
देवभूमि उत्तराखंड की रजत जयंती—25 वर्षों का गौरव, संघर्ष और आत्ममंथन का क्षण। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि इस ऐतिहासिक अवसर पर पहली बार देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी उत्तराखंड की धरती पर राज्य स्थापना दिवस के साक्षी बनेंगे। लेकिन इस गर्व और उत्सव के बीच देवभूमि की आत्मा से उठती एक पुकार भी है—“हमने यह राज्य किसलिए बनाया था, और आज हम कहां खड़े हैं?”

राज्य आंदोलन के दौरान “अलग उत्तराखंड” का सपना केवल भौगोलिक सीमाओं के पुनर्गठन का नहीं था, बल्कि यह सपना था एक ऐसी व्यवस्था का जहाँ न्याय, रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान और सुरक्षा हर नागरिक का अधिकार हो। इसी भावना के साथ उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी एवं देवभूमि पलायन एवं बेरोजगारी उन्मूलन समिति के अध्यक्ष अनिल जोशी ने राज्य की रजत जयंती पर सरकार से 25 सवाल, सुझाव और मुद्दे उठाए हैं — और यह केवल सवाल नहीं, बल्कि उस अधूरी क्रांति की प्रतिध्वनि हैं जो 1994 के संघर्ष से शुरू हुई थी।
अनिल जोशी का पहला प्रश्न सबसे बड़ा घाव कुरेदता है — 1994 के शहीद आंदोलनकारियों के हत्यारों को आज तक सजा क्यों नहीं मिली? 25 वर्षों के बाद भी जब न्याय केवल रिपोर्टों में और फाइलों में दबा है, तो यह राज्य अपने शहीदों के प्रति कृतज्ञ कैसे हो सकता है?
उनके अन्य प्रश्न विकास के असली मुद्दों की ओर इशारा करते हैं—पलायन, बेरोजगारी, गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाना, भू-कानून का सशक्त क्रियान्वयन, चकबंदी व्यवस्था, स्थानीय आरक्षण, मूल निवासी प्रमाणपत्र, किसानों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा का संकट—ये सब वही बिंदु हैं जो राज्य निर्माण की आत्मा थे, लेकिन आज भी अधूरे हैं।
अनिल जोशी के इन सवालों में गुस्सा नहीं, बल्कि उम्मीद झलकती है। यह उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी जी की इस ऐतिहासिक यात्रा से उत्तराखंड के विकास की नई दिशा तय होगी—वह दिशा जिसमें “ग्लोबल उत्तराखंड” से पहले “ग्रामीण उत्तराखंड” को महत्व मिले।
उनकी मांगें जैसे — आंदोलनकारियों की पेंशन ₹25,000, पहाड़ी छात्रों को मुफ्त परिवहन, किसानों को बंदरों और सूअरों से राहत, घुसपैठियों का सफाया, स्थानीय ठेकेदारों को प्राथमिकता, प्लास्टिक पर 100% प्रतिबंध, दावाग्नि और खनन पर सशक्त नीति, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सख्त कानून — यह सब केवल नारों या घोषणाओं के लिए नहीं, बल्कि उत्तराखंड के जन-जीवन से जुड़ी जमीनी सच्चाइयाँ हैं।
उत्तराखंड आज दो चेहरों में बंटा है—एक है चमकदार पर्यटन और तीर्थस्थलों वाला “विकास का चेहरा”, और दूसरा है खाली गांवों, जर्जर सड़कों, बंद स्कूलों और पलायन करती पीढ़ियों की हकीकत का चेहरा। अनिल जोशी जैसे आंदोलनकारी इन दोनों के बीच पुल का काम कर रहे हैं—वे याद दिला रहे हैं कि उत्तराखंड की आत्मा अब भी पहाड़ों में बसती है, न कि केवल देहरादून के सचिवालयों में।
अब प्रश्न यही है — क्या राज्य और केंद्र सरकार इस आवाज़ को सुनेंगी? क्या रजत जयंती केवल एक उत्सव रह जाएगी या यह “उत्तराखंड पुनर्जागरण” की शुरुआत बनेगी?
अनिल जोशी का यह बयान एक चेतावनी भी है और एक संकल्प भी — कि अगर सरकारें सोई रहीं, तो देवभूमि के पहाड़ फिर बोलेंगे, क्योंकि उत्तराखंड केवल एक राज्य नहीं, यह एक आंदोलन की निरंतरता है।
रजत जयंती के इस पावन अवसर पर हम सबकी यही प्रार्थना होनी चाहिए —
अब और प्रतीक्षा नहीं, अब उत्तराखंड को उसके असली हक का उत्तर चाहिए।”
अवतार सिंह बिष्ट
वरिष्ठ संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स




 
		
 
		 
		