हालांकि इतिहासकार के अनुसार पहले कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्द्धन के राज्यकाल (664 ईसा पूर्व) में आरंभ हुआ था। चीन से भारत में आए प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा का उल्लेख करते हुए कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया है। साथ ही साथ उसने राजा हर्षवर्द्धन की दानवीरता का भी जिक्र किया है।


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प्रिंट मीडिया,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर
ह्वेनसांग ने कहा है कि राजा हर्षवर्द्धन हर पांच साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे, जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों में दान दे देते थे। मध्यकाल इतिहास में अकबर के दरबारी अबुल फजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि हिन्दू लोग प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं, यहीं पर गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम है।
जहां तक प्रयागराज में कुंभ मेले के आयोजन की बात है तो यह माना जाता है कि अमृत की बूंदे सबसे पहले प्रयागराज में ही गिरी थी इसलिए पहले कुंभ का आयोजन प्रयागराज में ही हुआ था। प्रत्येक 12 वर्षों के बाद बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर पूर्ण कुंभ मेले का आयोजन होता है। प्रयागराज में कुल छह कुंभ स्नान पर्व होते हैं। मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, माघी पूर्णिमा, बसंत पंचमी, महाशिवरात्रि प्रयागराज कुंभ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वाज से मिलने गए तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा कि हे राम, गंगा-यमुना के संगम का जो स्थान है वह बहुत ही पवित्र है आप वहां भी रह सकते हैं। श्रीरामचरितमानस में प्रयागराज के महत्व का वर्णन बहुत रोचक तरीके से और विस्तारपूर्वक किया गया है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुंभ के समय साकार होता है। साधु-संत प्रातःकाल संगम पर स्नान करके कथा कहते हुए ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं।
प्रयागराज की महत्ता वेदों और पुराणों में विस्तार से बताई गई है। एक बार शेषनाग से ऋषिवर ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है? इस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया, जब सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी, उस समय भारत में समस्त तीर्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, फिर भी प्रयागराज का पलड़ा भारी पड़ गया। दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, वहां भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार प्रयागराज की प्रधानता होने से इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा। इस पावन क्षेत्र में दान, पुण्य, कर्म, यज्ञ आदि के साथ-साथ त्रिवेणी संगम का अति महत्व है।

