
मोपटा देवाल थराली देवभूमि उत्तराखंड एक बार फिर कुदरत के कहर से कराह उठी है। चमोली जिले के देवाल ब्लॉक के मोपटा (ममता) गांव में बीती रात बादल फटने से दो मकान मलबे में दब गए। तारा सिंह और उनकी पत्नी लापता बताए जा रहे हैं, जबकि विक्रम सिंह और उनकी पत्नी घायल हैं। गोशाला दबने से 15 से 20 मवेशियों की मौत हो गई। यह दृश्य इतना भयावह था कि गांव वालों ने कहा – “ऐसा लगा मानो बम फटा हो।”


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)
यह त्रासदी केवल दो परिवारों की नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र की पीड़ा है। जिन मकानों में पीढ़ियों की कमाई और यादें बसी थीं, वे चंद पलों में मलबे में बदल गए। खेत-खलिहान, पशुधन और लोगों की रोज़ी-रोटी सब एक झटके में छिन गई। महिलाएं बच्चों को सीने से लगाए रो रही हैं और बुजुर्ग अपनी टूटी गोशालाओं को देख निराशा में डूब गए हैं।
सवाल यह है कि जिला प्रशासन हर साल होने वाली इन आपदाओं से कब सबक लेगा? आपदा राहत दल मौके पर तो पहुंचते हैं, परंतु राहत और मुआवजा नाम मात्र का होता है। पहाड़ खोदने और नदियों से छेड़छाड़ की सज़ा निर्दोष ग्रामीण क्यों भुगतें?
आज मोपटा की त्रासदी प्रशासन को यह आईना दिखा रही है कि अब वक्त केवल संवेदना जताने का नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाने का है। अगर पहाड़ को बचाना है, तो कुदरत से खिलवाड़ बंद करना होगा और पीड़ित परिवारों को वास्तविक मदद पहुंचानी होगी।
लिंगंडी बोरा गाढ़ से मोहिनी बिष्ट संपादक print news शैल ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट
उत्तराखंड में बादल फटने की तबाही – देवभूमि पर बार-बार कुदरत का कहर?चमोली जिले का नाम अब बार-बार आपदा की खबरों के साथ जुड़ने लगा है। कभी जो यह इलाका नंदा देवी की पवित्र घाटी और पिंडर घाटी की खूबसूरती के लिए जाना जाता था, आज वही इलाका बादल फटने, भूस्खलन और सैलाब की कहानियों से दहशत में जी रहा है। 22 अगस्त की आधी रात को थराली में और उसके कुछ दिनों बाद देवाल ब्लॉक के मोपटा गांव में बादल फटने की घटनाओं ने न केवल गांवों को तबाह किया बल्कि यह सवाल भी खड़ा कर दिया कि आखिर कुदरत का इतना गुस्सा क्यों झेल रहा है उत्तराखंड?
थराली: आधी रात का बम धमाका?22 अगस्त की रात, थराली के लोग रोज़ की तरह अपने घरों में सोए थे। बारिश शाम से ही हो रही थी, लेकिन किसे पता था कि यह रात उनकी ज़िंदगी की सबसे डरावनी रात बनने वाली है। आधी रात करीब साढ़े 12 बजे अचानक तेज धमाके जैसी आवाज आई। ऐसा लगा मानो बम फटा हो। देखते ही देखते मलबे और पानी का सैलाब कस्बे में घुस गया।
रंजीत भंडारी बताते हैं –
“अगर पड़ोस में रहने वाले वकील साहब जय सिंह बिष्ट समय पर आवाज़ न देते, तो हम सब बह जाते। हम गहरी नींद में थे। अचानक चिल्लाने की आवाज़ आई – भागो, पानी आ गया! तभी जान बची।”
टुनरी गांव से आए फोन ने कई लोगों को पहले ही सचेत कर दिया था। वरना थराली के लोग सिर्फ दो मिनट में बह जाते। मकान, दुकान, गोशालाएं – सब मलबे में तब्दील हो गए। लोगों की जीवनभर की कमाई एक रात में मिट्टी हो गई।
