संपादकीय लेख उत्तराखंड में पंचायती राजनीति, जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों के चयन में धनबल-बाहुबल की भूमिका, और राज्य की राजनीति पर इसके प्रभावों का गंभीर विश्लेषण:पंचायतों की बोली: उत्तराखंड में लोकतंत्र का ‘नीलाम घर’✍️ अवतार सिंह बिष्ट | विशेष संपादकीय: हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स

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उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव अभी हाल ही में संपन्न हुए हैं। ग्राम प्रधानों, क्षेत्र पंचायत सदस्यों (बीडीसी), और जिला पंचायत सदस्यों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत जनता का मत प्राप्त कर जीत हासिल की। लेकिन असली खेल अब शुरू होता है — ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष बनने की रेस। ये पद सिर्फ चुनाव जीतने भर से नहीं मिलते, बल्कि जीतने के बाद शुरू होती है बोली, सौदेबाज़ी और सत्ता की सौदागिरी।

लोकतंत्र का निचला स्तर या धनतंत्र का उच्च खेल?



जिस लोकतंत्र को गांधीजी ने ग्राम स्वराज की आत्मा बताया था, वह अब बाजार का एक व्यापारिक मंच बन चुका है, जहाँ ‘जिताऊ’ से ज्यादा ‘बिकाऊ’ होना मायने रखता है। उत्तराखंड की वर्तमान पंचायती राजनीति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।


सत्ता की बोली: पंचायत अध्यक्षों और प्रमुखों की मंडी

ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष जैसे पदों के लिए चुनाव नहीं होते। इन्हें पंचायत सदस्यों द्वारा चुना जाता है। लेकिन यह चुनाव अब चयन नहीं, नीलामी बन चुका है।

जिला पंचायत सदस्य बनते ही हर सदस्य के इर्द-गिर्द राजनीतिक दलों, सत्ता पक्ष के नेताओं और धन्नासेठों की बोली लगनी शुरू हो जाती है

  • “कितने में आएगा?”,
  • “किसके साथ जाएगा?”,
  • “क्या मंत्री जी का आदेश है?”,
  • “क्या विपक्षी गुट को तोड़ा जा सकता है?”

यह खेल सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही खेलते हैं। फर्क सिर्फ स्क्रिप्ट का होता है, उद्देश्य एक ही — किसी भी कीमत पर कब्ज़ा।


धनतंत्र का जाल: जीत से ज्यादा ज़रूरी है ‘संपर्क’ और ‘संपत्ति’

उत्तराखंड की पंचायत राजनीति में अब यह सामान्य बात हो गई है कि जिसने ज़्यादा पैसा खर्च किया, जिसने ज़्यादा भोज कराए, जिसने ज़्यादा लॉजिस्टिक्स सँभाली — वही पद हथिया लेता है।

  • ₹5 लाख से ₹50 लाख तक की “बोली दर” की बातें खुलेआम हो रही हैं।
  • कुछ जिलों में तो उम्मीदवारों को शपथग्रहण से पहले ही “हॉलीडे रिजॉर्ट्स” में कैद कर दिया गया, ताकि कोई उन्हें खरीद न सके या ‘तोड़ा’ न जा सके।

यानी लोकतंत्र का सबसे निचला स्तर, सबसे गंदा और खर्चीला युद्ध बन चुका है।


सत्तारूढ़ दल की रणनीति: जनादेश नहीं, ‘डील’ चाहिए

उत्तराखंड में सत्तारूढ़ दल (भाजपा) ने पंचायत चुनावों को आधिकारिक तौर पर गैर-राजनीतिक बताया है, लेकिन पर्दे के पीछे वही सबसे बड़ा ऑपरेटर है।

  • मंत्री, विधायक, जिलाध्यक्ष और RSS के कार्यकर्ता इस पूरे खेल के रणनीतिकार बन चुके हैं।
  • धनबल का संचालन ‘ठेकेदारों’ और ‘ब्यापारियों’ के जरिए किया जाता है।
  • ब्लॉक प्रमुखों और अध्यक्षों को “पार्टी के कार्यक्रमों में भीड़ लाने”, “विधानसभा चुनाव में प्रचार करने” और “MLA के लिए वोट मैनेज करने” की शर्तों पर पद मिलता है।

इस खेल में स्थानीय स्वतंत्र जनप्रतिनिधि सिर्फ कठपुतली बन जाते हैं।


विपक्ष की भूमिका: नैतिकता के नकाब के पीछे वही व्यापार

कांग्रेस, बसपा, आम आदमी पार्टी या अन्य विपक्षी पार्टियाँ इस व्यवस्था को लेकर जमकर भाषणबाज़ी करती हैं, लेकिन जब अवसर आता है, वे भी उसी ‘बोली की भाषा’ में बात करती हैं।

  • कई बार कांग्रेस समर्थित जिला पंचायत सदस्य रातोंरात भाजपा के साथ चले जाते हैं।
  • लोकतंत्र के नाम पर सौदेबाज़ी, पार्टी अनुशासन के नाम पर ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ और ‘नैतिक मूल्यों’ के नाम पर छल-कपट — यही विपक्ष की रणनीति है।

यानी सत्ता हो या विपक्ष, दोनों की दिशा और दशा लगभग एक जैसी है।


प्रशासन की भूमिका: मौन सहमति या अंदरूनी सांठगांठ?

