17 अगस्त 2024 को हल्द्वानी में राज्य आंदोलनकारीयो का सम्मेलन होने जा रहा है।राज्य आंदोलनकारीयो में जबरदस्त उत्साह है। जबरदस्त उत्साह के बीच उत्तराखंड की मूल अवधारणा को लेकर बात रख रहे हैं।

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बिना राजनीतिक पार्टियों के सहभागिता से पत्ता भी नहीं हील सकता। इस सम्मेलन में सभी राजनीतिक व्यक्तियों कांग्रेस बीजेपी यूकेडी अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ राज्य आंदोलनकारी के सामाजिक संगठन प्रतिभाग करेंगे, यह सम्मेलन राज्य आंदोलनकारी के लिए निर्णायक भूमिका में अपनी प्रस्तुति पेश करेगा।गैर राजनीतिक संगठन के रूप मे समस्त राज्य आंदोलन करियो को हल्द्वानी सम्मेलन में आमंत्रित किया गया है और इस सम्मेलन में राजनीतिक दलों के नेताओं को भी आमंत्रित किया गया है सम्मेलन का उद्देश्य राज्य आंदोलन करियो की मांगों समस्याओं के निराकरण के लिए एक जुट करना सम्मानित andolankaryo का एक मंच स्वागत के साथ सरकारों को उत्तराखंड andolankaryo की अवधारणा के अरूप काम करने के लिए दबाव बनाना है जय उत्तराखंड सब को एक साथ मिलकर काम करने से सम्मान मिलेगा

हिंदुस्तान Global Times/print media,शैल ग्लोबल टाइम्स,अवतार सिंह बिष्ट, रुद्रपुर
अध्यक्ष उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी परिषद रजिस्टर्ड

(१)प्रभात ध्यानी जी लिखते हैं
1-राज्य आंदोलनकारी एवं उनके आश्रितों को मिलने वाले 10% क्षैतिज आरक्षण बिल को लंबे समय बीत जाने के बावजूद महामहिम राज्यपाल द्वारा आज दिन तक मंजूरी नहीं दी गई है जिसके कारण राज्य आंदोलनकारीयों में भारी रोष है।हमारी मांग है कि 10% क्षैतिज आरक्षण बिल को राजभवन से तत्काल मंजूरी मिले।
2- राज्य आंदोलनकारीयों एवं उनके आश्रितों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह सम्मान एवं सुविधाएं देने की मांग करते हैं।
3- उत्तराखंड राज्य सम्मान परिषद का पद लंबे समय से खाली होने के कारण सरकार एवं राज्य आंदोलनकारी के मध्य संवादहीनता के कारण उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है।हम मांग करते हैं कि राज्य सम्मान परिषद पर तत्काल नियुक्ति की जाए।
4-हम इस सम्मेलन के माध्यम से समस्त राजनीतिक दलों से निवेदन करते हैं कि सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी पार्टियों में शामिल राज्य आंदोलनकारियों के लिए संगठन,नगर निकाय, नगर निगम,पंचायत ,विधानसभा ,लोकसभा में 10% आरक्षण राज्य आंदोलनकारी के लिए आरक्षित कर उनका सम्मान करने की कृपा करें।

महोदय 42 से ज्यादा शहादत देने के बाद अस्तित्व में आया उत्तराखंड राज्य आज अपने मकसद से भटक गया है।
जिस अपेक्षा एवं उद्देश्य से उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए उत्तराखंड की जनता ने आंदोलन एवं बलिदान दिया उस अवधारणा पहाड़ का पानी पहाड़ की जवानी के अनुरूप राज्य का विकास नहीं हुआ वह सवाल आज भी अनुउत्तरित है । खटीमा मसूरी मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा देने का मामला हो,चाहे राज्य की स्थाई राजधानी गैरसैंण बनाने का सवाल हो ,बेहतर शिक्षा -चिकित्सा का सवाल हो ,रोजगार का सवाल हो ,पलायन विस्थापन का सवाल हो ,खेती का सवाल हो ,प्राकृतिक संसाधनों , जल -जंगल -जमीन पर जनता के अधिकारों का सवाल हो, भ्रष्टाचार माफिया मुक्त उत्तराखंड राज्य का सवाल हो, परिसीमन का सवाल हो,परिसंपत्तियों पर राज्य का अधिकार का सवाल हो वह सारे सवाल हासिये पर डाल दिये गए हैं। राज्य गठन के बाद सैकड़ो गांव एवं स्कूल भूतिया हो गए हैं। जिसके कारण हम राज्य गठन के 24 साल बाद भी उद्वेलित हैं।

