
एक बार फिर एक बेटी की मासूमियत को छल के शिकंजे में जकड़ा गया है। राजस्थान के बसई से ताल्लुक रखने वाली 15 वर्षीय नाबालिग छात्रा जो उत्तराखंड के पारा थाना क्षेत्र में रहकर पढ़ाई कर रही थी, उसके साथ हुई घटना ने एक बार फिर समाज, सरकार और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया है।


हमजा खान नामक युवक पर आरोप है कि वह इस नाबालिग को बहला-फुसलाकर 4 अप्रैल को नैनीताल ले गया। वहां एक मौलवी की मदद से लड़की का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया और निकाह भी पढ़वा दिया गया। पीड़िता की मां ने आरोप लगाया कि उसकी बेटी को जबरन कलमा पढ़वाया गया। “वह बच्ची है, उसे कलमा पढ़ना नहीं आता था, मौलवी ने उसे दोहराने को मजबूर किया” — ये बयान अकेले उस दर्द को बयां करता है जिसे शब्दों में मापना असंभव है।
पुलिस की लापरवाही — अपराध को खुला निमंत्रण
सबसे पहले सवाल उठता है — जब परिवार थाने पहुंचा और बेटी के लापता होने की सूचना दी, तब पुलिस ने तुरंत हरकत क्यों नहीं की? पिता का आरोप है कि जब उन्होंने मामला थाने में दर्ज कराना चाहा तो पुलिस ने शुरू में गंभीरता नहीं दिखाई। जब भी पुलिस शुरुआती दौर में लापरवाही बरतती है, तो वह अपराधियों को समय और सुविधा दोनों देती है कि वे अपने मंसूबे पूरा कर सकें।
अगर पुलिस ने उसी दिन FIR दर्ज कर सघन छानबीन शुरू की होती, तो शायद नाबालिग को धर्मांतरण और जबरन निकाह के दर्द से न गुजरना पड़ता। इस लापरवाही की जवाबदेही तय होनी चाहिए।
क्या सिर्फ आरोपी युवक दोषी है?
इस पूरे घटनाक्रम में केवल हमजा खान ही नहीं, बल्कि वह मौलवी भी दोषी है जिसने एक नाबालिग लड़की से जबरन धर्म परिवर्तन करवाया। यह न सिर्फ कानूनन अपराध है, बल्कि नैतिक रूप से भी निंदनीय है। भारत के संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को धर्म बदलने की पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन उसमें बल, छल, लालच या जबरदस्ती की कोई जगह नहीं है — और जब यह कार्य एक नाबालिग के साथ हो, तो यह पूरी तरह से दंडनीय अपराध बन जाता है।
यहां यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या इस पूरे प्रकरण में कोई संस्थागत मदद थी? क्या मौलवी को मालूम था कि लड़की नाबालिग है? अगर हां, तो क्या उस मौलवी पर POSCO एक्ट और जबरन धर्मांतरण अधिनियम के तहत कार्यवाही होगी?
