सन 1903 की कोलकाता झलक: जब पालकी थी महिलाओं की सवारी, ऑटो-रिक्शा नहीं थे

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कोलकाता, 1903 —
बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था, और कोलकाता उस समय भारत की राजधानी थी (1911 तक)। सड़कों पर गाड़ियों की जगह बैलगाड़ी, घोड़ा-गाड़ी और खास तौर पर पालकी आम दृश्य थीं। खासकर संभ्रांत परिवारों की महिलाएं पालकी में सफर करती थीं — पर्दे से ढंकी यह सवारी, शालीनता और प्रतिष्ठा का प्रतीक मानी जाती थी।

शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता

सन 1903 की एक ऐतिहासिक तस्वीर में एक महिला कोलकाता की सड़कों पर पालकी से बाहर निकलते हुए दिखाई देती है। यह दृश्य उस दौर की सामाजिक संरचना, महिलाओं की स्थिति और परिवहन के साधनों की झलक देता है। उस दौर में महिलाओं का सार्वजनिक जीवन सीमित था, और पालकी न केवल एक यातायात साधन थी, बल्कि परंपरा, गोपनीयता और सामाजिक मर्यादा का भी प्रतिनिधित्व करती थी।

पालकी को आमतौर पर चार लोग कंधे पर उठाकर ले जाते थे। अमीरों और अधिकारियों के लिए सजावटी और आरामदायक पालकियाँ होती थीं, जिनमें मखमली गद्दे, झरोखे और पर्दे लगे होते थे।

ब्रिटिश काल में परिवहन की स्थिति:

सन 1903 में भारत में रेलवे की शुरुआत को लगभग 50 साल हो चुके थे, लेकिन यह सुविधा आम जन तक नहीं पहुंची थी। शहरों में सीमित ट्राम सेवाएं थीं, लेकिन आम लोगों के लिए सड़क परिवहन मुख्यतः पैदल चलना, बैलगाड़ी, घोड़ा-गाड़ी और पालकी तक ही सीमित था। महिलाओं के लिए पालकी एक सुरक्षित माध्यम माना जाता था क्योंकि समाज में ‘पर्दा प्रथा’ गहराई से जमी हुई थी।

समाज और संस्कृति की झलक:

यह वह दौर था जब महिलाओं की शिक्षा और स्वतंत्रता को लेकर आंदोलन शुरू हो चुके थे, लेकिन जनसामान्य में सामाजिक बदलाव धीरे-धीरे ही आ रहा था। पालकी से बाहर निकलती महिला की तस्वीर एक ओर परंपरा को दिखाती है, तो दूसरी ओर आने वाले सामाजिक परिवर्तन की आहट भी देती है।

आज जब हम सड़क पर ऑटो-रिक्शा, टैक्सी या मेट्रो देखते हैं, तो यह याद रखना जरूरी है कि एक दौर ऐसा भी था जब ‘पालकी’ ही महिलाओं की एकमात्र शालीन और सुरक्षित यात्रा का माध्यम हुआ करती थी।


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