
रुद्रपुर उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर में रक्षाबंधन केवल भाई-बहन के रिश्ते का पर्व भर नहीं है, बल्कि यह जान्यू पुण्यों जैसी प्राचीन और पवित्र परंपरा का भी प्रतीक है। पर्वतों की गोद में बसे इस देवभूमि में श्रावण पूर्णिमा का दिन आध्यात्मिक नवीनीकरण, धार्मिक आस्था और सामाजिक बंधन – तीनों का संगम है।✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर



जान्यू पुण्यों – परंपरा और आध्यात्मिक नवीनीकरण?उत्तराखंड में रक्षाबंधन को “जान्यू पुण्यों” भी कहा जाता है। इस दिन ब्राह्मणों और अन्य द्विज जातियों के लोग अपने पुराने जनेऊ को उतारकर नया जनेऊ धारण करते हैं। यह परंपरा केवल वस्त्र परिवर्तन नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म की शुद्धि का संकल्प है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार या उपाकर्म भी कहा जाता है, जिसकी जड़ें वेद-पुराणों में गहराई तक फैली हैं।
श्रावण पूर्णिमा को जनेऊ बदलने का अर्थ है – बीते वर्ष के दोषों, आलस्य और अशुद्धियों को त्यागकर नए वर्ष में धर्म, सत्य और कर्तव्य का पालन करने की प्रतिज्ञा लेना।
रक्षाबंधन और रक्षा सूत्र का महत्व?इस दिन केवल भाइयों की कलाई पर राखी नहीं बंधती, बल्कि रक्षा सूत्र का भाव सबके लिए होता है। रक्षा सूत्र को कलाई, दरवाजे, खेत की मेंड़, मवेशियों के गले और मंदिर की देहरी पर भी बांधा जाता है, ताकि जीवन के हर क्षेत्र में सुरक्षा और समृद्धि बनी रहे।

गोपाल सिंह पटवाल, महामंत्री श्री दिवाकर पांडे, कोषाध्यक्ष डी0के0 दनाई, राजेंद्र बोरा, दिनेश बम, हरीश दनाई, धीरज पांडे, जगदीश बिष्ट, भारत जोशी,राजेंद्र बोरा, सतीश लोहनी , चन्द्र बल्लभ,मोहन चंद्र उपाध्याय ,सतीश ध्यानी, त्रिभुवन जोशी , के के मिश्रा, हरिशचंद्र मिश्रा,श्रीमती सुधा पटवाल, श्रीमती विनीत पांडे, शालिनी बोहरा , महेश कांडपाल,श्रीमती नीलम कांडपाल,श्रीमती श्रीमती भगवती, श्रीमती आशा लोहनी, श्रीमती भगवती मेहरा, श्रीमती सुनीता पांडे, श्रीमती बीना लखेड़ा, श्रीमती सुधा जोशी, श्रीमती लीला दनाई , श्रीमती श्रीमती चंद्रा बम,आदि लोगों को उपस्थित थे।
शैल सांस्कृतिक समिति की पहल – परंपरा का जीवंत रूप?इस वर्ष, शैल सांस्कृतिक समिति (शैल परिषद) ने गोलू महाराज के मंदिर प्रांगण में पूरे विधि-विधान के साथ हवन यज्ञ आयोजित किया। कार्यक्रम में समिति के सभी पदाधिकारियों ने सामूहिक रूप से हवन किया, जनेऊ बदले और रक्षा कवच बांटे।
गोलू महाराज, जो न्याय और सत्य के देवता माने जाते हैं, उनके मंदिर में इस आयोजन ने जान्यू पुण्यों के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को और गहराई से अनुभव कराया। हवन की पवित्र अग्नि में आहुति डालते समय केवल मंत्रोच्चार ही नहीं हुआ, बल्कि समाज में नैतिकता, ईमानदारी और भाईचारे का संकल्प भी लिया गया।
संस्कृति और आधुनिकता का संतुलन?आज के तेज़-रफ्तार जीवन में, जब परंपराएँ कई बार केवल औपचारिकता तक सीमित हो जाती हैं, तब ऐसे सामूहिक आयोजनों का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि त्योहार केवल मनाने के लिए नहीं, बल्कि जीने और अपनाने के लिए होते हैं।
उत्तराखंड की पहचान उसकी आस्था, प्रकृति और संस्कृति में है, और जान्यू पुण्यों जैसी परंपराएँ इसे और जीवंत बनाती हैं।

रक्षाबंधन का यह रूप हमें बताता है कि भाई-बहन के रिश्ते की मिठास के साथ-साथ अपने भीतर के दोषों को त्यागना और जीवन में पवित्रता लाना भी उतना ही ज़रूरी है। शैल सांस्कृतिक समिति का गोलू महाराज मंदिर में यह सामूहिक हवन और जनेऊ परिवर्तन कार्यक्रम न केवल परंपरा का संरक्षण है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश भी देता है कि उत्तराखंड की असली ताकत उसकी संस्कृति और आस्था में है।
गोलू महाराज और जान्यू पुण्यों की परंपरा में गहरा संबंध है। एक ओर गोलू महाराज हमें न्याय के लिए खड़े होने की प्रेरणा देते हैं, तो दूसरी ओर जान्यू पुण्यों हमें यह संकल्प लेने का अवसर देता है कि हम जीवन में सत्य और धर्म का पालन करेंगे।
यानी एक पक्ष न्याय का है, तो दूसरा पक्ष अपने आचरण को पवित्र और मजबूत रखने का-और यही संतुलन समाज को दिशा देता है।
उत्तराखंड में गोलू महाराज को न्याय का देवता माना जाता है। लोककथाओं के अनुसार, वे एक वीर और निष्पक्ष शासक थे, जिन्होंने अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उनकी आस्था इस कदर गहरी है कि आज भी भक्त सफेद कपड़े में प्रार्थना पत्र लिखकर उनके मंदिर में बाँधते हैं। माना जाता है कि गोलू देवता सच्चे मन से की गई पुकार को अनसुना नहीं करते।
गोलू महाराज का मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि आमजन के लिए एक “लोक अदालत” की तरह है- जहाँ न कोई वकील चाहिए, न कोई रिश्वत, बस सच्चाई की गवाही ही पर्याप्त है।

