भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में यह संकल्प निहित है कि राज्य, संपूर्ण भारतीय परिक्षेत्र के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। विचारधारा से प्रेरित भाजपा ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पद पर जोर दिया है।

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यह बात तो समझ में आती है, मगर हम ‘संपूर्ण भारतीय परिक्षेत्र’ और ‘नागरिक’ शब्दों को नजरअंदाज नहीं कर सकते।

प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)

संविधान में यह उद्देश्य निहित है कि प्रत्येक नागरिक को भारत में किसी भी स्थान पर निवास करने या बसने का अधिकार है और नागरिक को सभी स्थानों पर समान नागरिक संहिता द्वारा शासित होना चाहिए। राज्य का दायित्व सभी नागरिकों के लिए उस अधिकार को सुरक्षित करना है। संसद ने मोटे तौर पर उस दायित्व को पूरा किया है- भारत के सभी नागरिक अनुबंधों पर समान कानून लागू है, सीमाओं का प्रबंधन समान कानून से होता है, किसी भी सिविल कोर्ट में समान प्रक्रिया और नागरिकों के जीवन से संबंधित तमाम मामले (आपराधिक मामलों के अलावा) समान कानून द्वारा शासित होते हैं।

पूर्वापेक्षित?

संसद निश्चित रूप से विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे अन्य नागरिक पहलुओं पर कानून बना सकती है। हालांकि, उत्तराखंड राज्य ने जिस तरह से विवाह, तलाक या उत्तराधिकार और विरासत पर कानून बनाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली है, वह उसका दुस्साहस ही कहा जा सकता है। सबसे पहली बात कि उत्तराखंड राज्य यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि उसका बनाया कानून भारत के सभी नागरिकों पर लागू होगा। उत्तराखंड में जन्मे व्यक्तियों के संबंध में भी राज्य का कानून तभी तक लागू होगा, जब तक वह व्यक्ति उत्तराखंड में रहता है या उसका मूलनिवासी है। अगर किसी व्यक्ति को कानून पसंद नहीं है, तो वह अपनी सुविधा से राज्य छोड़ सकता है। उत्तराखंड के दो मूलनिवासी, उत्तराखंड के बाहर आपस में शादी कर सकते हैं। राज्य उन्हें छोड़ने या शादी करने से रोकने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

दूसरी बात, उत्तराखंड यह नहीं मान सकता कि उसका कानून पूरे भारत में, उत्तराखंड में जन्मे व्यक्ति के लिए उपलब्ध या उस पर लागू होगा। अगर ऐसा व्यक्ति उत्तराखंड के बाहर शादी करता, बच्चा गोद लेता या वसीयत पंजीकृत कराता है, तो मौजूदा लागू कानून का सवाल उठेगा। उत्तराखंड के नए लागू कानून का संसदीय कानून के साथ संघर्ष हो सकता है और उस स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया कानून ही मान्य होगा।
उत्तराखंड सरकार ने भले समान नागरिक संहिता बनाई है, मगर हकीकत यही है कि केंद्र सरकार उत्तराखंड के कंधों पर बंदूक रख कर गोली चला रही थी। यह एक परीक्षण था। जैसा कि अपेक्षित था, इस कानून की वजह से एक बहस छिड़ गई है।

यूसीसी के विचार की जांच करने के लिए सक्षम निकाय- इक्कीसवें विधि आयोग- ने 31 अगस्त, 2018 की अपनी रपट में निष्कर्ष दिया था कि ‘इस आयोग ने ऐसे कानूनों से इसलिए निपटने का प्रयास किया है कि ये भेदभावपूर्ण हैं, बजाय एक समान नागरिक संहिता प्रदान करने के, जो इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।’ ऐसा लगता है कि उत्तराखंड का मकसद समाज के बदलते मूल्यों, नैतिकताओं और रीति-रिवाजों के अनुरूप एक प्रगतिशील और उदार कानून बनाना नहीं था। केंद्रीय गृहमंत्री के शब्दों में, इसका उद्देश्य ‘प्रतिगामी व्यक्तिगत कानूनों’ को हटाना था। उत्तराखंड का कानून बहुसंख्यकवाद का दावा करता है।

सुधार?

