
“बीजेपी के अभिभावक के तौर पर संघ केंद्र सरकार के पिछले क़रीब ग्यारह साल के प्रदर्शन को कैसे देखता है? वो कौन से मुद्दे हैं जिन पर केंद्र सरकार को ज़्यादा ध्यान देना चाहिए या ज़्यादा ईमानदारी से काम करना चाहिए?”


प्रिंट मीडिया, शैल ग्लोबल टाइम्स/ हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स/संपादक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, अवतार सिंह बिष्ट रुद्रपुर, (उत्तराखंड)
हाल में बेंगलुरु में आयोजित आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में जब संघ के प्रतिनिधियों से बीजेपी से जुड़े सवाल पूछे गए तो संघ के जवाब सतर्क और बीजेपी से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखने वाले दिखाई दिए.
क्या वजह है कि इस साल अपनी स्थापना के सौ साल पूरे करने जा रहा संघ इस बैठक में औरंगज़ेब, मणिपुर, बांग्लादेश में हिन्दुओं के हालात, भाषा-विवाद और परिसीमन जैसे मुद्दों पर तो खुलकर बोला लेकिन बीजेपी का ज़िक्र आते ही सावधान और संयमित नज़र आया?
बीजेपी से जुड़े सवालों पर संघ के जवाब
Getty Imagesपीएम मोदी के जीवन पर आधारित किताब के विमोचन के मौक़े पर मोहन भागवत और अमित शाह
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) आरएसएस की सर्वोच्च फैसले लेने वाली संस्था है. हर साल एबीपीएस की सालाना बैठक में संघ की नीतियों और दृष्टिकोण की चर्चा होती है और संघ परिवार की संस्थाओं के प्रतिनिधियों से बातचीत होती है. इस बैठक में संघ अपनी सालाना रिपोर्ट भी जारी करता है.
इस बार बेंगलुरु में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा बैठक की तीसरी और आख़िरी पत्रकार वार्ता में संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कई मुद्दों पर सवालों के जवाब दिए.
जब उनसे मीडिया ने पूछा कि चूंकि संघ बीजेपी का अभिभावक है इसलिए पिछले क़रीब ग्यारह साल से केंद्र में काम कर रही बीजेपी सरकार के प्रदर्शन को संघ कैसे आंकता है, तो उन्होंने कहा, “आंकलन देश के लोगों ने किया है. संघ देश से अलग नहीं है. और अभिभावक की बात है तो हम किसी भी सरकार के अभिभावक बनने को तैयार हैं, सिर्फ़ भाजपा के नहीं.”
“कोई भी पार्टी आए और हमारे विचार मिलें तो हम अभिभावक बन सकते हैं. कोई आता नहीं है वो अलग बात है.”
जब मिडिया ने उनसे पूछा कि वो कौन से मुद्दे हैं जिन पर केंद्र सरकार को ज़्यादा ध्यान देना चाहिए या ज़्यादा ईमानदारी से काम करना चाहिए, तो होसबाले ने कहा, “हम उन्हें मिलकर बताएँगे अगर ऐसा है तो. अभी कोई ऐसी स्थिति नहीं है. सब ठीक ही चल रहा है.”
आरएसएस के सह सरकार्यवाह अरुण कुमार (बाएं) और प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर
इसके बाद अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए होसबाले ने कहा, “संघ से स्वयंसेवक रोज़ उठकर हम सरकार को ये करो वो करो नहीं कहेंगे. कई विषय भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे कार्यकर्ता और स्वयंसेवक व्यक्त करते हैं. वे सभी प्रमुख संगठन हैं. वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा लेते हैं. और हमारे पास एक तंत्र है जहां ऐसी चीज़ों पर चर्चा की जाती है. अगर कोई बात होती है तो निश्चित रूप से आरएसएस उसे सामने लाता है.”
