बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने कहा कि इस संशोधन जो भी हासिल किया है, वह संविधान के उलटने से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि संविधान निर्माताओं ने कुछ समुदायों के प्रति ऐतिहासिक गलतियों के कारण उत्पन्न सामाजिक असमानताओं को कम करने के लिए आरक्षण की परिकल्पना की थी, तथा संविधान निर्माताओं ने इसके लिए कभी भी आर्थिक मानदंड की परिकल्पना नहीं की थी।
नरीमन ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 46 राज्य को अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का अधिकार देता है। उन्होंने कहा कि मेरे अनुसार, अनुच्छेद 46 आर्थिक मानदंडों के आधार पर वर्गीकरण को बिल्कुल भी उचित नहीं ठहराता है। इसे सरलता से पढ़ने पर ही आपको यह पता चल जाएगा। अंतिम भाग को सभी पांचों न्यायाधीशों ने पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है।
जस्टिस नरीमन ने कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण अनुच्छेद 46 के ठीक विपरीत है, क्योंकि इसमें ऊंची जाति के हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण की अनुमति दी गई है, जबकि उन्हें कभी भी ऐतिहासिक रूप से कोई नुकसान नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ने कहा कि आप उन सभी को बाहर कर देते हैं जिन्हें शामिल करने की आवश्यकता है, जैसे एससी, एसटी, ओबीसी। उन्हें बाहर करने के बाद आप किसे शामिल करते हैं? इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। आप केवल उच्च जातियों को शामिल कर रहे हैं। यदि आप इन सभी लोगों को बाहर रखते हैं तो आप किसे शामिल करेंगे? आप केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य और मुस्लिम और ईसाई को ही शामिल करते हैं। अब यह एक बड़ी समस्या बन जाती है क्योंकि जब आप इन लोगों को शामिल करते हैं तो ऐतिहासिक गलतियों के अलावा किसी भी आरक्षण का कोई सवाल ही नहीं है।
जस्टिस नरीमन ने आगे कहा कि इन लोगों को कभी भी इस तरह का कोई अन्याय नहीं सहना पड़ा, लेकिन फिर भी आप उनके लिए कुछ बचा कर रख रहे हैं। और जहां ऐतिहासिक गलतियां हुई हैं, आप उनके लिए कुछ भी सुरक्षित नहीं रख रहे हैं। इसलिए वास्तव में संविधान अब उलट गया है।
मुसलमानों और ईसाइयों के संबंध में न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि उन्हें आरक्षण के दायरे में शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे पहले से ही संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षित हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि मुसलमानों और ईसाइयों के मामले में यह मत भूलिए कि अनुच्छेद 341 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राष्ट्रपति सूची में विशेष रूप से कहा गया था कि यह केवल हिंदुओं के लिए है। आप इसमें मुसलमानों और ईसाइयों को शामिल नहीं कर सकते। हमारे संविधान निर्माताओं ने कहा था कि चूंकि आपके पास आरक्षण का अधिकार नहीं है, इसलिए हम आपको एक और अधिकार देंगे जो अनुच्छेद 30 है।
उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि ईडब्ल्यूएस ने इस सब को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक संगठन स्थापित करने और चलाने का अधिकार देता है। इन सभी बातों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है और अब एक संवैधानिक संशोधन, जिसने संविधान को पूरी तरह से बदल दिया है। उसको इन तीन न्यायाधीशों द्वारा पूर्ण स्वीकृति प्रदान की गई है।
जस्टिस नरीमन ने उन दो न्यायाधीशों के विचारों पर भी सवाल उठाया जो संविधान पीठ के बहुमत की राय से भिन्न राय रखते थे। उन्होंने कहा कि यह एक दुर्लभ मामला है जहां आर्थिक आरक्षण की अवधारणा के मामले में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही गलत थे। नरीमन ने कहा कि ईडब्ल्यूएस निर्णय न तो संवैधानिक कानून के आधार पर और न ही किसी भी प्रकार के सिद्धांत के आधार पर सही है।
उन्होंने कहा कि हमें बहुमत के साथ इस बात पर बड़ी समस्या है कि वे संवैधानिक संशोधनों को किस तरह देखते हैं और इसे कैसे रद्द किया जाए। इसलिए सम्मानपूर्वक, यह आर्थिक मानदंड निर्णय संवैधानिक कानून या किसी भी तरह के सिद्धांत में सही नहीं है। उन्होंने कहा कि यह अनुच्छेद 46, 16(1) और 15(1) के विरुद्ध है। जस्टिस नरीमन केरल हाई कोर्ट के एक कार्यक्रम में बोल रहे थे।