मोपटा (देवाल): पति-पत्नी लापता, 20 मवेशी दबे?थराली के कुछ दिन बाद देवाल ब्लॉक का मोपटा गांव त्रासदी की नई कहानी लेकर आया। यहां बादल फटने से दो मकान पूरी तरह ध्वस्त हो गए। तारा सिंह और उनकी पत्नी मलबे में दबकर लापता हो गए। विक्रम सिंह और उनकी पत्नी घायल हैं। गोशाला ढहने से 15–20 मवेशी भी दब गए।
ग्रामीण विमला राणा कहती हैं –
“हमारी गोशालाएं, जानवर, खेत – सब कुछ खत्म हो गया। सरकार नाम मात्र की मदद देती है। जो खोया है, वह कभी लौट नहीं सकता।”
स्थानीय लोग कहते हैं कि उन्होंने इस तरह की बारिश पहले कभी नहीं देखी। पहाड़ का संतुलन बिगड़ चुका है। नदियां अपना रास्ता बदल रही हैं और गांव के गांव खतरे में हैं।
सरकारी राहत बनाम हकीकत?मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने घटना पर दुख जताते हुए कहा कि राहत दल मौके पर भेजे गए हैं। जिलाधिकारी संदीप तिवारी लगातार स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि राहत कार्य धीमे हैं और संसाधन पर्याप्त नहीं।
आपदा पीड़ितों का आरोप है कि अधिकारियों की टीमें केवल फोटो खिंचवाने और रिपोर्ट बनाने आती हैं। वास्तविक मुआवजा इतना कम होता है कि उससे दोबारा मकान बनाना तो दूर, टूटी छत भी नहीं सुधर सकती।
पहाड़ खोदने की राजनीति और आपदा?विशेषज्ञ मानते हैं कि बादल फटने जैसी घटनाएं सिर्फ प्राकृतिक नहीं हैं। इंसानी छेड़छाड़ ने इन्हें और भयावह बना दिया है।
- पहाड़ों को ठेकेदारों द्वारा अंधाधुंध खोदा जा रहा है।
- सीमेंट के बड़े-बड़े ढांचे नदियों के बहाव को रोक रहे हैं।
- जंगलों की कटाई और कंक्रीट का फैलाव बारिश के पानी को रोक नहीं पा रहा।
स्थानीय लोग कहते हैं कि बिहार और गुजरात के ठेकेदार यहां प्रोजेक्ट बनाकर पहाड़ का सीना छलनी कर रहे हैं। सड़कों और हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के नाम पर पहाड़ को खोदने का नतीजा अब बादल फटने, भूस्खलन और सैलाब के रूप में सामने आ रहा है।
पीड़ितों की बेबसी?आपदा से प्रभावित परिवारों के चेहरे पर सिर्फ आंसू हैं। कोई अपने घर की नींव ढूंढ रहा है, कोई अपनी गाय-भैंसों के शव निकाल रहा है। जिनकी दुकानें बह गईं, उनके सामने रोज़गार का संकट है। जिनके खेत बह गए, उनके सामने रोटी का संकट है। और जिनके परिवारजन चले गए, उनके सामने जीवन का ही संकट है।
थराली की एक महिला कहती हैं –
“हमारी पूरी कमाई इसी घर और दुकान में लगी थी। सब कुछ बह गया। सरकार पांच-दस लाख दे भी दे तो क्या? हमारे सपने, हमारी मेहनत, हमारी यादें – सब मलबे में दफन हो गईं।”
उत्तराखंड को आपदा राज्य बनने से बचाना होगा?उत्तराखंड की यह कहानी नई नहीं है। हर साल सैकड़ों गांव आपदाओं की चपेट में आते हैं। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी हमने सबक नहीं लिया। आज भी नीतियां कागजों में हैं और ठेकेदारों के बुलडोजर पहाड़ों को तोड़ रहे हैं।देवभूमि को बचाने के लिए जरूरी है ठोस आपदा प्रबंधन नीति
- पहाड़ खोदने और अंधाधुंध प्रोजेक्ट्स पर रोक
- स्थानीय युवाओं को आपदा प्रबंधन में प्रशिक्षित करना
दिवंगत आत्माओं को श्रद्धांजलि और मां नंदा देवी से यही प्रार्थना कि वह अपने आशीर्वाद से उत्तराखंड को सुरक्षित रखें।