(२)चारु तिवारी वरिष्ठ पत्रकार ने भी अपनी बात कुछ इस तरह से व्यक्त की

महोदय,
उत्तराखंड राज्य राज्य की परिकल्पना यहां के लोगों ने अपनी बेहतरी के लिए की थी। इस हिमालयी क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थिति, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पिछड़ेपन के प्रति सरकारों ने हमेशा उपेक्षा का भाव रखा। नीति-नियंताओं ने यहां की परिस्थितियों के अनुकूल नीतियां नहीं बनाई। इसी उपेक्षा के चलते यहां के लोगों ने पृथक पर्वतीय राज्य की मांग उठाई। चार दशक से ज्यादा चले इस आंदोलन में 42 लोगों ने अपनी शहादत दी, जिसमें दो महिलाएं बेलमती चैहान और हंसा धनाई शामिल थी। आंदोलनकारियों की शहादत से 9 नवंबर, 2000 को हमें अलग राज्य मिल गया। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, उत्तराखंड राज्य की मांग जहां से शुरू हुई थी, हम आज भी वहीं खड़े हैं। राज्य बनने के 23 साल बाद भी सरकारों की जनविरोधी नीतियों बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, रोजगार से लेकर स्थानीय संसाधनों पर हकों से लोगों का वंचित किया जाता रहा है। भूलभूत जरूरतों के अभाव में बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन किया है। जहां हम सोच रहे थे कि राज्य अपना होगा तो हम अपनी तरह की नीतियां बना सकेंगे, वहीं राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में दो हजार से ज्यादा प्राइमरी स्कूल बंद हुए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए तकनीकी शिक्षा के माध्यम से रोजगार के लिए राज्य में बने दर्जनों आईटीआई और पालिटैक्नीक बंद कर दिये गये हैं। उच्च तकीनीकी शिक्षण संस्थानों को भी जर्जर हालत में पहुंचा दिया है। यहां तक जवाहर नवोदय विद्यालय और राजीव गांधी नवोदय विद्यालयों की हालत भी बहुत खराब है। उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाएं हमेशा मुद्दा रही हैं। राज्य बनने के इनमें सुधार आने के बजाय यह और भी खराब हुई हैं। सरकारों को इस बात पर बिल्कुल भी शर्मिंदगी नहीं हैं कि प्रसव पीड़ा से महिलाएं सड़क पर या अस्पताल के बरामदों में दम तोड़ दे रही हैं। गलत इलाज से प्रसव में मां-बच्चें के मरने की घटनाओं से अखबार भरे पड़े रहते हैं। सरकार ने इन्हें सुधारने की बजाय अस्पतालों को पीपीपी मोड़ पर देने की नीति से प्राइवेट अस्पतालों के लिए रास्ते खोले हैं। इस प्रकार अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए लोग आज वंचित हैं।

महोदय, उत्तराखंड में प्राकृतिक और स्थानीय संसाधनों पर हकों की मांग आजादी के आंदोलन के समय से रही है। अफसोस कि सरकारी नीतियां लगातार लोगों को उसकी जल, जंगल और जमीन से अलग कर रही हैं। उत्तराखंड में जमीनों के कानून पहले से ही लचर थे, लेकिन 2018 में इस कानून पर भी संशोधन कर एकमुश्त पहाड़ को बेचने के इंतजाम सरकार ने कर दिये। आज हालत यह है कि पहाड़ का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां बेतहाशा जमीनें न बिक गई हों। उत्तराखंड के लोगों के पास मात्र चार प्रतिशत खेती की जमीन बची है। उत्तराखंड में लगातार बढ़ रही वन भूमि और लगातार हो रहे सख्त जंगलात कानूनों ने लोगों को अपने परंपरागत जंगल की आर्थिकी से दूर कर दिया है। वनों के विस्तार से लगातार गांव विस्थापित किये जा रहे हैं। सरकारों ने विकास के नाम पर अनियोजित नीतियां बनाकर इस संवेदनशलील पहाड़ पर लोगों का रहना दूभर कर दिया है। बड़ी बांध परियोजना ने न केवल लोगों का विस्थापन किया है, बल्कि सुरंगों और भारी मशीनों के प्रयोग से यहां मानवजनित आपदाओं का रास्ता खोला है। अब आॅलबेदर जैसी दैत्याकार योजनाओं के निर्माण में प्रयोग की गई तकनीक ने पूरे पहाड़ों को हिला दिया है। राज्य के हर हिस्से में आपदाओं से हजारों लोग अपनी जान गवां चुके हैं। विकास की भेंट चढ़ चुके सैकड़ों गांवों को अभी तक विस्थापित नहीं किया जा सका है। इनका परिणाम हम सिलक्यारा, हेलंग और दरकते जोशीमठ में देख चुके हैं। पहाड़ में खेती, पशुपालन, जंगली उपजों, फलोत्पादन, पर्यटन से आर्थिकी का जो रास्ता निकलना था, वह कथित विकास की भेंट चढ़ गया है।

महोदय, उत्तराखंड में युवाओं के लिए रोजगार का सवाल सबसे बड़ा है। सरकार ने युवाओं के लिए रोजगार की नीति बनाने के बजाय उनके रोजगार के रास्ते बंद कर दिये हैं। जो सरकारी नौकरियां आ भी रही हैं उसमें पीपर लीक से लेकर भर्ती घोटाले तक जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं, उसने युवाओं में निराशा और आक्रोश व्याप्त है। मूल निवास की कट आॅफ डेट ने युवाओं के लिए और भी अवसर कम कर दिऐ हैं। अपेक्षाकृत शांत माने जाने वाले उत्तराखंड में लगातार अपराध बढ़ रहे हैं। इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए राज्य के लोग अपने को अपने ही राज्य में ठगा महसूस कर रहे हैं। अपनी आकांक्षाओं के ध्वंस्त होने से फिर लोगों में भारी नाराजगी है।
चारु तिवारी


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