होसबाले ने कहा, “अभी हमको लगता है कि अभी चल रहा है.. अच्छा है… देश की सुरक्षा के… देश के अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्बन्ध के… हर प्रकार के विषयों पर अच्छा चल रहा है. अब लोगों को मौका भी मिलता है राज्य और लोकसभा चुनाव के समय. और लोग व्यक्त करते भी हैं. तो इसलिए ऐसी कोई स्थिति नहीं है कि हम आज आंकलन करें. हर प्रेस कांफ्रेंस में संघ आंकलन को रिलीज़ नहीं करता. रोज़ आंकलन करके बताने की हमारी कोई पद्धति नहीं है. तो समय-समय पर आंकलन होता है.”
इसी प्रेस वार्ता में होसबाले से पूछा गया कि क्या बीजेपी की तरफ से बीजेपी अध्यक्ष पद को लेकर संघ से कोई सुझाव मांगा गया है और अगर सुझाव मांगा जाएगा तो क्या संघ की तरफ़ से सुझाव दिया जायेगा?
जवाब में होसबाले ने कहा, “और 35 संगठनों के लिए… बीएमएस के लिए.. और किसी के लिए… आपने कभी पूछा ही नहीं है. हमारे लिए सब समान हैं. देश के लिए सभी लोग काम कर रहे हैं और वो सब स्वतंत्र संगठन हैं. वह संघ के स्वयंसेवक हैं इसलिए हमारा संबंध है.”
“ऑर्गेनाइज़ेशन की कॉन्स्टिट्यूशनल चीज़ों को उनको करना है, वो करते हैं. हमसे पूछना चाहिए ऐसी हमारी अपेक्षा भी नहीं है और उनको क्या करना चाहिए, उनके टाइम-टेबल के हिसाब से कब करना चाहिए, वो वहां के लोगों का काम है. हम उसमें हस्तक्षेप नहीं करते. वो अपना काम भी नहीं है. हम नहीं करते.”
दिलचस्प बात ये भी रही कि जब इस प्रेस वार्ता के कुछ देर बाद संघ ने एक प्रेस रिलीज़ को जारी किया तो उसमें औरगंजेब, वक़्फ़ और मणिपुर से जुड़े सवालों पर होसबाले के जवाबों की बात तो थी लेकिन बीजेपी से जुड़े इन सवालों का कोई ज़िक्र नहीं था.
प्रधानमंत्री मोदी का नागपुर दौरा
पिछले साल लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नागपुर में एक सभा के दौरान पीएम मोदी
30 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागपुर में माधव नेत्रालय ट्रस्ट द्वारा बनाए जा रहे माधव नेत्रालय प्रीमियम सेंटर की आधारशिला रखेंगे.
इस ख़बर के आते ही इस चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया कि क्या प्रधानमंत्री संघ के मुख्यालय जाएंगे? कुछ ख़बरों में कहा गया है कि आधारशिला के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत मंच साझा करेंगे. लेकिन ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि क्या इस दौरे के दौरान प्रधानमंत्री और सरसंघचालक के बीच कोई बैठक या बातचीत होगी?
इस बारे में जब संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले से पूछा गया तो उन्होंने कहा, “हमें अभी तक कोई कार्यक्रम विवरण नहीं मिला है.” साथ ही उन्होंने कहा, “स्वाभाविक रूप से, हम (प्रधानमंत्री का) स्वागत करेंगे.”
साल 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद ऐसे मौक़े कम ही आए हैं जब मोदी और भागवत एक साथ नज़र आए हों.
साल 2020 में अयोध्या में राम मंदिर के भूमि पूजन पर दोनों साथ दिखे थे.
जनवरी 2024 में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के दौरान फिर एक बार मोदी और भागवत एक साथ नज़र आए. राम मंदिर के गर्भ-गृह में भागवत मोदी के साथ पहले पूजा अर्चना करते दिखे और बाद में मंच से भाषण देते हुए भी जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री की काफ़ी तारीफ़ की थी.
लेकिन समय-समय पर भागवत के कुछ ऐसे बयान भी आए जिनसे ऐसा लगा कि वो प्रधानमंत्री पर निशाना साध रहे हैं.
जैसे दिसंबर 2024 में भागवत का एक बयान आया जिसमें कहा गया कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे नई जगहों पर इसी तरह के मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं, यह स्वीकार्य नहीं है.
