उत्तराखंड का धराली कस्बा आज चार दिन से मलबे, टूटे रास्तों और टूटी उम्मीदों के बीच सिसक रहा है। खीरगंगा नदी के उफान से आई इस आपदा में तबाही का आलम इतना बड़ा है कि मलबा धराली बाजार में 40 से 50 फीट तक जम गया है, रास्ते टूट चुके हैं और रेस्क्यू टीम को हर कदम पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है। थर्मल इमेजिंग, विक्टिम लोकेटिंग कैमरे और स्नाइफर डॉग्स—सब जुटे हैं, लेकिन एक-एक जिंदगी तक पहुंच पाना अब भी पहाड़ जैसा मुश्किल काम है।।✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर (उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी)


पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस त्रासदी में कितने लोग गए? यह सवाल केवल मीडिया का नहीं, बल्कि उन परिवारों का है जिनके घर के चिराग इस मलबे में कहीं खो गए हैं। हादसे के दिन 5 अगस्त को जिलाधिकारी ने 4 मौतों की पुष्टि की, 6 अगस्त को आपदा नियंत्रण केंद्र ने यह संख्या 2 कर दी, और अब 9 अगस्त को यह आंकड़ा आधिकारिक रूप से मात्र 1 पर आ गया। यह कैसे हुआ? क्या बाकी मौतें अचानक से ‘जीवित’ हो गईं या आंकड़े बस सरकारी फाइलों में बदल गए?
स्थानीय लोगों, सोशल मीडिया पोस्टों और प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो तस्वीर सरकारी दावों से कहीं अलग है। चर्चा है कि सेना के कुछ जवान लापता हैं, एक पुराने दोस्तों का समूह गायब है, और मजदूरों की संख्या 50 से ऊपर हो सकती है। कुछ लोगों के अनुसार, 100 से 150 तक लोग इस आपदा में लापता हैं। लेकिन जिला प्रशासन इन सवालों पर चुप है—न मृतकों का सही आंकड़ा, न लापता लोगों की सटीक सूची।
सियासत और मीडिया की सेंसरशिप
धराली की त्रासदी ने सिर्फ प्राकृतिक आपदा का नहीं, बल्कि राजनीतिक मंशा और मीडिया की स्वतंत्रता का भी चेहरा उजागर किया है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा का आरोप है कि उन्हें और जुझारू पत्रकारों को लैम्चागाड़ से आगे नहीं जाने दिया गया, जबकि सरकार के ‘चेहते’ पत्रकारों को हेलीकॉप्टर से धराली भेजा गया, ताकि उनकी रिपोर्टें सरकार के मनचाहे रंग में रंगी रहें। यह आरोप केवल एक नेता की नाराजगी नहीं, बल्कि उस ‘कंट्रोल्ड नैरेटिव’ की गवाही है, जिसमें त्रासदी के असली रूप को जनता तक पहुंचने से रोका जाता है।
पत्रकारों की सोशल मीडिया पोस्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि ग्राउंड जीरो तक पहुंचना आसान नहीं था—किसी ने 30-35 किलोमीटर पैदल चलकर रिपोर्टिंग की, तो किसी ने लकड़ी की बल्लियों पर संतुलन बनाकर गदेरे को पार किया। लेकिन सवाल उठता है—क्या सरकार को सिर्फ वही तस्वीरें चाहिए जो उसके लिए सुविधाजनक हों?
सरकारी घोषणाएं और जनता के सवाल
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 6 महीने का राशन और 5 लाख रुपये की सहायता का ऐलान किया है, साथ ही पुनर्वास के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन भी किया गया है। यह कदम स्वागतयोग्य हैं, लेकिन क्या मुआवजा, राशन और समितियां उन सवालों का जवाब हैं जो अब भी हवा में तैर रहे हैं?
धराली की त्रासदी सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि सरकारी पारदर्शिता और सूचना अधिकार की भी परीक्षा है। इस राज्य और देश के लोगों को यह जानने का अधिकार है कि आखिर कितनी जिंदगियां इस मलबे के नीचे दब गईं। यह संख्या सिर्फ आंकड़ा नहीं—यह उन मांओं की गोद है जो सूनी हो गईं, उन बच्चों का बचपन है जो अनाथ हो गए, और उन घरों की रौनक है जो सदा के लिए बुझ गई।
हम आंकड़ों पर बहस नहीं करना चाहते, लेकिन उन सभी परिवारों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हैं जिन्होंने इस आपदा में अपने प्रियजनों को खो दिया। प्रकृति की मार को कोई नहीं रोक सकता, लेकिन सच छुपाना, मौतों को आंकड़ों के खेल में बदलना—यह एक और त्रासदी है, जिसे हम खुद बना रहे हैं।

