उत्तराखंड में जंगल के बीच संचालित एक अवैध कसीनो का पर्दाफाश होना न केवल चौंकाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि किस तरह इस शांत पहाड़ी प्रदेश के भीतर ‘गोवा स्टाइल’ अंडरवर्ल्ड जुए और देहव्यापार का गढ़ बनता जा रहा है। देहरादून के प्रेमनगर के सल्यावाला गांव में जंगल के बीच बने आलीशान मकान में जब पुलिस व एसटीएफ की टीम ने दबिश दी, तो भीतर 1900 कैसिनो काइन, लाखों की नकदी और दिल्ली-हरियाणा-उत्तरकाशी से आए जुआरी मिले — यह सब किसी बॉलीवुड फिल्म की पटकथा नहीं, उत्तराखंड की भयावह सच्चाई है।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | संपादक, हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स
विचारणीय बात यह है कि जिस तरह स्पा सेंटरों की आड़ में अनैतिक देह व्यापार और नशे का जाल फैलाया गया है, अब क्या वही रास्ता कसीनो भी अपनाने जा रहे हैं? एक तरफ सरकार स्पा सेंटरों को “रोजगार” और “वेलनेस उद्योग” बताकर GST वसूलती है, वहीं दूसरी तरफ जंगलों में चल रहे कसीनों पर कोई नीति नहीं। यदि सरकार इन्हें “नियमित” करना चाहती है, तो फिर नीति स्पष्ट होनी चाहिए — ना कि कानून की आंखों पर पट्टी बांधकर अपराध को ‘उद्योग’ का जामा पहनाया जाए।
सवाल यह है कि क्या अब सरकार को ‘कसीनो नीति’ भी बनानी चाहिए? क्या स्पा सेंटरों की तरह कसीनो को भी लाइसेंस दिया जाए, टैक्स वसूला जाए, और फिर नैतिक पतन के इस सिलसिले को एक आधिकारिक मुहर दे दी जाए? अगर उत्तराखंड के युवा गोवा और नेपाल जाकर कसीनो में पैसा लुटा रहे हैं, तो क्या यह तर्कसंगत है कि राज्य में ही उन्हें “मान्यता प्राप्त कसीनो” देकर रोका जाए?
यह कटाक्ष नहीं, बल्कि चेतावनी है — एक ऐसे भविष्य की, जहां पहाड़ों की भूमि आध्यात्मिकता, पर्यावरण और संस्कृति की जगह अपराध, लालच और भ्रष्ट पूंजी का केंद्र बन जाए।
सरकार को निर्णय लेना होगा कि वह राज्य की छवि को ‘उत्तराखंड: देवभूमि’ बनाए रखना चाहती है या उसे ‘न्यू गोवा इन द हिमालयाज’ में बदलना चाहती है।
यदि कसीनो को मान्यता देने की बात है, तो फिर ‘कानून बनाइए, पर नैतिकता का जनाजा मत निकालिए।’
क्योंकि यदि अपराध को कानून के कपड़े पहना दिए गए, तो फिर न्यायपालिका की जरूरत किसे रह जाएगी?
स्पा सेंटर को मान्यता मिल गई, अब कसीनो का नंबर है सरकार जी!”
✍️ अवतार सिंह बिष्ट |
उत्तराखंड में अब जंगलों में जंगली जानवर नहीं, जुआरियों की जमघट मिलती है। जहां पहले हिरन कुलांचे भरते थे, अब वहां कसीनो काइन की खनक सुनाई देती है। शुक्र है पुलिस व एसटीएफ ने समय रहते दबिश दी, वरना जल्दी ही “उत्तराखंड कसीनो टूरिज्म” का उद्घाटन भी हो जाता और जीएसटी विभाग कोई नया स्लैब तय कर देता — “देवभूमि एंटरटेनमेंट टैक्स” के नाम से।
सरकार तो पहले ही स्पा सेंटरों को “स्वास्थ्य सेवा” मान चुकी है। अब अगर कसीनो को भी “मनोरंजन उद्योग” घोषित कर दे, तो हमें कोई हैरानी नहीं होगी। आखिर जनता की सेवा तो हर रूप में जरूरी है — चाहे वो ‘बॉडी मसाज’ हो या ‘काइन मसाज’। फर्क बस इतना है कि एक में शरीर थकता है, दूसरे में जेब हल्की होती है।
दिल्ली, हरियाणा से आए जुआरी प्रेमनगर के जंगल में लक्जरी कसीनो में हारी-जीती की बाजी लगा रहे थे — क्या क्रांतिकारी पर्यटन प्रोत्साहन योजना है ये! अब सरकार को चाहिए कि “जंगल कसीनो नीति” बनाई जाए, जिसमें साफ लिखा हो कि “हर गढ़वाल-कुमाऊं क्षेत्र में एक नियामक जुआ गृह हो, जहां भक्तजन दर्शन के बाद किस्मत भी आजमा सकें।”
यह कैसा उत्तराखंड है जहां कसीनो गैरकानूनी हैं, पर उन्हें चलाने वालों को स्थानीय संपर्क, बिजली कनेक्शन और सरकारी चुप्पी मिल जाती है? जहां स्पा सेंटर की आड़ में गंदगी फलती है और सरकार उसे “रोजगार सृजन” बताती है?
अब वक्त आ गया है — देवभूमि को भ्रमभूमि बना देने वाले इस विकास मॉडल पर जनता ताली नहीं, सवाल उठाए।
वरना कल को कोई कहेगा, “हर पंचायत में एक स्पा सेंटर और हर ब्लॉक में एक कसीनो हो, तभी तो आत्मनिर्भर उत्तराखंड बनेगा!”
और हां, अगर सरकार को टैक्स ही वसूलना है, तो कृपा कर शराब, स्पा और कसीनो से आगे बढ़कर ईमानदारी भी बेचनी शुरू कर दे — शायद तब जाकर सिस्टम सुधरे।
कसीनो का विकास चाहिए या उत्तराखंड का? यह सवाल अब जंगल से निकलकर विधान सभा के गलियारों तक गूंजना चाहिए।

