कुल मिलाकर मीडिया, किताबों और पिछले कुछ सालों से दोनों भाइयों के आपसी ताल्लुकात को लेकर जो भी बाहर आता रहा है, उससे लगता है कि रतन टाटा और नोएल टाटा बेशक एक ही पिता की संतान रहे हों लेकिन शायद उनके बीच रिश्तों में दूरियां और जटिलताएं थीं. इसी वजह से उन्होंने अपने जीते-जी कभी नोएल को टाटा ग्रुप में उत्तराधिकारी भी घोषित नहीं किया, जैसा उनके लिए जेआरडी टाटा और जेआरडी के लिए सर नोवरोजी शक्लातवाला ने किया था.


हिंदुस्तान Global Times/print media,शैल ग्लोबल टाइम्स,अवतार सिंह बिष्ट
क्या दूरी वाले रहे हैं संबंध
परप्लेक्सिटी एआई से जुटाई गई जानकारियां बताती हैं कि रतन टाटा और नोएल टाटा के बीच संबंध जटिल रहे हैं. बेशक वो दोनों नवल टाटा के बेटे थे लेकिन अलग मां से. इस लिहाज से नोएल टाटा उनके सौतेले भाई हैं लेकिन उनके बीच की बातचीत अक्सर दूरी वाली रही है.
टाटा समूह के नेतृत्व के लिए कभी समर्थन नहीं किया
कथित तौर पर रतन टाटा ने नोएल के अनुभव को लेकर चिंताओं का हवाला देते हुए टाटा समूह में नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए उनकी उम्मीदवारी का समर्थन नहीं किया. हालांकि हाल के वर्षों में ऐसा लगता है कि उनके बीच सुलह हो गई है. नोएल अपने बड़े भाई रतन के करीबी लोगों में एक बन गए. कॉर्पोरेट चुनौतियों के दौरान उनका साथ देते थे. लेकिन इसके बाद उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के पूछने के बारे में यही कहा कि ये काम उनके निधन के बाद टाटा ट्रस्ट करेगा. हालांकि उनके पास ये अधिकार था कि वो अपना उत्तराधिकारी उनको बना सकते थे.
वसीयत में शामिल नहीं किया
रतन और नोएल के रिश्ते में पारिवारिक संबंधों और पेशेवर प्रतिद्वंद्विता का मिश्रण दिखाई देता है. जब रतन टाटा अपनी वसीयत बना रहे थे तो उन्होंने इसमें भी उन्हें ना तो शामिल किया था और ना ही वह उनके लिए कुछ भी छोड़कर गए. ऐसा लगता है कि पारिवारिक तौर पर दोनों में कुछ तनाव तो था, जो ऐतिहासिक तौर पर तनावपूर्ण संबंधों से पैदा हुआ हो.
सौतेले भाई होने के बावजूद रतन को टाटा समूह के भीतर नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए नोएल की योग्यता के बारे में संदेह था. हालांकि हाल के वर्षों में नोएल को टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टी के रूप में नियुक्त किया गया था.
तब नोएल ने रतन का साथ दिया था
हालांकि रतन टाटा और नोएल टाटा ने सार्वजनिक रूप से कभी जाहिर नहीं किया कि दोनों में मतभेद है लेकिन उनके रिश्ते और अब वसीयत यही बताती है. हालांकि दोनों में तब सुलह हो गई थी जबकि साइरस मिस्त्री को रतन ने ही टाटा ग्रुप का मुखिया बनाया था लेकिन बाद में मिस्त्री के काम करने के तौरतरीकों को लेकर उनका रतन के साथ मतभेद हो गया. वैसे साइरस नोएल के साले थे यानि उनकी पत्नी के भाई, इसके बाद भी तब नोएल ने रतन टाटा का समर्थन किया.
टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष बने थे नोएल
तब नोएल ने विवादास्पद दौर में रतन का साथ दिया, यहां तक कि उन्हें अपनी ओर से वोट देने के लिए पावर ऑफ अटॉर्नी भी दी. एकजुटता के इस काम ने नोएल को रतन के करीबी लोगों में शामिल होने का मौका दिया, जिससे उनके पारिवारिक बंधन मजबूत हुए. इस समर्थन ने नोएल को बाद में टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने में मदद की, इससे लगता है कि दोनों भाइयों के बीच सुलह हो गई.
सौतेली मां सिमोन से रिश्ते सकारात्मक रहे
रतन टाटा का अपनी सौतेली मां सिमोन टाटा के साथ रिश्ता आम तौर पर सकारात्मक रहा. सिमोन ने टाटा समूह में महत्वपूर्ण योगदान दिया. विशेष रूप से भारत के पहले सौंदर्य ब्रांड लैक्मे की स्थापना में. मिश्रित परिवार की जटिलताओं के बावजूद रतन ने उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मान व्यक्त किया.
पिता के साथ रिश्ते जटिल और तनाव वाले थे
रतन के अपने पिता नवल टाटा के साथ रिश्ते यकीनन जटिल और तनावपूर्ण थे. उसकी वजह माता-पिता का तलाक था. तब रतन छोटे थे. जैसे-जैसे बड़े होते गए, व्यक्तिगत पसंद को लेकर मतभेद उभरने लगे. कई मौकों पर पिता ने कुछ चीजें उनके ऊपर थोपने की कोशिश की और उन्होंने उसका विरोध किया.
मां-बाप के तलाक का उन पर बहुत असर पड़ा
रतन टाटा का अपनी सगी मां सूनी टाटा के साथ रिश्ता भी इस तलाक के कारण प्रभावित हुआ. तलाक के समय वह केवल दस वर्ष के थे. मां के दोबारा विवाह करने के बाद उन्हें स्कूल में चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उनके साथी उन्हें चिढ़ाते थे. हालांकि रतन ने कहा कि सूनी ने उनके शुरुआती जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सगी मां के साथ कैसे बाद में रिश्ता बेहतर हुआ
हालांकि समय के साथ मां सूनी टाटा के साथ उनका रिश्ता समय के साथ काफी बदला. तलाक के कुछ समय बाद ही उनकी मां ने दोबारा शादी कर ली थी, जिसकी वजह से शुरू में तनाव की स्थिति बनी रही. जब उनकी मां के दूसरे पति की मृत्यु हो गई तो मां के साथ उनका रिश्ता फिर से मजबूत होने लगा. वह अक्सर भारत में उनसे मिलने आती रहीं.
दोनों सौतेली बहनों के साथ रिश्ते बेहतर और भावनात्मक रहे
रतन के अपनी दोनों सौतेली बहनों के साथ जरूर बहुत भावनात्मक और बेहतर रिश्ते रहे. जो उनकी वसीयत से भी पता लगता है. इन बहनों के नाम शिरीन और डीनना जीजीभॉय हैं. शिरीन और डीनना दोनों ही धर्मार्थ कार्यों में गहराई से शामिल रही हैं, इसका रतन पर काफी असर पड़ा. उन्होंने अपनी बहनों की वजह से ही कल्याण के काम शुरू किये. वह बहनों से हमेशा मिलते जुलते थे. उनके साथ उन्होंने जीवनभर घनिष्ठ संबंध बनाए रखे, अक्सर उनसे मिलने जाते थे. उनकी कोशिशों का समर्थन करते थे.

