
मसूरी गोलीकांड : शहादत और अधूरे सपने

2 सितम्बर 1994, उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास का वह काला दिन है जब शांतिपूर्ण मौन जुलूस निकाल रहे निहत्थे आंदोलनकारियों पर पुलिस और पी.ए.सी. ने गोलियां बरसा दीं। गनहिल पहाड़ी से हुए पथराव की आड़ में हुई इस बर्बरता में छह आंदोलनकारी—बेलमती चौहान, हंसा धनाई, बलबीर सिंह, राय सिंह बंगारी, मदन ममगाईं और धनपत शहीद हुए। बेलमती चौहान के माथे पर बंदूक सटाकर गोली चलाना राज्य की पुलिसिया क्रूरता का वीभत्स उदाहरण था।


✍️ अवतार सिंह बिष्ट | हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स, रुद्रपुर ( उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी
इस घटना ने पूरे उत्तराखंड को झकझोर दिया और आंदोलन और तीव्र हो गया। यही शहादतें थीं जिन्होंने 9 नवम्बर 2000 को अलग राज्य के निर्माण की नींव रखी। मसूरी गोलीकांड हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज को बंदूक की गोलियों से दबाया नहीं जा सकता।
लेकिन आज जब हम राज्य की वर्तमान तस्वीर देखते हैं तो सवाल उठता है—क्या शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बना? पलायन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और बदहाल स्वास्थ्य-शिक्षा व्यवस्था यह संकेत देती है कि शहादतों का मकसद अभी अधूरा है।

मसूरी गोलीकांड के शहीद केवल स्मारकों और प्रतिमाओं तक सीमित न रह जाएं, इसके लिए ज़रूरी है कि राज्य उनके सपनों का सच बने—आत्मनिर्भर, न्यायपूर्ण और जनकेंद्रित। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में कुछ तिथियाँ ऐसी हैं जो आज भी हमारे हृदय को झकझोर देती हैं। 1 सितम्बर 1994 का खटीमा गोलीकांड, 2 सितम्बर का मसूरी गोलीकांड और अक्टूबर का रामपुर तिराहा कांड—ये तीनों घटनाएँ इस बात के प्रतीक हैं कि राज्य की मांग करने वाले शांतिपूर्ण आन्दोलनकारियों के साथ तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने किस हद तक बर्बरता की।
मसूरी गोलीकांड (2 सितम्बर 1994) उन पन्नों में दर्ज है जहाँ लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलते हुए निर्दोष, निहत्थे और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं। इस दिन छह आंदोलनकारी शहीद हुए, जिनमें दो महिलाएं भी शामिल थीं। बेलमती चौहान के माथे पर बंदूक सटाकर गोली चलाना इस घटना की सबसे वीभत्स तस्वीर बनकर सामने आया।

इस सम्पादकीय का उद्देश्य न केवल इस ऐतिहासिक घटना को याद करना है, बल्कि यह भी समझना है कि शहीदों के खून से सींचा गया उत्तराखंड आज किन राहों पर भटक रहा है।
खटीमा से मसूरी तक : दमन की श्रृंखला
1 सितम्बर 1994 को खटीमा में आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं गईं। सात लोग शहीद हुए और सैकड़ों घायल हुए। यह बर्बरता आंदोलनकारियों के मनोबल को तोड़ने के लिए थी, लेकिन हुआ इसके उलट—संपूर्ण उत्तराखंड में आक्रोश की ज्वाला भड़क उठी।
इसी कड़ी में अगले ही दिन, यानी 2 सितम्बर को मसूरी में खटीमा गोलीकांड के विरोध में मौन जुलूस निकाला गया। यह जुलूस पूर्णतः शांतिपूर्ण था, परंतु सत्ता ने इसे भी षड्यंत्रपूर्वक रक्तरंजित बना दिया।
मसूरी गोलीकांड : घटनाक्रम
- मौन जुलूस – आंदोलनकारी उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय की ओर बढ़ रहे थे।
- गनहिल पहाड़ी से पथराव – कहा जाता है कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आंदोलनकारियों पर पथराव किया। यह पथराव पुलिस कार्रवाई के लिए बहाना बना।
- पुलिस और पी.ए.सी. की गोलीबारी – बिना किसी चेतावनी के निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दी गईं।
- शहीद हुए आंदोलनकारी –
- बेलमती चौहान
- हंसा धनाई
- बलबीर सिंह
- राय सिंह बंगारी
- मदन ममगाईं
- धनपत
इनमें बेलमती चौहान की शहादत सबसे दर्दनाक रही। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, उन्हें पकड़कर माथे पर बंदूक रख गोली मारी गई।
डी.एस.पी. उमाकांत त्रिपाठी की मौत
इस घटना का एक अनोखा और मार्मिक पहलू यह भी है कि डी.एस.पी. उमाकांत त्रिपाठी की भी मौत हो गई। कहा जाता है कि वे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने के खिलाफ थे। पी.ए.सी. ने उन्हें ही गोली मार दी। यह दर्शाता है कि उस समय की पुलिस मशीनरी केवल सत्ता की कठपुतली बनकर काम कर रही थी।
दमन और अमानवीयता
मसूरी गोलीकांड के बाद भी बर्बरता थमी नहीं। पुलिस ने आंदोलनकारियों को घरों से उठाया, हिरासत में यातनाएं दीं और दहशत का माहौल बनाया। यह सब तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के निर्देशों पर हुआ। दरअसल, यह एक “राजनीतिक संदेश” था कि उत्तराखंड राज्य की मांग करने वालों को किसी भी कीमत पर कुचल दिया जाएगा।
शहादत का प्रभाव
मसूरी गोलीकांड ने आंदोलन को और व्यापक बना दिया। गढ़वाल से कुमाऊँ तक हर गांव और शहर में जनाक्रोश फैल गया। महिलाएं, छात्र, किसान, मजदूर—सभी एकजुट होकर राज्य की मांग के लिए सड़कों पर उतर आए। यह आंदोलन अब मात्र क्षेत्रीय मांग न रहकर जन-विद्रोह में बदल चुका था।
यही वजह थी कि 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
स्मृति और स्मारक
आज मसूरी में शहीद स्मारक है। वहीं टिहरी जिले के गजा में भी बेलमती चौहान की प्रतिमा लगी है। यह इस बात का प्रमाण है कि चाहे सरकारें भूल जाएं, जनता अपने शहीदों को कभी नहीं भूलती।
राजनीति की दोहरी चाल
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हुई शहादतों पर आज के सत्ताधारी दल श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन शहादतों के सपनों का उत्तराखंड बना?
- क्या बेरोजगारी रुकी?
- क्या पलायन थमा?
- क्या जल, जंगल, जमीन पर स्थानीयों का अधिकार सुरक्षित हुआ?
- क्या भ्रष्टाचार समाप्त हुआ?
हकीकत यह है कि उत्तराखंड आंदोलन में जिन मुद्दों पर संघर्ष हुआ, आज 25 साल बाद भी वे मुद्दे जस के तस खड़े हैं।
आंदोलन की अराजकता और राजनीतिक स्वार्थ
मसूरी गोलीकांड की पृष्ठभूमि में यह भी सच है कि आंदोलन के नेताओं में गहरी फूट थी। मंच कब्जाने की होड़, कांग्रेस-भाजपा की चालबाजियां और छात्र संगठनों के बीच सत्ता समीकरणों की खींचतान—इन सबने आंदोलन को कमजोर किया।
शहादतें आंदोलन को नैतिक बल देती रहीं, लेकिन नेतृत्व की कमजोरियों ने राज्य गठन के बाद जनता की उम्मीदों को अधूरा छोड़ दिया।
आज का उत्तराखंड और शहादत का प्रश्न
1994 के मसूरी गोलीकांड को 31 साल होने को हैं। लेकिन आज जब हम अपने राज्य को देखते हैं तो पाते हैं कि—
- नौजवान नौकरी की तलाश में बाहर भटक रहे हैं।
- गांव खाली हो रहे हैं।
- शिक्षा और स्वास्थ्य बदहाल हैं।
- राजनीतिक दल सत्ता की जुगाड़ में उलझे हैं।
ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि बेलमती चौहान और अन्य शहीदों ने जिस उत्तराखंड का सपना देखा था, क्या वह सपना आज पूरा हुआ?
मसूरी गोलीकांड केवल एक रक्तरंजित घटना नहीं थी, बल्कि यह उस संघर्ष का प्रतीक है जिसमें आम आदमी ने अपने प्राणों की आहुति देकर एक नए राज्य का निर्माण करवाया। शहीदों की शहादत हमें यह याद दिलाती है कि सत्ता की बर्बरता कितनी भी बड़ी क्यों न हो, जनता की इच्छाशक्ति उससे बड़ी होती है।
परंतु यह भी सच है कि आज का उत्तराखंड अभी भी दिशाहीन है। यह राज्य तभी सार्थक होगा जब हम शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बनाएँ—एक ऐसा राज्य जो पलायन से मुक्त हो, रोजगार से परिपूर्ण हो, शिक्षा-स्वास्थ्य में अग्रणी हो और जनता की आकांक्षाओं का सम्मान करे।

