हिन्दू नव वर्ष यानी चैत्र महीने की 01 पैट (गते) को उत्तराखंड के कुमाऊं में मेष संक्रांति, फूल संक्रांति और फूल देई के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष बसन्त ऋतु के स्वागत का यह त्यौहार फूल देई 14 मार्च 2025 को समूचे उत्तराखंड में बड़ी धूम-धाम से मनाया ।

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*आइए जानते हैं फूलदेई की कहानी*

प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
एक बार भगवान शिव अपनी शीतकालीन तपस्या में लीन हुए तो कई बर्ष बीत गए और ऋतुएं परिवर्तित होती रही लेकिन भगवान शिव जी की तंद्रा नहीं टूटी जिस कारण माँ पार्वती और नंदी आदि शिव गण कैलाश में नीरसता का अनुभव करने लगे, तब माता पार्वती जी ने भोलेनाथ जी की तंद्रा तोड़ने की एक अनोखी तरकीव निकाली। जैसे ही कैलाश में फ्योली के पीले फूल खिलने लगे माता पार्वती ने सभी शिव गणों को प्योली के फूलों से निर्मित पीताम्बरी जामा पहनाकर सबको छोटे-छोटे बच्चों का स्वरुप दिया और फिर सभी शिव गणों से कहा कि वे लोग देवताओं की पुष्पवाटिकाओं से ऐसे सुगंधित पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में फैल जाए। माता पार्वती की आज्ञा का पालन करते हुए सबने वैसा ही किया और सबसे पहले पुष्प भगवान शिव के तंद्रालीन स्वरूप को अर्पित किये जिसे “फूलदेई” कहा गया। साथ में सभी शिव गण एक सुर में गाने लगे “फूलदेई क्षमा देई” ताकि महादेव जी तपस्या में बाधा डालने के लिए उन्हें क्षमा कर दें। बालस्वरूप शिवगणों के समूह स्वर की तीव्रता से भगवान शिव की तंद्रा टूट पड़ी परन्तु बच्चों को देखकर उन्हें क्रोध नहीं आया और वे भी प्रसन्न होकर फूलों की क्रीड़ा में शामिल हो गए और कैलाश में उल्लास का वातावरण छा गया। मान्यता है कि उस दिन मीन संक्रांति का दिन था तभी से उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में “फूलदेई” को लोक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा, जिसे बच्चों का त्यौहार भी कहा जाता है।

फूल संक्रांति यानी फूल देई का सीधा संबंध भी प्रकृति से है। इस समय चारों ओर छाई हरियाली और नाना प्रकार के खिले फूल प्रकृति के यौवन में चार चांद लगाते हैं। वैसे भी उत्तराखंड की धरती पर अलग-अलग ऋतुओं के अनुसार पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं। ये पर्व एक ओर हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं, तो दूसरी ओर प्रकृति के प्रति पहाड़ के लोगों के सम्मान और प्यार को भी दर्शाते हैं। इसके अलावा पहाड़ की परंपराओं को कायम रखने के लिए भी ये पर्व-त्योहार खास हैं।

हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने से ही नव वर्ष शुरू होता है। इस नव वर्ष के स्वागत के लिए बसन्त के आगमन से ही पूरा पहाड़ बुरांस की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है। खेतों में सरसों खिल जाती है तो पेड़ों में फूल भी आने लगते हैं।

ऐसे मनाई जाती है फूलदेई

इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्याेंलीं (कहीं इसे फ्यूंली (Primrose) भी कहा जाता है), बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुये जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुये पास-पड़ोस के घरों में जाकर उनकी दहलीज पर फूल चढ़ाते हैं और सुख-शांति की कामना करते हुए गाते हैं, और प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद भी अदा करते हैं।

फूलदेई, छम्मा देई.…

जतुकै देला, उतुकै सही ।

देंणी द्वार, भर भकार,

सास ब्वारी, एक लकार,

यो देलि सौ नमस्कार ।

फूलदेई, छम्मा देई.…

जतुकै देला, उतुकै सही ।

इसके बदले में उन्हें परिवार के लोग गुड़, चावल व रुपये देते हैं। इस चावल व गुड़ आदि से शाम को चावल पीसकर इसके आटे का हलवा-‘सई भी बनाया जाता है, और विशेष रुप से प्रसाद स्वरुप ग्रहण किया जाता है। इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं। ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।

नैनीताल में प्रकृति स्वयं मना रही है फूलदेई

पहाड़ों के साथ प्रकृति का स्वर्ग कही जाने वाली सरोवरनगरी नैनीताल में ऋतुराज बसंत का आगमन हो गया है। प्रकृति जैसे स्वयं आज फूलदेई मना रही है। फूल तो फूल कलियां भी जैसे घूंघट खोल मुस्कुराती, तितलियों-भंवरों को रिझाती नजर आ रही हैं। पतझड़ में रीते हुए चिनार-पॉपुलर के पेड़ों पर जैसे मंद-मंद मुस्कान लिये हर ओर हरियाली छा गयी है। कफुवा यानी बुरांश के साथ प्योंली ओर पयां यानी पद्म प्रजाति के पेड़ों के साथ आड़ू, पुलम, खुबानी व आलूबुखारा पर भी गुलाबी वासंती बयार छायी हुई है। इन फूलों की खुशबू से सारा चमन महका हुआ है। और यह सब जल्द शुरू होने जा रहे भारतीय नव वर्ष के स्वागत को जैसे तत्पर हैं। ऐसे मौसम-प्राकृतिक सुंदरता को अपनी आंखों से निहारना चाहते हैं तो पहाड़ पर आइए,

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