उत्तराखंड में धर्मांतरण के बढ़ते मामले
उत्तराखंड जैसे शांत, पहाड़ी राज्य में पिछले कुछ वर्षों से धर्मांतरण, विशेषकर नाबालिग लड़कियों के मामलों में, चिंताजनक वृद्धि हुई है। चाहे वह प्रेम-जाल में फंसा कर हो या आर्थिक लालच के माध्यम से, कई घटनाएं पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हैं। इस संदर्भ में सरकार द्वारा धर्मांतरण विरोधी कानून पारित तो किया गया है, लेकिन उसकी प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल हैं।
उत्तराखंड धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम, 2022 के तहत बल, प्रलोभन, झूठ या जबरदस्ती से किया गया धर्म परिवर्तन दंडनीय अपराध है। नाबालिग, महिला, अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्तियों के धर्म परिवर्तन के मामलों में अधिकतम 10 साल तक की सजा का प्रावधान है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ऐसे मामलों में अभियोजन की गति धीमी रहती है और पीड़ित परिवार न्याय के लिए वर्षों भटकता है।
सामाजिक चिंता और मानसिक आघात
इस घटना का एक और पहलू है जिस पर बहुत कम बात होती है — पीड़िता और उसके परिवार का सामाजिक और मानसिक आघात। एक नाबालिग जबरन धर्मांतरण का शिकार होती है, निकाह में शामिल कर दी जाती है, तो उसके मासूम मन पर जो चोट लगती है, वह जीवन भर उसका पीछा करती है।
मां का यह कहना — “हमारी बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी गई” — उस असहाय पीड़ा को दिखाता है जो हर माता-पिता तब महसूस करते हैं जब व्यवस्था उनकी संतानों को नहीं बचा पाती। समाज भी ऐसे मामलों में दो हिस्सों में बंट जाता है — एक जो अपराधी को धर्म के नाम पर बचाने की कोशिश करता है, और दूसरा जो पीड़िता की आवाज को न्याय तक पहुंचाने के लिए संघर्ष करता है।
निकाह के नाम पर ‘कानूनी’ ढाल
इस मामले में भी आरोपी हमजा खान ने ‘निकाह’ को एक वैधानिक कवच की तरह इस्तेमाल किया। लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई भी नाबालिग अपना स्वतंत्र निर्णय लेकर विवाह कर सकती है? कानून साफ कहता है कि 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की की शादी बाल विवाह मानी जाएगी और उसमें शामिल हर व्यक्ति पर कार्यवाही की जा सकती है।
इस दृष्टि से देखा जाए, तो केवल धर्मांतरण ही नहीं, बल्कि बाल विवाह का आरोप भी बनता है। मौलवी, निकाह में शामिल गवाह और संभवतः अन्य मददगारों पर बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत केस दर्ज किया जाना चाहिए।
राजनीतिक चुप्पी क्यों?
उत्तराखंड में यह मामला चर्चाओं का विषय बना हुआ है, लेकिन प्रदेश सरकार या विपक्ष की ओर से कोई स्पष्ट या कड़ा बयान अब तक सामने नहीं आया है। सवाल उठता है — क्या नाबालिग लड़कियों की सुरक्षा अब भी हमारी राजनीति के एजेंडे में नहीं है? क्या जब तक मामला मीडिया ट्रायल या जन आंदोलन का रूप न ले, तब तक सरकारें चुप रहेंगी?
जनता जानना चाहती है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और महिला कल्याण विभाग इस मामले पर क्या रुख अपनाएंगे? क्या आरोपी के खिलाफ सख्त चार्जशीट और फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई सुनिश्चित की जाएगी? या फिर यह मामला भी फाइलों में धूल खाता रह जाएगा?
आगे की राह — समाधान की तलाश
इस घटना को एक केस स्टडी की तरह लेकर राज्य सरकार को तुरंत निम्न कदम उठाने चाहिए:
- पुलिस जवाबदेही: थाने में दर्ज लापरवाही की शिकायत की निष्पक्ष जांच हो और दोषी पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई की जाए।
- मौलवी और अन्य की गिरफ्तारी: धर्मांतरण और बाल विवाह में शामिल मौलवी और गवाहों पर केस दर्ज हो।
- मानसिक स्वास्थ्य सहायता: पीड़िता को काउंसलिंग और पुनर्वास की सरकारी सहायता मिले ताकि उसका आत्मविश्वास बहाल हो सके।
- जन-जागरूकता अभियान: नाबालिगों को बहलाने-फुसलाने से बचाने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
- फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई: पूरे मामले की 3 महीने के भीतर सुनवाई कर दोषी को सजा दिलाई जाए।
यह घटना केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं है, यह पूरे समाज के लिए आईना है। अगर आज हम इस लड़की के लिए नहीं बोले, तो कल यह हादसा किसी और के घर होगा। धर्म, जाति, राजनीति से ऊपर उठकर समाज को बेटियों की सुरक्षा और न्याय की लड़ाई में एकजुट होना होगा। व्यवस्था को यह संदेश देना होगा कि किसी भी कीमत पर ऐसे अपराधियों को बख्शा नहीं जाएगा।
“हमारी बेटियां कोई प्रयोगशाला नहीं हैं जहां उनकी मासूमियत को बहलावे और मजहबी छल से रौंदा जाए। अब बस!”
