
बरेली में उत्तराखंड के वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी दिनेश प्रताप सिंह के आवास पर ईडी की छापेमारी केवल एक कानूनी कार्रवाई नहीं, बल्कि उत्तराखंड में वर्षों से जारी ‘नियोजित लूट’ का नग्न प्रदर्शन है। जिस अधिकारी पर करोड़ों के भूमि अधिग्रहण घोटाले का आरोप है, वह सत्ता के गलियारों में आज भी सम्मानित पदों पर बना बैठा है। यह स्थिति केवल दुर्भाग्यजनक नहीं, बल्कि लोकतंत्र के चेहरे पर करारा तमाचा है।
दिनेश प्रताप सिंह वही व्यक्ति हैं जिन पर राष्ट्रीय राजमार्ग-74 परियोजना के तहत किसानों की जमीन को ‘कागजों में’ गैर-कृषि घोषित कर करोड़ों की लूट करने का आरोप है। सोचिए, एक सरकारी अफसर, जिसकी जिम्मेदारी राज्य की सेवा है, वह गरीबों की ज़मीन को मुआवज़े के खेल में तब्दील कर रहा है! और इस खेल में कोई राजनीतिक दल अछूता नहीं—कभी भाजपा में, तो कभी कांग्रेस में रह चुकीं उनकी पत्नी अलका सिंह राजनीति को भी अपने परिवार के लाभ का ज़रिया बना चुकी हैं।


यह कोई एक अफसर की कहानी नहीं है—यह उस पूरे सिस्टम का एक्स-रे है जो सत्ता, नौकरशाही और धनबल की सांठगांठ से चला रहा है। आम जनता महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्ट व्यवस्था से त्रस्त है, और दूसरी ओर सरकारी अफसर अपने परिवार को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी तक पहुंचा रहे हैं।
उत्तराखंड की जनता को अब और अधिक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। इस राज्य को राज्य आंदोलनकारियों ने लाठी-गोलियां खाकर बनाया, न कि घोटालेबाज अफसरों और अवसरवादी राजनेताओं ने। आज ज़रूरत है एक सजग नागरिक समाज की, जो न केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाए, बल्कि ऐसे चेहरों को चुनावों में भी बेनकाब करे।
इस छापेमारी को एक चेतावनी नहीं, बल्कि जनजागरण की शुरुआत मानिए। अब सवाल उठाने का समय है—कि आखिर कब तक उत्तराखंड की मिट्टी को बिकने दिया जाएगा? कब तक भ्रष्टाचार की फसल को संवैधानिक पदों की खाद दी जाएगी?
अब वक्त आ गया है, जब जनता को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। क्योंकि यदि आज नहीं बोले, तो कल यह लूट हमारी अगली पीढ़ी की किस्मत भी लूट लेगी।