जून 2022 में भागवत ने कहा था कि हर मस्जिद में ‘शिवलिंग’ खोजने और हर दिन एक नया विवाद शुरू करने की कोई ज़रूरत नहीं है.
बदलते समीकरण?
Getty Imagesबीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का ‘बीजेपी के लिए आरएसएस की ज़रूरत न होने’ वाला बयान काफ़ी सुर्खियों में रहा था
तो क्या आरएसएस और बीजेपी के बीच के समीकरण बदल रहे हैं?
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, “प्रधानमंत्री और सरसंघचालक के बीच में सब कुछ एकदम सामान्य है, ऐसा नहीं कह सकते. क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह के उनके बयान आए हालांकि कहीं उन्होंने पीएम का नाम नहीं लिया, लेकिन वो सबको समझ आता था कि किस को टारगेट किया जा रहा है.”
प्रदीप सिंह साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बीच आए बीजेपी नेता जेपी नड्डा के उस बयान का ज़िक्र करते हैं जिसमें उन्होंने बीजेपी के सक्षम होने और उसे आरएसएस की ज़रूरत न होने की बात कही थी.
नड्डा के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए संघ ने इस मामले को एक “पारिवारिक मामला” बताया था और कहा था कि संघ ऐसे मुद्दों पर सार्वजनिक मंचों पर चर्चा नहीं करता.
प्रदीप सिंह कहते हैं, “संघ में लोगों का मानना है कि वो बयान जेपी नड्डा ने अपने आप नहीं दिया था, उनसे दिलवाया गया था. इस बारे में सच्चाई क्या है वो जानकारी है नहीं लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसा बयान ऊपर से बिना परामर्श किए नहीं दिया होगा, ऐसा माना जा सकता है.”
“तो इसलिए ये माना गया कि संघ को लेकर बीजेपी में पुनर्विचार हो रहा है कि संघ को कितना दख़ल देने की छूट दी जाए. उसके बाद जब सीटें कम हो गईं तो ये समझ आया कि संघ के बिना काम नहीं चलेगा.”
प्रदीप सिंह के मुताबिक़ पिछले लोकसभा चुनावों के बाद संघ और बीजेपी में जिस तरह का समन्वय हुआ उसका नतीजा हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों में दिखाई दिया.
वो कहते हैं, “तो ये तो समझ बन गई है कि एक दूसरे के बिना काम नहीं चलेगा और चूंकि संघ की स्थापना का सौंवा साल है तो संघ ये नहीं चाहता कि कोई इस तरह का विवाद हो जिससे ये संघर्ष की बातें उभर के आएं. लेकिन उसका ये भी मतलब नहीं है कि सबकुछ ठीक है, सब अच्छा चल रहा है. सबकी निगाह इस वक़्त 30 मार्च की मीटिंग पर है जो प्रधानमंत्री मोदी और मोहन भागवत के बीच होने जा रही है.”
इस मीटिंग के बारे में सिंह कहते हैं, “अगर प्रधानमंत्री नागपुर जाते हैं और वहां किसी कार्यक्रम में शामिल होते हैं और संघ कार्यालय न जाएं, तो उसका संदेश बहुत ख़राब जाएगा. और वो नागपुर जाएं, संघ कार्यालय जाएं और संघ प्रमुख न हों तो उसका भी संदेश ख़राब जायेगा. तो कम से कम ऑप्टिक्स के लिए, भले ही इच्छा न हो, दोनों मिलेंगे ज़रूर.”
बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव का मामला
बीजेपी में नए अध्यक्ष के मुद्दे पर लंबे समय से फ़ैसला नहीं हो पाया है
जेपी नड्डा का बीजेपी अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल जनवरी 2023 में ख़त्म हो गया था. लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र बीजेपी ने इसे जून 2024 तक बढ़ा दिया था. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद नड्डा को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी बनाया गया लेकिन साथ ही वे पार्टी अध्यक्ष का काम भी संभालते आ रहे हैं.
माना जा रहा था कि दिसंबर 2024 तक पार्टी अपना नया अध्यक्ष चुन लेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और धीरे-धीरे बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव में हो रही देरी पर राजनीतिक चर्चा और कयास तेज़ होने लगे.
