ज्योतिषीय विश्लेषण: कब है दीपावली?दीपों की दो तिथियाँ: उत्तराखंड में दिवाली परंपरा, पंचांग और पर्व की आत्मा का संगम! खगोल विज्ञान और आस्था का संगम।

Spread the love


भारत की सांस्कृतिक आत्मा उसके पर्वों और परंपराओं में बसती है। दीपावली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि अंधकार पर प्रकाश की, अज्ञान पर ज्ञान की, और अधर्म पर धर्म की विजय का शाश्वत प्रतीक है। इस बार जब देशभर में दीपावली की तिथि को लेकर मतभेद उभरे, तब श्रीकाशी विद्वत परिषद ने धर्मशास्त्र और ज्योतिष के आलोक में जो निर्णय दिया — वह न केवल स्पष्टता प्रदान करने वाला है, बल्कि सनातन परंपरा की वैज्ञानिकता और अनुशासन का भी परिचायक है।

शनिवार को परिषद की ऑनलाइन बैठक में वरिष्ठ विद्वानों ने पंचांगों की तुलना, तिथियों के ग्रह-गणना और शास्त्रीय मतों का अनुशीलन कर यह निर्णायक मत प्रस्तुत किया कि 20 अक्टूबर को ही प्रदोष काल व्यापिनी अमावस्या प्राप्त हो रही है, अतः उसी दिन दीपावली मनाना शास्त्रसम्मत है। यह निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दीपावली के मुख्य कर्म — लक्ष्मी पूजन, उल्का दर्शन और नक्त व्रत पारण — प्रदोष काल में ही संपन्न होने चाहिए, जो इस वर्ष 20 अक्टूबर को ही उपलब्ध है।

प्रो. रामचंद्र पांडेय और प्रो. विनय कुमार पांडेय के तर्क धर्मशास्त्रीय दृढ़ता के साथ यह सिद्ध करते हैं कि पर्वों का निर्धारण केवल कैलेंडर नहीं, बल्कि खगोलीय और धार्मिक संतुलन से होता है। अमावस्या तिथि का आरंभ 20 अक्टूबर को अपराह्न 2:45 बजे और समाप्ति 21 अक्टूबर को 4:15 बजे होने से यह तथ्य भी पुष्ट होता है कि प्रदोष काल 20 तारीख को ही मान्य है।

कभी-कभी आधुनिक पंचांगकार व्यावसायिकता या तकनीकी असावधानी के कारण तिथियों में भ्रम फैलाते हैं। ऐसे में काशी विद्वत परिषद जैसे प्रामाणिक संस्थान ही हमारी आस्था के मार्गदर्शक बनते हैं। यह निर्णय केवल एक तिथि नहीं तय करता, बल्कि यह स्मरण कराता है कि जब समाज शास्त्रसम्मतता से विचलित होता है, तब धर्माचार्य ही दिशा दिखाते हैं।

अतः इस वर्ष दीपों का पर्व उसी दिन मनाया जाए जिस दिन शास्त्र ने निर्धारित किया है — 20 अक्टूबर को। यही धर्म, यही विज्ञान और यही परंपरा का सच्चा समन्वय है। दीप जलाने से पहले हम यह संकल्प लें कि अंधकार केवल बाहर का नहीं, भीतर का भी मिटाना है — और यह कार्य केवल शास्त्र और सत्य के आलोक से ही संभव है।

– अवतार सिंह बिष्ट
संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में जब बात होती है दीपों के महापर्व दीपावली की, तो यह केवल तिथि का नहीं, बल्कि आस्था, खगोलशास्त्र, भूगोल और परंपरा का भी प्रश्न बन जाती है। यही कारण है कि इस वर्ष जहाँ पूरा देश 20 अक्टूबर को दीपावली मनाने जा रहा है, वहीं उत्तराखंड का कुमाऊँ मंडल इस पर्व को एक दिन बाद यानी 21 अक्टूबर को मनाएगा। यह अंतर केवल ‘कैलेंडर का भ्रम’ नहीं, बल्कि पर्वतीय जीवन की विशिष्ट आध्यात्मिक लय और स्थानीय पंचांग परंपरा का प्रतीक है।

लेख – अवतार सिंह बिष्ट, वरिष्ठ संवाददाता, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर) उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी


कुमाऊँ की विशिष्ट परंपरा

उत्तराखंड का कुमाऊँ क्षेत्र पर्वों को लेकर सदियों पुरानी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करता आ रहा है। यहाँ के पर्व, तिथियाँ और उत्सव, मैदानों की तुलना में अक्सर एक दिन बाद मनाए जाते हैं। यह परंपरा केवल लोकरीति नहीं, बल्कि खगोलीय गणना और पर्वतीय समयरेखा (mountain time cycle) पर आधारित है।
स्थानीय ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, कुमाऊँ में रामदत्त पंचांग का अनुसरण किया जाता है, जो ‘निरयण प्रणाली’ पर आधारित है। इसके विपरीत, देश के अधिकांश हिस्सों में ‘सयण प्रणाली’ पर आधारित बनारस पंचांग चलता है।
दोनों प्रणालियों के बीच मुख्य अंतर यह है कि निरयण पद्धति में सूर्य और चंद्र की गति को पृथ्वी के वास्तविक नक्षत्र-सम्बंधित स्थान से मापा जाता है, जबकि सयण प्रणाली में यह गणना भौगोलिक विषुवत वृत्त पर आधारित होती है। इस कारण चंद्र दर्शन, अमावस्या और सूर्योदय के समय में एक दिन तक का अंतर आ जाता है, जिससे पर्वों की तिथि में भिन्नता बनती है।


ज्योतिषीय विश्लेषण: कब है दीपावली?

इस वर्ष देशभर में दीपावली की तिथि को लेकर असमंजस की स्थिति रही। कोई ज्योतिषी 20 अक्टूबर तो कोई 21 अक्टूबर को पूजन का दिन बता रहा था। लेकिन हरिद्वार और ऋषिकेश के तीर्थपुरोहितों ने अब इस भ्रम को दूर कर दिया है।
हरिद्वार के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य मनोज त्रिपाठी के अनुसार, “20 और 21 अक्टूबर दोनों ही दिनों को अमावस्या पड़ रही है, किंतु ग्रह-नक्षत्रों की सटीक गणना के अनुसार सूर्य उदय से सूर्यास्त के बाद भी अमावस्या का तीन-चौथाई भाग 21 अक्टूबर को मिल रहा है। इसलिए गृहस्थों के लिए लक्ष्मी पूजन 21 अक्टूबर को ही श्रेष्ठ और पूर्ण फलदायी रहेगा।”

ऋषिकेश त्रिवेणी संगम के पंडित वेदप्रकाश का भी यही मत है —
“इस बार 21 अक्टूबर को ही दीपावली का पूजन किया जाना चाहिए। इस दिन लक्ष्मी पूजन के साथ दीप प्रज्ज्वलन का समय अधिक शुभ है। जब सूर्य अस्त होगा, तब अमावस्या विद्यमान रहेगी और यही प्रदोषकाल लक्ष्मी पूजन के लिए सर्वोत्तम रहेगा।”


कुमाऊँ क्षेत्र में दिवाली का शुभ मुहूर्त

कुमाऊँ मंडल के ज्योतिषाचार्य प्रतीक मिश्रपुरी के अनुसार, पर्वतीय पंचांग के मुताबिक 21 अक्टूबर को ही गृहस्थों को पूजन करना चाहिए।
उन्होंने बताया कि इस दिन सूर्यास्त (5:40 बजे) के बाद से लेकर रात 8:04 बजे तक पूजन का शुभ समय रहेगा।
इस अवधि में शाम 7:15 से 8:30 बजे तक ‘लाभ चौघड़िया’ का योग बन रहा है, जो लक्ष्मी पूजन के लिए अत्यंत मंगलकारी है।
मिश्रपुरी का कहना है —
“जो लोग गृहस्थ पूजा करते हैं, वे 21 अक्टूबर को लक्ष्मी-गणेश पूजन करें। वहीं जो साधक तंत्र साधना या महालक्ष्मी तंत्र पूजन करते हैं, वे अपने गुरु द्वारा बताए गए विशेष मुहूर्त का पालन करें।”


बदरीनाथ धाम में 20 अक्टूबर को दीपावली

कुमाऊँ और मैदानों के भिन्न पंचांगों के बीच एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि बदरीनाथ धाम में दीपावली पर्व 20 अक्टूबर को ही मनाया जाएगा।
बदरीनाथ के धर्माधिकारी राधाकृष्ण थपलियाल के अनुसार, “धाम में लक्ष्मी, कुबेर और बदरीविशाल भगवान के खजाने की विशेष पूजा 20 अक्टूबर को होगी। मंदिर को फूलों से सजाया जाएगा और श्रद्धालु दीप प्रज्ज्वलन कर अपनी भक्ति अर्पित करेंगे।”
इस परंपरा के पीछे कारण यह है कि बदरीनाथ क्षेत्र के धार्मिक कार्य बीकेटीसी (बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति) द्वारा तय पंचांग के अनुसार चलते हैं, जो मुख्यतः बनारस पंचांग प्रणाली पर आधारित है।


क्यों बनता है यह एक दिन का अंतर?

