सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार, “पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है”। सन 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद सुन्दरलाल बहुगुणा दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ‘ठक्कर बाप्पा होस्टल’ की स्थापना भी की। दलितों को मन्दिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए भी उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया था।
परिचय
सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी, सन 1927 को देवों की भूमि उत्तराखंड के सिलयारा नामक स्थान पर हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के बाद वे लाहौर चले गए और वहीं से उन्होंने कला स्नातक किया था। अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिलयारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना भी की। सन 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद ये दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी की। दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया। सिलयारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मण्डल’ की स्थापना की । 1971 में सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
पर्यावरण संरक्षण के प्रतीक
न सिर्फ देश बल्कि दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के बड़े प्रतीक में शुमार सुंदरलाल बहुगुणा ने 1972 में चिपको आंदोलन को धार दी। साथ ही देश-दुनिया को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप चिपको आंदोलन की गूंज समूची दुनिया में सुनाई पड़ी। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा जुड़ाव था। वह पारिस्थितिकी को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे। यही वजह भी है कि वह उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। इसे लेकर उन्होंने वृहद आंदोलन शुरू कर अलख जगाई थी।
उनका नारा था- ‘धार ऐंच डाला, बिजली बणावा खाला-खाला।’ यानी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ लगाइये और निचले स्थानों पर छोटी-छोटी परियोजनाओं से बिजली बनाइये। सादा जीवन उच्च विचार को आत्मसात करते हुए वह जीवन पर्यंत प्रकृति, नदियों व वनों के संरक्षण की मुहिम में जुटे रहे। बहुगुणा ही वह शख्स थे, जिन्होंने अच्छे और बुरे पौधों में फर्क करना सिखाया।
क्या है चिपको आंदोलन?
सन 1962 में चीन से युद्ध के बाद भारत सरकार ने तिब्बत सीमा पर अपनी पैठ मजबूत करने की तैयारी की। कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक बॉर्डर के इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू हुआ। उस वक्त उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के इलाके में आने वाले चमोली जिले में भी सड़क निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। सड़क बनानी थी तो जमीन चाहिए थी और पहाड़ के जंगल वाले इलाकों में बिना पेड़ों को काटे जमीन कैसे मिलती। ऐसे में बड़े पैमाने पर जंगल की कटाई शुरू हुई। सन 1972 आते-आते ये कटाई काफ़ी तेज हो गई। पेड़ों को काटने का स्थानीय लोगों ने विरोध किया। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोग विरोध में सामने आ गए। इलाके की महिलाएं भी जंगल कटाई के खिलाफ उतर आईं। जगह-जगह महिला मंगल दल बन गए। रैणी गांव में भी महिला मंगल दल बना। गौरा देवी को इसका अध्यक्ष बनाया गया। महिला मंगल दल की महिलाएं घर-घर घूमकर लोगों को पेड़ों का महत्व समझातीं और पर्यावरण के लिए जागरूक करतीं।
सन 1973 की शुरुआत में तय हुआ कि रैणी गांव के ढाई हजार पेड़ काटे जाएंगे। इसके विरोध में पूरा गांव खड़ा हो गया। 23 मार्च 1973 को पेड़ों की कटाई के विरोध में रैली निकाली गई। लेकिन इस सबका सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। पेड़ काटने का ठेका भी दे दिया गया। ठेकेदार पेड़ काटने पहुंच गए। तभी गौरा देवी के नेतृत्व में रैणी गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं। उनका कहना था- “पहले हमें काटो, फिर पेड़ को काटना”। नतीजतन पेड़ों को काटने का फरमान सरकार को वापस लेना पड़ा। इसके बाद पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने का ये अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया। इसे ‘चिपको आंदोलन’ कहा गया। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणविद पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व करने लगे। आगे चलकर यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रसिद्ध हो गया। पूरी दुनिया के पर्यावरण प्रेमी और पर्यावरण संरक्षण में लगे लोग इससे प्रेरित हुए।
इस आंदोलन का असर यह हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘वन संरक्षण कानून’ लाना पड़ा। इसके जरिए इस इलाके में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए बैन लगा दिया गया। यहां तक कि केन्द्र सरकार ने अलग से ‘वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’ भी बना दिया।
पुरस्कार
बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने 1980 में इनको पुरस्कृत किया। इसके अलावा उन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया । पर्यावरण को स्थाई सम्पति मानने वाला यह महापुरुष ‘पर्यावरण गाँधी’ बन गया। अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता के रूप में 1981 में स्टाकहोम का वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार मिला। सुन्दरलाल बहुगुणा को सन 1981 में पद्मश्री पुरस्कार दिया गया जिसे उन्होंने यह कह कर स्वीकार नहीं किया कि जब तक पेड़ों की कटाई जारी है, मैं अपने को इस सम्मान के योग्य नहीं समझता हूँ।
1985 में जमनालाल बजाज पुरस्कार।
- रचनात्मक कार्य के लिए सन 1986 में जमनालाल बजाज पुरस्कार,
- 1987 में राइट लाइवलीहुड पुरस्कार (चिपको आंदोलन),
- 1987 में शेर-ए-कश्मीर पुरस्कार
- 1987 में सरस्वती सम्मान
- 1989 सामाजिक विज्ञान के डॉक्टर की मानद उपाधि आईआईटी रुड़की द्वारा
- 1998 में पहल सम्मान
- 1999 में गाँधी सेवा सम्मान
- 2000 में सांसदों के फोरम द्वारा सत्यपाल मित्तल एवार्ड
- सन 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।[1]
मृत्यु
सुन्दरलाल बहुगुणा का निधन 21 मई, 2021 (शुक्रवार) को ऋषिकेश स्थित ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ (एम्स) में हुआ। वह 94 वर्ष के थे और पिछले दिनों से कोविड-19 से संक्रमित थे। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने ट्वीट किया, ‘चिपको आंदोलन के प्रणेता, विश्व में ‘वृक्षमित्र’ के नाम से प्रसिद्ध महान पर्यावरणविद् पद्म विभूषण श्री सुंदरलाल बहुगुणा जी के निधन का अत्यंत पीड़ादायक समाचार मिला है। यह खबर सुनकर मन बेहद व्यथित है। यह सिर्फ उत्तराखंड के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण देश के लिए अपूरणीय क्षति है’। उन्होंने अपने ट्वीट में आगे कहा, ‘पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में दिए गए महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें 1986 में ‘जमनालाल बजाज पुरस्कार’ और 2009 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया था। पर्यावरण संरक्षण के मैदान में श्री सुंदरलाल बहुगुणा जी के कार्यों को इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा’।