशी बताया गया है।
यहां तक कि कुछ माफियाओं ने नजूल भूमि और नजर भूमि पर भी कब्जा कर प्लॉटिंग कर दी है — जो सीधे तौर पर राज्य की संपत्ति की डकैती है।
इन सबके पीछे न केवल निजी लालच, बल्कि प्रशासनिक मिलीभगत भी उजागर होती है।
कौन हैं ये अधिकारी जो मुख्यमंत्री के सपनों पर पलीता लगा रहे हैं?
यह प्रश्न हर उत्तराखंडी के मन में गूंज रहा है।
4. हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स की खबर का असर — लेकिन जांच अधूरी
हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया, यह दिखाया कि कैसे अवैध कॉलोनी माफिया प्रशासन को गुमराह कर रहा है — कभी गरीबों का हवाला देकर, तो कभी राजस्व नुकसान का डर दिखाकर।
अब खबर का असर दिख रहा है — प्रशासन सख्त हुआ है, कुछ फाइलें रोकी गई हैं, और कुछ कॉलोनियों की जांच आरंभ की गई है।
लेकिन यह पर्याप्त नहीं।
केवल नई कॉलोनियों की जांच नहीं, बल्कि 2000 के बाद बनी हर कॉलोनी की जांच की जानी चाहिए।
उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद 25 वर्षों में जो भी कृषि भूमि, नजूल भूमि या नजर भूमि रिहायशी कॉलोनी में बदली गई, उसकी फाइलें सार्वजनिक रूप से खोली जानी चाहिएं।
क्योंकि यह केवल अवैध निर्माण का नहीं, बल्कि राज्य की आत्मा की चोरी का मामला है।
5. नीति और नियत दोनों पर सवाल
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विकास के कई सपने दिखाए हैं — स्मार्ट सिटी, निवेश सम्मेलन, और युवाओं के लिए रोजगार।
लेकिन यदि जिलों में बैठा प्रशासन विकास की दिशा को भ्रष्टाचार की दलदल में धकेल देगा, तो ये सपने अधूरे ही रह जाएंगे।
क्योंकि जिस भूमि पर राज्य की नीति खड़ी होनी थी, वही भूमि अब दलालों और माफियाओं की जागीर बन चुकी है।
यह विडंबना है कि “भूमि सुधार” के नाम पर सरकारी अधिकारी वही कर रहे हैं जो कभी उत्तराखंड आंदोलनकारियों ने खिलाफ किया था —
जनता की भूमि जनता से छीनना, और उसे धनबलियों के हवाले करना।
6. जनता की मांग — हर कॉलोनी की जांच हो, कठोर कार्रवाई हो
उत्तराखंड की जनता अब सजग है।
लोग मांग कर रहे हैं कि:
- 2000 के बाद बनी हर कॉलोनी की जांच हो।
- कृषि भूमि और नजूल भूमि पर बनी अवैध कालोनियों को चिन्हित कर जिम्मेदार अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज हो।
- इनकम टैक्स विभाग उन रियल एस्टेट डीलरों और डेवलपरों पर छापेमारी करे जिन्होंने करोड़ों की ब्लैक मनी इन प्रोजेक्ट्स में निवेश की।
- जिन अधिकारियों ने नियम विरुद्ध मंजूरी दी, उनकी संपत्ति की जांच हो।
यह जांच केवल भूमि का नहीं, बल्कि लोकतंत्र के विश्वास का परीक्षण होगी।
7. राज्य की आत्मा की रक्षा जरूरी
उत्तराखंड का निर्माण इसलिए नहीं हुआ था कि यहां भी उत्तर प्रदेश या हरियाणा जैसा जमीन माफिया राज चले।
यह राज्य किसानों, युवाओं और पहाड़ी अस्मिता की रक्षा के लिए बना था।
लेकिन आज जब कृषि भूमि बिक रही है, गांव शहरों में बदल रहे हैं, और सरकारी नजर भूमि पर “प्लॉट” बनाकर बेचे जा रहे हैं — तो यह राज्य की आत्मा पर हमला है।
यह केवल आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि नैतिक अपराध भी है।
क्योंकि हर अवैध कॉलोनी के पीछे एक किसान का उजड़ा खेत है, एक गरीब का टूटा सपना है, और एक प्रशासनिक भ्रष्टाचार की कहानी है।
8. आगे का रास्ता — नीति, पारदर्शिता और जवाबदेही
यदि राज्य सरकार सचमुच विकास के प्रति गंभीर है, तो उसे तत्काल कुछ ठोस कदम उठाने होंगे:
- जमीन सुधार नीति का पुनर्गठन:
अवैध कॉलोनी विकास पर रोक लगाते हुए, गरीबों के लिए सस्ती और नियोजित कॉलोनियों की सरकारी योजना लाई जाए। - रेरा प्रणाली की समीक्षा:
रेरा को सिर्फ बड़े बिल्डरों के हित में नहीं, बल्कि छोटे प्लॉटधारकों के हित में भी बनाया जाए। - ऑनलाइन रजिस्ट्री सिस्टम में पारदर्शिता:
हर कॉलोनी की वैधता, स्वीकृति, और भू-उपयोग ऑनलाइन सार्वजनिक किया जाए ताकि कोई धोखाधड़ी न हो सके। - जवाबदेही तय हो:
2000 से अब तक जिन अधिकारियों के समय में अवैध कॉलोनियां फली-फूलीं, उनकी जवाबदेही तय की जाए।
समापन: उत्तराखंड की भूमि — न बिकने वाली धरोहर
उत्तराखंड की धरती केवल जमीन नहीं, यह आंदोलनकारियों के बलिदान से सिंचित धरोहर है।
इस धरती को लालच, भ्रष्टाचार और अवैध मुनाफाखोरी के हवाले नहीं किया जा सकता।
यदि आज भी सरकार और समाज नहीं जागे, तो कल यह वही राज्य होगा जहां “देवभूमि” का नाम केवल रियल एस्टेट ब्रोशर में रह जाएगा।
हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स की यह मुहिम इसी चेतना की आवाज है —
कि उत्तराखंड की भूमि बिकनी नहीं चाहिए, बल्कि बचनी चाहिए।
क्योंकि जब भूमि बिकती है, तो केवल खेत नहीं जाते — राज्य का अस्तित्व बिक जाता है।
संपादकीय :हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
(रिपोर्ट: अवतार सिंह बिष्ट, संवाददाता रुद्रपुर) उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी


