
– एक संपादकीय लेख


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)संवाददाता]
उत्तराखंड—जिसे राज्य बनने की मान्यता ‘जल, जंगल और जमीन’ के हक में आंदोलन के बल पर मिली थी, आज अपने मूल उद्देश्यों से दूर राजनीतिक प्रतीकों के फेर में उलझता जा रहा है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य के चार जिलों में 17 स्थानों के नाम बदलने की घोषणा ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या इस तरह के प्रतीकात्मक फैसले वाकई जनता की पीड़ा का समाधान हैं, या सिर्फ वोट बैंक की सियासत को साधने की कवायद?
हरिद्वार के “औरंगजेबपुर” का “शिवाजी नगर” होना या देहरादून के “मियावाला” का “रामजीवाला” बन जाना इतिहास को किस दिशा में ले जाएगा, यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन क्या इससे उन पहाड़ी गावों में जीवन जी रहे लोगों की मुश्किलें कम हो जाएंगी, जहां आज भी पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं सपना बनी हुई हैं?
राज्य आंदोलनकारियों की दशा भी किसी से छिपी नहीं है। जिन वीरों ने उत्तराखंड के लिए संघर्ष किया, वे आज वृद्धावस्था में मामूली पेंशन पर गुजारा कर रहे हैं, मानो उनके बलिदान की कीमत नाम मात्र की भीख हो। वहीं दूसरी ओर सरकार ने अपने चहेते नेताओं और समर्थकों को 50 से अधिक दायित्वों से नवाज कर राज्य के खजाने पर अतिरिक्त भार डाल दिया है।
यह बदलाव अगर उत्तराखंड की आत्मा को सशक्त करते, पहाड़ों में पलायन रोकते, रोजगार सृजित करते, तो शायद आम जनता इसे सराहती। लेकिन यहां प्रतीकात्मकता को प्राथमिकता दी गई है, और प्राथमिक समस्याएं—जैसे स्थाई राजधानी का निर्धारण, पर्यावरणीय संकट, और ग्रामीण बुनियादी ढांचे की बदहाली—अब भी अंधेरे में हैं।
उत्तराखंड के लोगों को नाम नहीं, काम चाहिए। उन्हें इतिहास में उलझाकर वर्तमान की उपेक्षा नहीं चाहिए। यह सरकार के लिए समय है आईना देखने का—और यह समझने का कि एक राज्य की पहचान उसकी मिट्टी, उसकी संस्कृति और उसकी जनता के दुख-दर्द से बनती है, ना कि बदलते नामों की चमक से।
अगर वास्तव में राज्य को नया स्वरूप देना है, तो यह काम कागज़ पर नाम बदलने से नहीं, धरातल पर जनसेवा से होगा।