इस अधिनियम के तीन भाग हैं। पहला भाग (धारा 4 से 48) ‘विवाह और तलाक’ से संबंधित है, दूसरा (धारा 49 से 377) ‘उत्तराधिकार’ से संबंधित है, तीसरा (धारा 378 से 389) ‘सहजीवन संबंधों’ से संबंधित है, और चौथा ‘विविध’ है। भाग एक के कुछ प्रावधान स्वागत योग्य हैं। इसमें द्विविवाह और बहुविवाह निषिद्ध हैं। लड़कियों के लिए विवाह की आयु 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष है। विवाह का पंजीकरण कराना अनिवार्य है।
इसमें कुछ प्रावधान स्पष्ट रूप से असंवैधानिक हैं। यह अधिनियम उत्तराखंड के भीतर या बाहर रहने वाले ‘निवासी’ पर लागू होता है। यह एक अति-व्यापक परिभाषा है, जिसमें (क) उत्तराखंड में कार्यरत (यानी तैनात) केंद्र सरकार के स्थायी कर्मचारी और (ख) ‘केंद्र सरकार’ की किसी योजना के लाभार्थी शामिल हैं। अधिनियम से उत्तराखंड के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन हो सकता है। कुछ प्रावधान विवादास्पद हैं। मसलन, तलाक से संबंधित प्रावधान। कुछ प्रावधान यथास्थितिवादी हैं। व्यक्ति का अर्थ केवल पुरुष या महिला हो सकता है और ‘विवाह’ केवल पुरुष और महिला के बीच ही हो सकता है। कुछ प्रावधान प्रतिगामी हैं। ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली’ की कालभ्रमित राहत को बरकरार रखा गया है।

भाग 3 जो ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ से संबंधित है, वह प्रतिगामी और असंवैधानिक दोनों है। कानून उत्तराखंड के ‘निवासियों’ पर लागू होने का दावा करता है, जिसमें वे भी शामिल हैं, जो उत्तराखंड से ‘बाहर’ रहते हैं, यह विरोधाभास का एक स्पष्ट उदाहरण है। भाग 3 का पूरा का पूरा हिस्सा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता का घोर उल्लंघन करता है, और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया जाएगा। नियम (नियम 15 से 19) इससे भी बदतर हैं। विश्वास करें या न करें, पर वे ‘लिव-इन पार्टनर’ के कर्तव्यों और अधिकारों को निर्धारित करते हैं।

संघर्ष?

कानून का भाग 2 ‘उत्तराधिकार’ से संबंधित है। आगे के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि ‘वसीयत के मुताबिक उत्तराधिकार’ के मामले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की विशेषताओं को मामूली बदलावों के साथ अपनाया गया है और अन्य धार्मिक समुदायों के बीच प्रचलित उत्तराधिकार के किसी भी नियम को छोड़कर कानून में शामिल कर लिया गया है। अधिनियम ‘संपत्ति’ को परिभाषित करता और संपत्ति में ‘समउत्तराधिकारी हित’ को मान्यता देता है, जिसका अर्थ है कि अधिनियम में हिंदू समुदाय की प्रथागत मान्यताओं को स्थगित कर दिया गया है।
‘वसीयत के मुताबिक उत्तराधिकार’ के मामले में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत नियमों को, जैसा कि न्यायालयों द्वारा व्याख्या की गई है, हटा कर उसमें समाहित कर दिया गया है।

कानून की अतिरिक्त-क्षेत्रीय पहुंच, प्रथम दृष्टया, असंवैधानिक होगी। इसके शब्दों और निहितार्थों से स्पष्ट है कि उत्तराखंड कानून ने बहुमत को स्थगित कर दिया और गैर-हिंदू समुदायों के बीच प्रचलित व्यक्तिगत कानूनों की विशेषताओं को दरकिनार कर दिया है। क्या इस कानून ने सुधार या फिर संघर्ष के बीज बोए हैं? यह तो समय ही बताएगा।


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