आजादी के बाद साथ ही होते थे चुनाव


देश में सबसे पहले जब 1951-52 में चुनाव हुए थे, तब विधानसभा और लोकसभा के इलेक्शन साथ में ही रखे गए थे। यह सिलसिला 1967 तक ऐसे ही चलता रहा, इसका मतलब यह था कि 1957,1962 और 1967 में जो भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए थे, वो साथ में ही करवाए गए थे। जिस रिफॉर्म को लेकर आज इतनी मेहनत करनी पड़ रही है, एक जमाने में देश का चुनावी पैटर्न ऐसा था कि पहले से ही इस तरह से चुनाव होते आ रहे थे।
दक्षिण के राज्य ने लगाया पहला ग्रहण
इस बीच एक अपवाद 1959 में जरूर देखने को मिला था क्योंकि तब इंदिरा गांधी ने केरल की चुनी हुई सरकार को भंग कर दिया था। उस एक कदम की वजह से 1960 में दोबारा केरल में विधानसभा चुनाव करवाने पड़े थे। समझने वाली बात यह थी क्योंकि 1960 में केरल में विधानसभा चुनाव हो चुके थे, ऐसे में 1962 में जब फिर लोकसभा के चुनाव आए तो केरल में उस समय इलेक्शन नहीं हो सका।
आजादी के शुरुआती सालों में केरल एक ऐसा राज्य रहा जहां पर सियासी उथल-पुथल काफी ज्यादा देखने को मिली, इसी वजह से 1964 में केरल में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया, फिर 1965 में चुनाव करवाने पड़े। उस चुनाव के बाद भी वहां कोई चुनी हुई सरकार नहीं बनी बल्कि राष्ट्रपति का ही शासन जारी रहा। इसके बाद 1967 में जब लोकसभा के चुनाव करवाए गए तब केरल को फिर साथ में ले लिया, यानी कि एक देश एक चुनाव फिर देखने को मिला।
इंदिरा का गेम चेंजिंग फैसला
लेकिन यह आखरी साल था जब हिंदुस्तान में एक देश एक चुनाव साकार होता हुआ देखा गया था क्योंकि उसके बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, सियासी मजबूरियों ने ऐसे समीकरण बदले कि समय से पहले सरकारें गिरने लगीं। इसकी शुरुआत 1968 में हुई जब इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह को बर्खास्त करने का काम कर दिया।
सरकारें गिरीं और बदल गया चुनावी ट्रेंड
अब यूपी में तो राष्ट्रपति शासन लगा ही, कुछ ही महीनों बाद पंजाब में भी इसी तरह से सरकार भंग कर दी गई। फिर पश्चिम बंगाल में भी यही पैटर्न देखने को मिला और विधानसभा भंग हो गई। अब क्योंकि समय से पहले ही कई राज्यों में इसी तरह से सरकारों को गिराने का सिलसिला जारी रहा, ऐसे में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाना मुश्किल हो गया। अगर थोड़ी बहुत कोई गुंजाइश बची भी थी तो इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव समय से पहले करवाकर इसे भी खत्म कर दिया।
असल में जो लोकसभा चुनाव 1972 में होने थे इंदिरा गांधी ने उन्हें 1 साल पहले ही यानी की 1971 में करवा दिया। इसके बाद तो आपातकाल का दौर भी आया और हर राज्य का कार्यकाल अलग ही चल पड़ा।
सब ठीक तो कब तक ONOE?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर अब एक देश एक चुनाव के इस बड़े रिफॉर्म को लागू कब से किया जाएगा, और कब एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कब होंगे। इसको लेकर सूत्र बताते हैं कि अगर केंद्र सरकार द्वारा पारित ये विधेयक संसद में बिना किसी बदलाव के पारित हो जाते हैं, तो अनुमान यह है कि 2034 में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो सकते हैं।
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प्रिंट मीडिया,शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर
कितनी EVM की पड़ेगी दरकार?
ECI अधिकारी के अनुसार, एक साथ चुनाव कराने के लिए आवश्यक EVM की संख्या को दोगुना करने के लिए चुनाव आयोग को आदर्श रूप से ढाई से तीन साल की आवश्यकता होगी। उन्होंने कहा कि सिर्फ ईवीएम की चिप और अन्य सामग्रियों की खरीद में ही सात से आठ महीने लगेंगे। ECIL और BIL जैसी कंपनियां एक साथ इतनी संख्या में प्रोडक्शन नहीं कर सकतके हैं। इसलिए वास्तविक रूप से, हम तीन साल तक का समय देख रहे हैं। ऐसे ही और सवाल के जवाब जानने के लिए यहां क्लिक करें

