महात्मा गांधी का उत्तराखंड से विशेष लगाव, आजादी के आंदोलन में धार देने में उत्तराखंड के सेनानियों का रहा महत्वपूर्ण योगदान। देश की आजादी के लिए जब स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर चल रहा था, तो उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Gandhi Jayanti 2023) अल्मोड़ा भ्रमण पर आए थे. बापू ने 20 जून, 1929 को लक्ष्मेश्वर मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया था और लोगों को सत्यता के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया था.

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कुमाऊं भ्रमण के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 19 जून, 1929 की शाम को अल्मोड़ा पहुंचे थे। राष्ट्रपिता ने रानीधारा में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हरीश चंद्र जोशी के घर पर रात को विश्राम किया. वर्तमान में इस भवन में ग्रेस स्कूल संचालित है. उसके बाद बापू ने 20 जून को लक्ष्मेश्वर के मैदान में जनसभा को संबोधित किया था. नगर पालिका परिषद अल्मोड़ा के द्वारा इस सभा स्थल को संरक्षित किया गया है. यहां पर शहीद स्मारक स्थापित किया गया है, जिसे अब गांधी सभा स्थल शहीद पार्क लक्ष्मेश्वर के नाम से जाना जाता है.

अल्मोड़ा में महात्मा गांधी द्वारा नीलाम किया गया लोटा आज भी सुरक्षित है और इसे व्यापारी धनी साह परिवार के पास ही है. यह चांदी का लोटा महात्मा गांधी द्वारा बार-बार उपयोग किया गया था और भारत की आजादी के लिए उन्होंने अपने बर्तन तक नीलाम कर दिए थे. इसलिए यह लोटा महात्मा गांधी के महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक चरणकों का एक हिस्सा है.

स्थानीय निवासी त्रिलोचन जोशी ने बताया कि स्वतंत्रता आंदोलन के चरम पर जब महात्मा गांधी अल्मोड़ा में थे, तो उन्होंने 19 जून 1929 को अल्मोड़ा के रानीधारा में एक रात विश्राम किया था, जिसे कैसल हाउस के नाम से जाना जाता है. फिर, 20 जून को उन्होंने लक्ष्मेश्वर के मैदान में विशाल जनसभा को संबोधित किया था. उन्होंने इस स्थल का महत्व बताया और यहां के ऐतिहासिक महत्व को याद दिलाने का संदेश दिया.
स्थानीय निवासी सावल साह ने बताया कि महात्मा गांधी अल्मोड़ा आए थे, तो उनसे जुड़ी सामग्री की नीलामी हुई थी. उनके दादाजी धनी साह ने इस लोटे को 11 रुपए में खरीदा था. उन्होंने बताया कि इस लोटे की महत्वपूर्ण अहमियत है और इसे आज भी संरक्षित रखा गया है.

राष्ट्रीय स्मारक नहीं बन पाया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 1929 को नैनीताल होते हुए कुमाऊं की अपनी पहली यात्रा पर आए थे। उसी समय गांधी जी ने नैनीताल के निकट ताकुला गांव में एक आश्रम की नींव रखी थी। आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी जी के दोनों कुमाऊं प्रवास के बीच यही आश्रम उनका ठिकाना

स्वतंत्रता उत्तराखंड महात्मा गांधी की यात्राओं ने दी उत्तराखंड में स्वतंत्रता आंदोलन को गति, पढ़िए पूरी खबर

देहरादून, जेएनएन। आजादी के आंदोलन में उत्तराखंड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के कार्यक्रमों में उत्तराखंड के लोगों की हिस्सेदारी से यहां भी स्वतंत्रता आंदोलन की लहर तेजी से फैली। जिसे और गति देने का कार्य गांधीजी की यात्राओं ने किया। गांधीजी ने पहली बार अप्रैल 1915 में उत्तराखंड की यात्रा की थी। तब वे कुंभ के मौके पर हरिद्वार आए थे। इस दौरान वे ऋषिकेश और स्वर्गाश्रम भी गए। वर्ष 1916 में उनका दोबारा हरिद्वार आना हुआ। तब स्वामी श्रद्धानंद के विशेष आग्रह पर उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी में व्याख्यान दिया था। इसी दौरान गांधीजी से मिलने के लिए देहरादून से डीएवी स्कूल के छात्रों का एक समूह भी हरिद्वार पहुंचा था। जून 1929 में जब गांधीजी का स्वास्थ्य कुछ खराब चल रहा था, तब वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर स्वास्थ्य लाभ करने के लिए अहमदाबाद से कुमाऊं आए थे। 

मानव भारती विद्यालय में रोपा था पीपल का पौधा 

गांधीजी की उत्तराखंड यात्राओं पर शोध करने वाले दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर के रिसर्च एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी लिखते हैं कि सितंबर 1929 में गांधीजी ने फिर उत्तराखंड की यात्रा की। इस दौरान वे मसूरी के अलावा कुछ दिन देहरादून में भी रुके। देहरादून में उन्होंने कन्या गुरुकुल का भ्रमण किया और राजपुर रोड में शहंशाही आश्रम के सामने तत्कालीन मानव भारती विद्यालय परिसर में पीपल का एक पौधा रोपा। आज भी यह बूढ़ा दरख्त गांधीजी की स्मृतियों को जिंदा रखे हुए है। तब इस विद्यालय के संचालक शिक्षाविद् डॉ. डीपी पांडे हुआ करते थे। वे गांधी के पक्के भक्त थे।  

मालकम हेली से मिले थी गांधी 
अपनी दूसरी कुमाऊं यात्रा के दौरान गांधीजी 18 जून 1931 को शिमला से नैनीताल पहुंचे थे। इस पांच दिन के प्रवास में उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ ही विभिन्न स्थानों के जमींदारों से देश की समस्याओं पर चर्चा की और कई सार्वजनिक सभाओं में भी शामिल हुए। इसके अलावा वे गवर्नर सर मालकम हेली से भी मिले। 
गरीबों के लिए किया था चंदा एकत्रित 
गांधीजी का दोबारा मसूरी आगमन मई 1946 में हुआ। तब वे वहां आठ दिन तक यहां रहे थे। इस अवधि में उन्होंने मसूरी में कई प्रार्थना सभाओं और सार्वजनिक सभाओं में शामिल होकर गरीबों के लिए चंदा एकत्रित करने का कार्य किया। तिवारी लिखते हैं कि उत्तराखंड की यात्राओं के दौरान अलग-अलग स्थानों पर कई महत्वपूर्ण व्यक्ति गांधीजी के साथ रहे। उनमें कस्तूरबा गांधी, मीरा बहन, खुर्शीद बहन, पं.जवाहर लाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, देवदास व प्रभुदास गांधी, प्यारे लाल, शांति लाल त्रिवेदी, महावीर त्यागी, स्वामी श्रद्धानंद, आचार्य रामदेव, विक्टर मोहन जोशी, देवकी नंदन पांडे, गोविंद लाल साह जैसे कई प्रमुख व्यक्ति शामिल थे। 

उत्तराखंड की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महिला बिशनी देवी शाह 
स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा। इनमें बिशनी देवी शाह प्रमुख हैं। उनका जन्म 12 अक्टूबर 1902 को बागेश्वर में हुआ था। किशोरावस्था में ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी थीं और मुल्क की आजादी तक इसमें सक्रिय रहीं। इस दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई। वर्ष 1974 में 73 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ। 
आजादी के आंदोलन के कुछ महत्‍वपूर्ण तथ्‍य 
-1905 में बंगाल विभाजन के बाद अल्मोडा के नंदा देवी मंदिर में विरोध सभा हुई। इसी वर्ष कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविंद पंत, मुकुंदीलाल बैरिस्टर, गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पांडे आदि युवक भी सम्मिलित हुए। 
-1906 में हरिराम त्रिपाठी ने वंदेमातरम् जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था, का कुमाऊंनी अनुवाद किया। 
-भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक इकाई के रूप में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखंड के ज्यादा प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इसी वर्ष उत्तराखंड के अनुसूचित जातियों के उत्थान को गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपांतरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ। 
-गढ़वाल क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन अपेक्षाकृत बाद में शुरू हुआ, 1918 में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के प्रयासों से गढ़वाल कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ, 1920 में बापू द्वारा शुरू किए गये असहयोग आन्दोलन में कई लोगो ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया और कुमाऊ मण्डल के हजारों स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर कुली-बेगार न करने की शपथ ली और इससे संबंधीत रजिस्ट्री को नदी में बहा दिया। 
-सितंबर 1916 में हरगोविंद पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त पांडे, इंद्रलाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चंद्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पांडे, भोलादत पांडे, लक्ष्मीदत्त शास्त्री जैसे उत्साही युवकों ने कुमाऊं परिषद की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखंड की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था। वर्ष 1926 तक इस संगठन ने उत्तराखंड में स्थानीय सामान्य सुधारों की दिशा के अतिरिक्त निश्चित राजनीतिक उद्देश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियां संपादित कीं। 
-1926 में कुमाऊं परिषद का कांग्रेस में विलय हो गया। वर्ष 1927 में साइमन कमीशन की घोषणा के तत्काल बाद इसके विरोध में स्वर उठने लगे और जब 1928 में कमीशन देश में पहुंचा तो इसके विरोध में 29 नवंबर 1928 को पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 16 व्यक्तियों की एक टोली ने विरोध किया। जिस पर घुडसवार पुलिस ने निर्ममतापूर्वक डंडों से प्रहार किया। नेहरू को बचाने के लिए गोविन्द बल्लभ पंत पर हुए लाठी के प्रहार के शारीरिक दुष्परिणाम स्वरूप वे बहुत दिनों तक कमर सीधी नहीं कर सके थे। 
जब दून की सड़कों पर निकल पड़े थे आजादी के परवाने 
द्वितीय विश्व युद्ध के विरोध के साथ-साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी उत्तराखंड की अहम भूमिका रही है। इसके गवाह हैं देहरादून स्थित राज्य अभिलेखागार (स्टेट आरकाइव्स) में सुरक्षित रखे उत्तराखंड के लोगों के त्याग, कुर्बानी, समर्पण एवं संघर्ष के दस्तावेज। इन दस्तावेजों के अनुसार नौ अगस्त 1942 को आंदोलनकारियों द्वारा निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर डोईवाला, गऊघाट, पलटन बाजार व दर्शनी गेट में विशाल जुलूस निकालकर प्रदर्शन किए गए। साथ ही आंदोलनकारियों ने सरकारी और निजी इमारतों पर भी तिरंगा फहरा दिया।
इससे बौखलाई ब्रिटिश हुकूमत ने डीआइआर (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स) की धारा-129 के तहत सभी आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया। आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले प्रभु महावीर त्यागी को दो साल के कठोर कारावास की सजा हुई और सौ रुपये जुर्माना लगाया गया।


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