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, “ये तो बीजेपी के इतिहास में शायद पहली बार होगा कि कोई अध्यक्ष एक्सटेंशन पर इतने लंबे समय से चल रहा हो. तो क्यों एक्सटेंशन पर चल रहा है? उसका तकनीकी कारण आप कह सकते हैं कि संगठन के प्रांतीय और ज़िला स्तर पर चुनाव पूरे नहीं हुए हैं और 18 राज्यों के चुनाव उन्हें चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है. इसका मतलब है कि संघ और बीजेपी में किसी राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई है.”
प्रदीप सिंह का भी कुछ ऐसा ही मानना है.
वे कहते हैं, “एक कारण तो ये है कि सहमति नहीं बन पा रही और दूसरा ये भी है कि बीजेपी के संविधान के मुताबिक़ जब तक आधे राज्यों का चुनाव नहीं हो जाता तब तक राष्ट्रीय अध्यक्ष की प्रक्रिया शुरू ही नहीं होती. लेकिन वो टेक्निकल बात है. असली कारण जो मुझे लगता है वो ये कि दोनों के बीच बातचीत नहीं होने की वजह से. क्योंकि संघ अपनी ओर से नाम नहीं देता है. बीजेपी की ओर से पूछा जाता है कि ये नाम हैं, इन पर विचार कर रहे हैं, तो उसमें संघ अपनी पसंद-नापसंद बताता है.”
बीजेपी के मामलों में संघ का कितना दख़ल?
बेंगलुरु में आयोजित आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ के स्वयंसेवक
संघ को बीजेपी की रीढ़ माना जाता है. और कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत की वजह ज़मीनी स्तर पर संघ की उपस्थिति और काम को माना गया है.
तो ये सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि बीजेपी के मामलों में संघ का कितना दख़ल रहता है.
वरिष्ठ पत्रकार अवतार सिंह कहते हैं कि औपचारिक तौर पर आरएसएस का यही रुख़ रहता है कि वो बीजेपी में दख़ल नहीं देते हैं और “ये बात भी सही है कि वो दिन-प्रतिदिन के मामलों में दख़ल नहीं देते हैं”.
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बात करते हुए त्रिवेदी कहते हैं कि ये वो बैठक है जिसमें संघ के सभी संगठनों के प्रमुख लोग शामिल होते हैं.
वो कहते हैं, “प्रतिनिधि सभा बैठक इन सभी संगठनों की सालाना ऑडिट रिपोर्ट है. तो जब आप ऑडिट रिपोर्ट के लिए प्रतिनिधि सभा की बैठक कर रहे हैं तो उसका मतलब है कि आपका दख़ल है ना? आप पूछ रहे हैं न बीजेपी से, मज़दूर संघ से, एबीवीपी से, कि आप क्या कर रहे हैं.”
“या जो संघ का विचार है, नीति है, उस पर आप चल रहे हैं? ठीक काम हुआ है कि नहीं हुआ है? 2024 के चुनाव का नतीजा क्या रहा? क्यों बीजेपी की ताक़त कम हो गई. तो ऑडिट रिपोर्ट का मतलब ही ये हुआ कि आपका दख़ल है.”
अवतार सिंह बिष्ट के मुताबिक़ बड़ा बदलाव ये हुआ है कि पहले की तुलना में बीजेपी की, और संघ की ताक़त से भारतीय जनता पार्टी की ताक़त बड़ी हो गई है.”जो जेपी नड्डा ने कहा, वो ग़लत बात नहीं है. संघ के स्वयंसेवक एक करोड़ हैं देश भर में और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता 12 करोड़ हैं. तो इसका मतलब संघ के अलावा भी 11 करोड़ लोग हैं. तो संगठन के तौर पर बीजेपी की ताक़त बढ़ी है. और दूसरा कि बीजेपी सत्ता में है.””संघ भाजपा के क्षेत्र में दख़ल देना चाहता है. दख़ल इस तरह का कि जो नीतियां बने उनकी चर्चा पहले संघ से की जाए. बीजेपी का ये कहना है कि सरकार चलाना हमारा काम है, संगठन आप चलाइए.”
