
उत्तराखंड सरकार जंगलों में लगी आग को नियंत्रित करने के लिए रूसी तकनीक से बनी बांबी बकेट का इस्तेमाल कर रही है। मुख्य वन संरक्षक एवं हरिद्वार और देहरादून में आग को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए नोडल अधिकारी डॉ पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि उत्तराखंड के जंगलों की आग को नियंत्रित करने के लिए एयरफोर्स के हेलिकॉप्टर की मदद से बांबी बकेट के जरिए पानी का छिड़काव किया जा रहा है। वहीं सभी जिलाधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि जरूरत के मुताबिक इन हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल करें। ये हेलिकॉप्टर भीमताल या नैनीताल झील से पानी लेकर जंगलों में लगी आग पर डालते हैं। वहीं जंगलों की आग को बुझाने के लिए काउंटर फायर तकनीक काफी कारगर साबित हो रही है। इसमें हम जंगल के जिस हिस्से में आग बढ़ रही हो उसके आगे के कुछ हिस्से में आग लगा कर वहां किसी भी तरह के ज्वलनशील पत्तियों या अन्य चीजों को समाप्त कर देते हैं। ऐसे में जब कोई ज्वलनशील चीज नहीं मिलती है तो आग अपने आप नियंत्रित हो जाती है।


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/ संवाददाता भूपेंद्र सिंह अधिकारी, ०, आवास विकास, पोस्ट भोटिया पडाव, हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड –
जंगल की आग ग्लेशियर को पहुंचा रही नुकसान
जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इंवायरमेंट के वैज्ञानिक और सेंटर फॉर इंवॉयरमेंटल एसेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज के डॉक्टर जेसी कुनियाल कहते हैं कि जंगलों की आग से हवा में ब्लैक कार्बन तेजी से बढ़ा है। ब्लैक कार्बन गर्मी को सोखता है। इससे गर्मी बढ़ती है। ऐसे में गर्मी बढ़ने और शुष्क हवा से आग लगने का खतरा बढ़ जाता है। जंगलों में लगने वाली आग से पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचता है। जंगलों की आग के चलते कार्बन के कण उड़ कर ग्लेशियर तक पहुंच जाते हैं। इनके चलते ग्लेशियर तेजी से गलने लगते हैं।
वहीं दक्षिण कोरिया में जंगलों में लगी आग में लगभग 18 लोगों की मौत हो गई। इस आग ने लगभग 27 हजार से अधिक लोगों को बेघर कर दिया। इसी तरह भारत में उत्तराखंड के अल्मोड़ा स्थित सिटोली के जंगलों में लगी आग से हड़कंप मच गया। हालांकि कड़ी मशक्कत के बाद इस आग पर काबू कर लिया गया। साइंस डायरेक्टर में छपी एक रिसर्च के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते पिछले दो दशकों में जंगलों की आग लगने की घटनाओं में दस गुना की बढ़ोतरी हुई है।
भारत में जंगल की आग आज एक गंभीर चिंता का विषय है। मध्य प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रों में सूखे मौसम के चलते यहां जंगलों में आग के मामले तेजी से बढ़े हैं। वहीं उत्तराखंड में भी बढ़ती गर्मी के चलते जंगलों की आग के मामलों में इजाफा हुआ है। ये आग, मुख्य रूप से अप्रैल और मई में सामने आती हैं। मिट्टी में नमी कम होने और तेज गर्मी के चलते आग के मामले तेजी से बढ़ते हैं। साइंस डायरेक्टर में छपी रिपोर्ट के मुताबिक मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेज स्पेक्ट्रोमीटर के आंकड़ों से पता चलता है कि मध्य और पूर्व-मध्य भारत में जंगल की आग की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। वहीं हिमालय में चीड़ के जंगलों को भी बढ़ती गर्मी के चलते खतरा बढ़ा है।
जंगल की आग से न केवल अल्पकालिक खतरा होता है बल्कि इसके दीर्घकालिक पारिस्थितिक और आर्थिक प्रभाव भी होते हैं जो हानिकारक होते हैं। जंगल की आग प्राकृतिक परिस्थितियों या मानवीय प्रभावों का परिणाम होती है, ऐसे कारक जो अक्सर एक-दूसरे को ओवरलैप करते हैं और ऐसी स्थितियाँ पैदा करते हैं जो जंगल की आग को अनियंत्रित गति से भड़काने और बेकाबू तरीके से फैलने का कारण बनती हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में, जहां वन पारिस्थितिकी तंत्र और स्थानीय लोगों की आजीविका का अभिन्न अंग हैं।
विकराल आग से जल रहे हैं उत्तराखंड के जंगल
