मौजूदा गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल 10 दिसंबर को समाप्त हो रहा है। शक्तिकांत दास के गवर्नर रहते सरकार से रिश्ते काफी उतार-चढ़ाव भरे रहे। महंगाई से निपटने को लेकर सरकार और बतौर आरबीआई गवर्नर उनके काम के तरीकों में मनमुटाव देखने को मिला। हालांकि दास अकेले ऐसे गवर्नर नहीं, उनसे पहले चार और गवर्नरों को भी इसी तरह के हालात का सामना करना पड़ा था।
शक्तिकांत दास से सरकार के उतार-चढ़ाव भरे रिश्तों की खास वजह मंहगाई से निपटने के तरीकों को लेकर थी। जिसपर काफी विवाद भी हुआ था। महंगाई काबू में लाने के लिए सरकार का तर्क था कि केंद्रीय बैंक को प्रमुख नीतिगत दरों में कटौती करना चाहिए। सरकार का मानना था कि रेपो रेट कम करने से धीमी अर्थव्यवस्था को बूस्ट मिलेगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उद्योगों को बढ़ावा देने और क्षमता निर्माण के लिए “सस्ती बैंक ब्याज दरों” की वकालत की।
वहीं, केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने भी आरबीआई से आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए ब्याज दरों में कटौती करने और मौद्रिक नीति पर निर्णय लेते समय खाद्य कीमतों पर विचार करने का आग्रह किया। हालांकि, सरकार की इच्छा के उलट आरबीआई ने रेपो दर को 6.50 प्रतिशत पर ही बरकरार रखा।
वैसे सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच यह तनातनी कोई नई या असामान्य बात नहीं है। इन दोनों पक्षों के बीच कई वर्षों से इस तरह का टकराव चल रहा है। कारण है- गवर्नर केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और स्वतंत्रता की रक्षा करने की कोशिश करते रहे हैं। शक्तिकांत दास अकेले गवर्नर नहीं हैं। इससे पहले आरबीआई गवर्नर रहे वाईवी रेड्डी रहे, डी सुब्बाराव, रघुराम राजन, उर्जित पटेल के साथ भी सरकार के विवाद सामने आते रहे हैं। एक ने तो दो बार इस्तीफा देने की सोची। वहीं, सुब्बाराव अपनी किताब में लिख चुके हैं कि वे इस बात से परेशान थे कि क्या आरबीआई को सरकार का चीयरलीडर बनना चाहिए?
वाईवी रेड्डी को बिना शर्त मांगनी पड़ी माफी
रेड्डी 2003 से 2008 तक आरबीआई गवर्नर थे। रेड्डी तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के साथ उलझ गए थे और नौबत यहां तक आ गई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा हस्तक्षेप करने पर उन्हें मंत्री से “बिना शर्त माफ़ी” भी मांगनी पड़ी थी। रेड्डी ने अपने कार्यकाल के दौरान दो बार पद छोड़ने पर विचार किया था। उन्होंने कहा था कि सरकार के पास आरबीआई गवर्नर को निर्देश देने की शक्ति है। लेकिन, बावजूद इसके आरबीआई के संबंध में निर्देश जारी करने से पहले गवर्नर से परामर्श करना आवश्यक है। रेड्डी और चिदंबरम के बीच असहमति वित्तीय बाजारों के विकास से संबंधित थी। चिदंबरम एकीकृत तरीके से बॉन्ड करेंसी डेरिवेटिव्स विकास चाहते थे। जबकि, रेड्डी का मानना था कि वित्तीय क्षेत्र में सुधार के लिए अन्य प्राथमिकताएं भी हैं। रेड्डी ने फरवरी 2008 में किसानों को दिए गए 60000 करोड़ रुपये के ऋण माफ करने के प्रस्ताव का विरोध किया था।
सरकार की चीयरलीडर नहीं है आरबीआई
दूसरे केस में आरबीआई गवर्नर रहे डी सुब्बाराव ने अपनी किताब में लिखा है कि वे ‘इस मांग से हमेशा असहज और परेशान रहते थे कि आरबीआई को सरकार का चीयरलीडर बनना चाहिए।’ सुब्बाराव 2008-2013 के दौरान आरबीआई गवर्नर थे। यह वो वक्ता था, जब वैश्विक वित्तीय संकट ने देश की वित्तीय प्रणाली को हिलाकर रख दिया था। सुब्बाराव ने अपनी किताब ‘जस्ट ए मर्सेनरी? नोट्स फ्रॉम माई लाइफ एंड करियर’ में लिखा है, “उस दौरान वित्त मंत्री रहे चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी दोनों ही आरबीआई के मुद्रास्फीति विरोधी रुख से परेशान थे, क्योंकि उनका मानना था कि इससे विकास में बाधा आ रही है।” सुब्बाराव लिखते हैं, “आरबीआई के नीतिगत रुख को लेकर चिदंबरम और मुखर्जी दोनों से मेरी बहस हुई। उन्होंने कहा कि चिदंबरम आमतौर पर एक वकील की तरह अपना मामला पेश करते थे, जबकि मुखर्जी एक आदर्श राजनीतिज्ञ।”