पंचायत चुनावों में डीएम, सीडीओ, बीडीओ और पंचायत अधिकारी की भूमिका सिर्फ चुनाव संपन्न कराने तक सीमित नहीं होती —

  • अधिकारियों पर आरोप है कि वे सत्तारूढ़ दल की ‘संदेश वाहक’ की तरह काम करते हैं।
  • कई ज़िलों में आरोप है कि प्रशासन खुद सदस्यों को ‘गोपनीय स्थानों’ तक पहुँचाने में मदद करता है।

ऐसे में एक स्वायत्त लोकतांत्रिक संस्था का चुनाव प्रशासन और सत्ता की साज़िशों में घिर जाता है।


नकली नेतृत्व और असली पीड़ा

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जो ब्लॉक प्रमुख या जिला पंचायत अध्यक्ष पैसे देकर पद पाते हैं,

  • वे फिर वसूली मशीन बन जाते हैं।
  • सरकारी योजनाओं, शौचालय निर्माण, सड़कों के टेंडर, आंगनबाड़ी, स्कूल फर्नीचर सप्लाई जैसे कामों में 10%–30% कमीशन तय है।
  • विकास से पहले ‘वसूली’, जनसेवा से पहले ‘जुगाड़’।

जनता का सरोकार, ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण — सब झूठे नारों में बदल जाते हैं।


ग्राम स्वराज की हत्या: महात्मा गांधी का सपना चूर-चूर

महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की जो कल्पना की थी —

  • जहाँ ग्राम पंचायतें स्वतंत्र हों,
  • नेतृत्व स्थानीय और ईमानदार हो,
  • निर्णय जनता की भागीदारी से हों —
    वह सपना उत्तराखंड के पंचायतों में पैसे और साजिशों के नीचे दफन हो चुका है।

अब पंचायतें शक्ति का नहीं, सुविधा का केंद्र बन गई हैं।


राजनीतिक दलों की दोहरी मानसिकता

राजनीतिक दल एक ओर पंचायतों को गैर-राजनीतिक बताते हैं, दूसरी ओर इन्हें अपने संगठन का ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ मानते हैं।

  • मंडल अध्यक्ष, पार्षद, बीडीसी सदस्य — सबको “आगामी MLA और MP चुनाव की जमीन तैयार करने” का आदेश मिलता है।
  • जिसको संगठन साथ लाता है, उसे ब्लॉक प्रमुख और जिला अध्यक्ष बनवाने के लिए रातोंरात सारी व्यवस्था की जाती है।

यानी पंचायत चुनाव, आगामी सत्ता युद्ध का पहला मोर्चा बन चुका है।


जनता की चुप्पी: मजबूरी या मौन समर्थन?

इस पूरे नाटक में जनता मूकदर्शक बनी हुई है।

  • क्योंकि अब लोग भी मान चुके हैं कि “जिसके पास पैसा है, वही नेता है।”
  • लोग इस भ्रष्ट व्यवस्था को गाली भी देते हैं और वोट भी।
  • लोकतंत्र अब चरित्र नहीं, सुविधा बन चुका है।

क्या कोई समाधान है?

उत्तराखंड की पंचायत राजनीति को बचाने के लिए कुछ साहसिक कदम उठाने होंगे:

  1. ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का सीधा चुनाव हो, ताकि जनता के सामने जवाबदेही तय हो।
  2. चुनाव में खर्च की सीमा तय हो और उसका पालन सुनिश्चित हो।
  3. प्रशासनिक अधिकारियों की निष्पक्ष निगरानी हो।
  4. राजनीतिक दल पंचायत चुनावों से अलग रहें।
  5. RTI और सोशल ऑडिट को पंचायत स्तर तक प्रभावी बनाया जाए।

उत्तराखंड को चाहिए गांव से शुरू होने वाला नया नेतृत्व

यदि उत्तराखंड को भ्रष्टाचार, पलायन, बेरोजगारी और बदहाल विकास से बाहर निकालना है,
तो इसकी शुरुआत गांव की राजनीति से होनी चाहिए।

जब तक ग्राम प्रधान, बीडीसी सदस्य, जिला पंचायत अध्यक्ष ‘सच्चे जन प्रतिनिधि’ नहीं बनते, तब तक विधानसभा और लोकसभा में भी ईमानदारी की उम्मीद करना व्यर्थ है।

उत्तराखंड को एक बार फिर से जन आंदोलन की आवश्यकता है —
लेकिन इस बार मुद्दा राज्य की माँग नहीं, बल्कि राज्य को बचाने की ज़रूरत है।


🖊️ — अवतार सिंह बिष्ट
वरिष्ठ संपादक  हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स



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