अतीत में संघ के प्रभाव का ज़िक्र करते हुए विजय त्रिवेदी कहते हैं, “लालकृष्ण आडवाणी का पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा संघ के कारण हुआ. उस समय मोहन भागवत सरकार्यवाह थे. उनके कहने पर इस आदेश पर काम हुआ.”
“साल 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया, वो संघ के कहने पर बनाया गया आडवाणी जी की नाराज़गी के बाद भी. संघ का दख़ल बढ़ गया है. क्योंकि अब तो विधायकों के नाम, टिकटों के नाम, वाइस चांसलरों के नाम संघ तय कर रहा है. और बीजेपी में प्रान्त स्तर पर भी संगठन महासचिव संघ का प्रचारक होता है. फिर कैसा दख़ल नहीं है?”
आगे की राह
बेंगलुरु में आयोजित आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में मोहन भागवत और दत्तात्रेय होसबाले
पिछले तीन लोकसभा चुनाव जीत कर बीजेपी केंद्र में सत्ता पर काबिज़ है. पार्टी ने कई विधानसभा चुनाव भी जीते हैं.
वहीं अपनी स्थापना के सौ साल पूरा करने जा रहा संघ भी आज खुद को एक मज़बूत स्थिति में पाता है. संघ के मुताबिक़ उससे जुड़ने वाले लोगों और संघ की शाखाओं की संख्या बढ़ी है.
ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बीजेपी की चुनावी सफलताओं के पीछे संघ की ज़मीनी स्तर पर काम कर रही मशीनरी का बड़ा हाथ है.
तो आने वाले वक़्त में संघ और बीजेपी के रिश्ते कैसे रहेंगे?
हिंदुस्तान ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक संघ और बीजेपी का रिश्ता ऐसा है जिसमें दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. “ये एक सहजीवी रिश्ता है. दोनों का फ़ायदा है. तो इसलिए चलता रहेगा. जब एक ही का फ़ायदा होता है किसी भी रिश्ते में तो फिर उसमें मुश्किल आने लगती है. पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों ने बीजेपी को ये साफ़तौर पर बता दिया कि संघ के बिना उनका काम नहीं चलेगा.”
“और संघ को भी मालूम है कि वो तीन-तीन प्रतिबन्ध झेल चुके हैं. सरकार का साथ न हो, तो फिर काम करने में बहुत सारी दिक्क़तें आती हैं. और सरकार अपनी हो, साथ हो तो बहुत सारी सहूलियतें हो जाती हैं. अब सवाल सिर्फ़ ये है कि किसकी कितनी सुनी जाएगी. और वो बातचीत से ही हल हो सकता है.”
अवतार सिंह कहते हैं कि संघ का कोई सीधा राजनीतिक उद्देश्य नहीं है और उसका उद्देश्य बीजेपी के ज़रिए है. वे कहते हैं, “आज भी बीजेपी में संगठन मंत्री चाहे प्रदेश में हो चाहे राष्ट्रीय स्तर पर, वो संघ से ही आता है. उस रिश्ते में तो कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आ सकता. बदलाव से किसी को फ़ायदा नहीं होने वाला है, नुक़सान दोनों का होगा. तो ये नरम-गरम थोड़ा चलता रहेगा.”
अवतार सिंहबिष्ट के मुताबिक़ ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में बीजेपी संघ की सब बातें मान लेगी या संघ बीजेपी की सब बातें मान लेगा. “ये रिश्ता कई मामलों में लेन-देन वाला हो जायेगा कि हम आपकी ये बात मान लेते हैं आप हमारी ये बात मान लीजिए.”संघ को एक परिवार की तरह समझा जाए तो समझ आ जायेगा.मान लीजिये परिवार में चार बेटे हैं और एक बेटा आईएएस अधिकारी बन जाता है तो फिर माता-पिता की कितनी चलती है?” संघ और बीजेपी का रिश्ता ऐसे ही चलेगा और किसी भी परिवार की तरह उसमें उतार चढ़ाव आते रहेंगे.
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