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में कई बार दिवाली, दशहरा या होली जैसे पर्व मैदानों से एक दिन बाद मनाए जाते हैं।
यह अंतर मुख्यतः तीन कारणों से बनता है —

  1. पंचांग पद्धति का अंतर:
    जैसा कि पहले बताया गया, निरयण और सयण प्रणाली की गणना में 23 अंश 20 मिनट का अंतर होता है, जो एक दिन की तिथि का फर्क उत्पन्न करता है।
  2. भौगोलिक स्थिति:
    हिमालयी क्षेत्रों में सूर्योदय और सूर्यास्त का समय मैदानों की तुलना में भिन्न होता है। जब मैदानों में सूर्य डूब चुका होता है, पहाड़ों में उसका अस्त या उदय विलंब से होता है। इससे प्रदोषकाल का समय परिवर्तित हो जाता है।
  3. स्थानीय परंपरा और लोक आस्था:
    कुमाऊँ में मान्यता है कि “जो पर्व मैदानों में समाप्त होता है, वह पहाड़ों में अगले दिन प्रारंभ होता है।” यह केवल गणना नहीं, बल्कि पर्व की आत्मा को जीवित रखने की लोकरीति है।

धार्मिक और सामाजिक आयाम

दीपावली केवल लक्ष्मी पूजन का पर्व नहीं, बल्कि यह अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर न्याय और नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय का प्रतीक है।
कुमाऊँ में दिवाली के साथ-साथ भाई टीका, भैतुला, गोवर्धन पूजा और देवध्वज विसर्जन जैसी लोक परंपराएँ जुड़ी हैं।
ग्रामीण इलाकों में महिलाएँ घरों की चौखटों पर आल्पना बनाती हैं, जबकि पुरुष दीपों से खलिहानों और गौशालाओं को सजाते हैं।


तीर्थ पुरोहितों की एकजुट राय

हरिद्वार और ऋषिकेश के तीर्थपुरोहितों ने स्पष्ट किया है कि दिवाली 21 अक्टूबर को मनाई जाएगी, इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए।
हरिद्वार के पंडित उज्ज्वल शर्मा कहते हैं —
“21 अक्टूबर को दिवाली शुभ फलदायी रहेगी। सूर्यास्त के बाद 2 घंटे 24 मिनट का पूजन समय मिल रहा है, जो ग्रह-नक्षत्रों के अनुसार अत्यंत श्रेष्ठ है। गृहस्थ लोग इसी दिन पूजन करें।”


खगोल विज्ञान और आस्था का संगम

आधुनिक विज्ञान जहां इसे पृथ्वी-चंद्र-सूर्य की गतियों से जोड़ता है, वहीं आस्था इसे “अंधकार से ज्योति की यात्रा” मानती है।
दरअसल, खगोलीय दृष्टि से दीपावली कार्तिक अमावस्या को मनाई जाती है, जब सूर्य तुला राशि में और चंद्रमा तुला नक्षत्र में स्थित होता है।
यह स्थिति हर वर्ष समान नहीं होती, इसलिए पर्व की तिथि हर बार बदलती रहती है।


कुमाऊँ की दीपावली की लोकछटा

कुमाऊँ में दीपावली को “सूवाली” या “बीतूली” भी कहा जाता है। यहाँ दीप जलाने के साथ-साथ लोग अपने पशुओं, औजारों, खेतों और बीजों की भी पूजा करते हैं।
ग्राम देवताओं की आरण्य परिक्रमा और घर-आँगन में घी के दीपक जलाना इस पर्व का अनिवार्य हिस्सा है।
कई गाँवों में दीवाली नाच और झोड़ा-छपेली का आयोजन होता है, जो सामुदायिक एकता का प्रतीक है।


भले ही पंचांगों की गणना में तिथियों का अंतर हो, लेकिन दीपावली का भाव हर हृदय में एक ही रहता है — अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा
उत्तराखंड में चाहे 20 अक्टूबर को बदरीनाथ में दीप जलें या 21 अक्टूबर को कुमाऊँ की घाटियों में, यह पर्व हर घर में आशा, समृद्धि और आध्यात्मिक ज्योति का संचार करेगा।
दीपों की यह दो तिथियाँ वास्तव में पर्वतीय भारत की आध्यात्मिक विविधता और सांस्कृतिक जीवंतता का प्रतीक हैं।


(लेख – अवतार सिंह बिष्ट, वरिष्ठ संवाददाता, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर) उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी

अंत में यही कहना उचित होगा —

तिथि चाहे कोई भी हो, जब मन में श्रद्धा का दीप जले,
वहीं से शुरू होती है सच्ची दीपावली।



Spread the love