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल साइंस के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती गर्मी के चलते पिछले एक दशक में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग के मामले में 47 गुना तक की बढ़ोतरी हुई है। वहीं जलवायु परिवर्तन के चलते जंगलों में आग लगने की घटनाओं में पूरी दुनिया में बढ़ोतरी हुई है। आने वाले दिनों में बढ़ती गर्मी के साथ ही इस तरह आग लगने की घटनाओं में इजाफा देखा जा सकता है।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल साइंस के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक उत्तराखंड में जंगलों में आग लगने के 2002 में लगभग 922 मामले दर्ज किए गए थे। वहीं 2019 में आग लगने के लगभग 41600 मामले दर्ज किए गए। इस अध्ययन में शामिल जेएनयू के स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल साइंस की प्रोफेसर ऊषा मीना कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं। रिमोट सेंसिंस के जरिए लिए गए आंकड़ों में आग लगने की घटनाओं का बढ़ना साफ तौर पर देखा जा सकता हैं। दरअसल उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बड़ी संख्या में हैं। चीड़ की पत्तियां गर्मियों में बेहद ज्वलनशील हो जाती हैं। मौसम में बदलाव के चलते चीड़ की पत्तियों के झड़ने के समय में भी बदलाव आया है। वहीं दूसरी तरफ बढ़ती गर्मी के चलते इन पत्तियों में नमी की मात्रा बेहद कम हो जाती है। ऐसे में ये काफी ज्वलनशील हो जाती हैं। ऐसे में एक छोटी सी लापरवाही से आग लगने की घटना बड़ी जंगल की आग में कुछ ही घंटों में तब्दील हो जाती है। आने वाले दिनों में अगर गर्मी में और बढ़ोतरी होती है तो आग लगने की घटनाओं में भी बढ़ोतरी होगी।
कई प्राकृतिक वजहों से बढ़ी जंगल की आग
जंगल में आग लगने के कई प्राकृतिक कारण हैं। जब बिजली अत्यधिक गर्मी के कारण सूखी वनस्पतियों पर गिरती है, तो आग लग जाती है, जिसके परिणामस्वरूप बहुत अधिक गर्मी पैदा होती है, जिससे जंगल में आग लग जाती है। अगर परिस्थितियां अनुकूल हो जाती हैं, तो यह बड़े पैमाने पर जंगल में आग लगा सकती है। इस तरह की आग उन क्षेत्रों में लगती है, जहां अक्सर गरज के साथ बारिश होती है और सूखा रहता है। मानव द्वारा प्रेरित आग के विपरीत, अगर परिस्थितियां सही हों, तो प्राकृतिक आग से बड़े पैमाने पर जंगल में आग लग सकती है।
तेजी से बढ़ती मानव गतिविधियों से भी बढ़ी आग
जंगल में आग लगने का सबसे बड़ा कारण इंसानों की लापरवाही रही है। ज़्यादातर आग सुलगती सिगरेट फेंकने, छोड़े गए कैम्पफ़ायर और जलते हुए कचरे के कारण लगती है। दूसरा कारण कृषि अवशेष जलाना है। पहाड़ों में किसान ज़मीन पर पड़ी पेड़ों की पत्तियों को जला देते हैं ताकि वे उसका इस्तेमाल कर सकें। जंगली जानवरों को भगाने के लिए ग्रामीणों द्वारा आग का इस्तेमाल करना भी इंसानों द्वारा पैदा किया जाने वाला एक और कारण है। इंसानों द्वारा लगाई गई आग से पता चलता है कि लोगों को जंगलों में और उसके आस-पास ज़्यादा ज़िम्मेदारी से पेश आने के लिए जागरूकता, शिक्षा और सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए।
हिमाचल प्रदेश में वानिकी प्रथाएं
यह जंगल की आग के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने में सहायक रहा है। मुख्य रूप से व्यावसायिक लाभ के लिए बांज ओक के जंगलों को चीड़ के पेड़ों में बदल दिया गया है, जिससे जंगल की आग के प्रति संवेदनशीलता बढ़ गई है। बांज ओक के बिल्कुल विपरीत, चीड़ के पेड़ों की रालयुक्त प्रकृति और ज्वलनशील पत्तियों ने जंगलों को आग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। 1910 से 1920 के बीच राल के लिए चीड़ के पेड़ों की संख्या में भारी वृद्धि हुई, जिससे हिमाचल के जंगल आग के प्रति और भी अधिक संवेदनशील हो गए। जानबूझकर आग लगाना जंगल की आग का एक और महत्वपूर्ण कारण है। आगजनी न केवल तत्काल विनाश करती है बल्कि समुदायों, वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए बहुत गंभीर खतरा भी पैदा करती है। जानबूझकर आग लगाने से विनाशकारी प्रभाव पड़ते हैं जिससे जान, संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान होता है।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग
वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण जंगलों में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। उच्च तापमान, लंबे समय तक सूखा रहना और नमी में कमी के कारण ऐसा वातावरण बनता है जिसमें वनस्पतियां अत्यधिक ज्वलनशील हो जाती हैं। जलवायु पैटर्न में परिवर्तन के कारण जंगलों में आसानी से आग लग जाती है और आग तेजी से फैलती है, जिससे नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
तेजी से बढ़ रहे आग लगने के मामले
भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की ओर से सेटेलाइट की ओर से ली गई तस्वीरों के आधार पर किए गए किए गए अध्ययन में पाया गया कि 2023 में 1 मार्च से 12 मार्च के बीच जंगल में आग लगने के लगभग 42,799 मामलों का पता चला। 2022 में इस दौरान आग लगने के लगभग 19,929 मामले दर्ज किए गए थे।
जंगलों में आग लगने की दो बड़ी वजहें हैं। पहली वजह है क्लाइमेट चेंज या जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम शुष्क हो रहा है। हवा में नमी कम हो रही है। यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के प्रभारी वैज्ञानिक और पर्यावरणविद डॉ. फैयाज खुदसर कहते हैं कि शुष्क मौसम में जंगल में आग तेजी से लगती है। वहीं दूसरी तरफ जंगलों की वनस्पतियों के साथ छेड़छाड़ भी आग लगने का बड़ा कारण है। पहाड़ों में पहले देवदार के जंगल होते थे। उनकी जगह अब चीड़ के पेड़ों ने ले ली है। चीड़ की पत्तियों में काफी तेजी से आग लगती है। वहीं जंगल में दूर दूर तक चीड़ की पत्तियों के बिखरे होने के कारण आग तेजी से दूर तक फैल जाती है। ऐसे में जंगल में आग को रोकने के लिए वहां की स्थानीय पेड़ों को बढ़ाने की जरूरत है।
क्या होता है बांबी बकेट
भारतीय वायु सेना के MI 17 V5 हेलीकॉप्टर के जरिए उत्तराखंड के नैनीताल ज़िले में लगी आग को बुझाने के लिए बांबी बकेट का इस्तेमाल किया जा रहा है। बांबी बकेट एक हवाई अग्निशमन उपकरण है जिसका इस्तेमाल हेलीकॉप्टर से आग बुझाने के लिए किया जाता है। यह एक हल्का कंटेनर होता है जो हेलीकॉप्टर के नीचे से आग बुझाने के लिए निश्चित क्षेत्र में पानी छोड़ता है। बांबी बकेट के जरिए पायलट नियंत्रित तौर पर पानी का छिड़काव करता है। बांबी बकेट कई आकारों में उपलब्ध होती है। चिनूक हेलिकॉप्टर में में 2,600 गैलन (9,842 लीटर) क्षमता वाली बांबी बकेट लगाई जा सकती है।
भारत में संभव नहीं है कैमिकल की बारिश
पश्चिमी देशों में जंगलों में आग को नियंत्रित करने के लिए हवाई जहाज से कैमिकल की बारिश की जाती है। ये कैमिकल आग को बुझा देता है। मुख्य वन संरक्षक एवं हरिद्वार और देहरादून में आग को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए नोडल अधिकारी डॉ पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि भारत में इस तरह के कैमिकल की बारिश संभव नहीं है। पश्चिमी देशों में जंगल कई किलोमीटर में होते हैं और उनमें इंसान नहीं रहते हैं। उत्तराखंड में जंगलों में और उनके आसपास बड़ी संख्या में आम लोग रहते हैं। ऐसे में यहां कैमिकल की बारिश संभव नहीं है।
जंगल की आग ओजोन परत को पहुंचा रही नुकसान
जंगल की आग पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचा ही रही है लेकिन इस आग से निकलने वाला धुआं और कैमिकल ओजोन की परत को नुकसान पहुंचा रहा है। साइंस जर्नल नेचर में छपी मसाचुसैट्स इंस्टीट्य़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये कण ओजोन की परत से रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं जिससे ओजोन की परत को नुकसान पहुंचता है। इस कैमिकल रिएक्शन के चलते ओजोन की परत में छेद बनने लगे हैं। डॉक्टर्स के मुताबिक ओजोन की परत में छेद होने से सूरज से आने वाली पराबैगनी किरणें धरती के वायुमंडल में प्रवेश कर जाती हैं जिससे पेड़ पौधों और जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचता है। इंसानों में पराबैगनी किरणों के चलते त्वचा का कैंसर, सांस से संबंधित रोग, अल्सर, मोतियाबिंद जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं।
मसाचुसैट्स इंस्टीट्य़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं की टीम ने दिसंबर 2019 से जनवरी 2020 के बीच पूर्वी ऑस्ट्रलिया में लगी जंगल की आग से निकलने वाले धुएं पर अध्ययन किया तो पाया कि इस आग के चलते वायुमंडल में लगभग10 लाख टन से भी ज्यादा धुआं पहुंच गया। अध्ययन में पाया गया है कि धुएं में मौजूद कण ऐसी रासायनिक प्रतिक्रियाएं शुरू कर देते हैं जिससे ओजोन की परत को नुकसान पहुंचता है। रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया की जंगलों की आग ने ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अमेरिका सहित दक्षिणी अफ्रीका के कई हिस्सों पर ओजोन की परत को नुकसान पहुंचाया। वैज्ञानिकों ने पाया कि जंगल की आग से निकले धुएं का असर ध्रुवीय क्षेत्र पर भी देखने को मिला जिससे अंटार्कटिका के ऊपर का ओजोन परत का छेद 25 लाख वर्ग किलोमीटर चौड़ा हो गया था।
