मुक्तिधाम… एक ऐसा स्थान जहाँ न कोई बड़ा होता है, न छोटा। न अमीर रहता है, न गरीब। यहाँ आने वाला हर मनुष्य समान होता है—केवल एक देह से मुक्त होने वाली आत्मा का वाहक। आज जब मैं रुद्रपुर के मुक्तिधाम में एक अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने आया, तो हवा में एक अलौकिक मौन महसूस हुआ—एक ऐसा मौन जो शब्दों से परे है, किंतु आत्मा को झकझोर देने वाला है।


यह श्मशान घाट केवल चिताओं की अग्नि से जलता हुआ कोई स्थान नहीं है, यह जीवन के सबसे बड़े सत्य—मृत्यु—का साक्षात अनुभव है। यह स्थान हमें बार-बार यह याद दिलाता है कि “जो आया है, वह जाएगा”, और यही नश्वरता हमें जीवित रहते हुए कुछ बेहतर करने की प्रेरणा देती है।
जीवन की आपाधापी में खो जाता है मृत्यु का बोध
हम रोज़ सुबह उठते हैं, भागते हैं, कमाते हैं, झगड़ते हैं, सपने बुनते हैं और कभी-कभी दूसरों को चोट भी पहुंचाते हैं। हमें लगता है कि समय हमारे पास बहुत है। लेकिन मुक्तिधाम की हर चिता, हर राख यही कहती है—“समय सीमित है, चेत जाओ।”
यहां हर अग्नि एक संदेश देती है—“तू कुछ भी लेकर नहीं जाएगा, बस अपने कर्म छोड़ जाएगा।”
श्मशान घाट: एक महान गुरु
भारतीय संस्कृति में श्मशान घाट को गुरु की तरह माना गया है, क्योंकि यह अंततः सबक देता है। यहाँ आकर अहंकार टूटता है, क्रोध शांत होता है, और मोह की जंजीरें कमजोर पड़ती हैं। जो व्यक्ति किसी प्रियजन की अंतिम यात्रा में शामिल होता है, वह भीतर से एक बार ज़रूर हिलता है—वह सोचता है कि क्या मेरे जीवन का कोई अर्थ है?
यह क्षण, यह भाव, यही आत्मबोध है।
मृत्यु अंत नहीं, मुक्ति है
सनातन दर्शन मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि एक नये प्रारंभ के रूप में देखता है—एक शरीर का त्याग, लेकिन आत्मा की यात्रा का विस्तार। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“न जायते म्रियते वा कदाचित्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः”
(यह आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है, न यह उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है।)
मुक्तिधाम हमें यही सिखाता है—मृत्यु डरावनी नहीं है, वह मुक्ति है।
अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाएं
आज जब मैं मुक्तिधाम की राख में विलीन होती चिताओं को देख रहा था, मन ने एक ही प्रश्न किया—“क्या मैं अभी भी मोह में बंधा हूं?”
हम अपने रिश्तों में, संपत्तियों में, पहचान में इतने उलझ जाते हैं कि मृत्यु का स्मरण तक नहीं रखते। लेकिन सच्चा धर्म यह है कि हम हर दिन को अंतिम दिन मानकर जिएं, विनम्र रहें, परोपकारी बनें, और अपने कर्मों से इस संसार को थोड़ा बेहतर बना दें।
एक अपील—श्मशान की याद घर तक लाएं
श्मशान में आने से बड़ा धर्म है श्मशान की भावना को जीवित रखना। वहाँ से लौटते वक्त अपने भीतर के क्रोध, ईर्ष्या, लालच, और द्वेष की चिता भी जला दें।
अगर हर मनुष्य हर सप्ताह एक बार श्मशान जाकर ध्यान करे, तो शायद समाज में अपराध, पाखंड, और भ्रष्टाचार स्वयं खत्म हो जाएं।
अंततः—जो गया, वह चला गया। जो बचा है, वह ‘जीवन’ है।
इस जीवन को समझदारी से जिएं। अपनों को प्रेम दें, क्षमा करें, और ज़रूरतमंदों के लिए कुछ करें। क्योंकि जब अंतिम चिता जलती है।तब कोई पूछता नहीं-“उसने कितना कमाया?”, बल्कि याद करता है – “उसने कितना प्रेम बांटा?”
▲ “मुक्तिधाम से लौटते समय यह प्रण लें – मैं मरने से पहले, सच में ‘जी’ जाऊं।”

