देश में जनगणना लंबे समय से लंबित है। सरकार अब इसकी योजना बना रही है। विपक्षी दलों ने जाति के आधार पर जनगणना कराने की मांग उठाई है। धीरे-धीरे यह बड़ा मुद्दा बन गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इसकी आवश्यकता जताई है।

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   सरकार ने संकेत दिया है कि इस मुद्दे पर काम हो रहा है। वर्ष 2011 में जनगणना कराई गई थी। तब से अब तक उसी समय के आंकड़ों से ही काम चलाने की मजबूरी है। हालांकि, उन आंकड़ों को सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के पलड़े में अप्रभावी, अधूरी और खराब प्रकृति का माना गया।

हिंदुस्तान Global Times/print media,शैल ग्लोबल टाइम्स,अवतार सिंह बिष्ट, रुद्रपुर

जनगणना के आंकड़ें संवेदनशील माने जाते हैं और इनका व्यापक असर होता है। खाद्य सुरक्षा, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन जैसी कई योजनाएं इनपर निर्भर होती हैं। आंकड़ों का उपयोग सरकारों के साथ उद्योग जगत और शोध संस्थाएं भी करती हैं। बदलते समय के साथ देश के सामने नई चुनौतियां हैं, जिन्हें लेकर नीति निर्धारण की जरूरत है।ऐसे में जरूरी है कि जनगणना को लेकर सरकार महापंजीयक और अन्य एजंसियों के लिए नए मानक दिशानिर्देश तैयार करे।

जून 2024 तक 233 देशों में से भारत उन 44 देशों में से एक था जिन्होंने इस दशक में जनगणना नहीं की थी। सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी के कारण यह कवायद नहीं की गई। हालांकि, 143 अन्य देशों ने इस काल में ही मार्च 2020 के बाद जनगणना की। संघर्ष, आर्थिक संकट एवं उथल-पुथल से प्रभावित यमन, सीरिया, अफगानिस्तान, म्यांमा, यूक्रेन, श्रीलंका और उप-सहारा अफ्रीका जैसे देशों ने जनगणना नहीं कराई।

जनगणना में देरी को लेकर उठ रहे सवाल

भारत में इस कवायद में देरी को लेकर सवाल उठे। यह तथ्य है कि वर्ष 1881 से 2011 तक बिना किसी बाधा के भारत में जनगणना कराई गई। सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) पहली बार वर्ष 1931 में कराई गई थी। इसका उद्देश्य अभाव के संकेतकों की पहचान करने के लिए ग्रामीण और शहरी- दोनों क्षेत्रों में भारतीय परिवारों की आर्थिक स्थिति के बारे में सूचनाएं जमा करना था। एसईसीसी में संग्रहित जानकारी सरकार द्वारा परिवारों को लाभ देने या लाभ से वंचित करने में फैसले के लिए आधार बनती है।

बहरहाल, जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर बहस जारी है। देश के कई हिस्सों में अभी भी जाति-आधारित भेदभाव है। ऐसे में विभिन्न जाति समूहों के वितरण को समझकर, सामाजिक असमानता को दूर करने और हाशिये पर रह रहे समुदायों के लिए लक्षित नीतियां बनाई जा सकती हैं। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि जाति-आधारित भेदभाव बढ़ सकता है, जाति व्यवस्था के सबल होने की आशंका है। इसे रोकने के लिए जातिगत पहचान की जगह सभी नागरिकों के लिए व्यक्तिगत अधिकारों और समान अवसरों पर ध्यान केंद्रित करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

जातियों को परिभाषित करना जटिल मुद्दा

भारत में जातियों को परिभाषित करना जटिल मुद्दा है, क्योंकि यहां हजारों जातियां और उपजातियां हैं। जरूरी यह है कि मुद्दों में न उलझते हुए नीति निर्धारण पर ध्यान दिया जाए। निश्चित समय सीमा तय की जाए। जनगणना एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है। पहले ही काफी देर हो चुकी है। अब और देर उचित नहीं।


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